अशाेक ‘प्रवृद्ध’
सम्पूर्ण विश्व में शांति स्थापित करने और अहिंसा का मार्ग अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करने के उद्देश्य से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्म दिवस 2 अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है। हमारे देश में इसे गांधी जयंती के नाम से भी जाना जाता है। मोहनदास करमचंद गांधी को भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और अहिंसा के पुजारी के रूप में मान्यता प्राप्त है। मान्यता है कि गांधीजी का दर्शन, सत्य व अहिंसा श्रीमद्भगवद्गीता, हिन्दू व जैन दर्शन से प्रभावित है। अहिंसा के पुजारी गांधी सदैव ही सभाओं में अहिंसा के संबंध में प्रचलित एक श्लोक को पढ़ा करते थे-अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:।
इतिहासकारों के अनुसार मोहनदास करमचंद गांधी अपनी सभाओं में इस श्लोक का अहिंसा परमो धर्मः वाला पहला भाग ही पढ़ते थे। विभिन्न संप्रदायों के लोगों में शांति-सद्भाव हमेशा कायम रहे इसीलिए उन्होंने अहिंसा के एक पक्ष अहिंसा परमो धर्मः को ही अपनी शिक्षा का अंग बनाया। अहिंसा की नीति के माध्यम से विश्व भर में शांति के संदेश को बढ़ावा देने में गांधी जी के योगदान को सराहने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में 15 जून 2007 को दो अक्तूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का फ़ैसला किया गया।
दरअसल मनुष्य जब अन्य प्राणियों को कष्ट देने के लिए संनद्ध होता है, तो उस वृत्ति का ही नाम हिंसा है। आसुरी अर्थात हिंसात्मक वृत्तियां व्यक्ति को विविध कष्टों से दुखित करने के साथ ही अध्यात्म- प्रसाद से भी वंचित रखती हैं। अन्याय-अनीति से स्वार्थवश किसी की हिंसा नहीं करने वाले ही धर्मात्मा,शक्तिशाली होकर निर्भयता से विजय पाते हैं। ऋग्वेद में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हे वरुण ! यदि हमने हमें प्यार करने वाले व्यक्ति के प्रति कोई अपराध किया हो, अपने मित्रों, साथियों, पड़ोसियों के प्रति कोई गलती की हो अथवा किसी अज्ञात व्यक्ति के प्रत्ति कोई अपराध किया हो, तो हमारे अपराधों को क्षमा करो। मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह एक-दूसरे की रक्षा करें।
असल में हिंसा जिसके प्रति की जाती है, उसको हिंसा से दुःख व पीड़ा होती है। यदि हम चाहते हैं कि कोई हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार न करे, तो हमें भी दूसरों के प्रति हिंसा का त्याग करना होगा। दूसरों के प्रति अपने मन व हृदय में प्रेम व स्नेह का भाव उत्पन्न करने से ही हिंसा दूर हो सकती है। इससे हमारे मन व हृदय में शान्ति उत्पन्न होगी। उपाय यह है कि हम स्वयं को अहिंसक स्वभाव व भावना वाला बनाएं। लेकिन अहिंसा का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि कोई हमारे प्रति हिंसा का व्यवहार करे, और हम मौन होकर उसे सहन करें। श्रीमद्भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने भी दुष्टता करने वाले मनुष्य की दुष्टता को कुचल देने के लिए कहा है – विनाशाय च दुष्टकृताम्।
ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि- हे सविता देव ! हमारे संपूर्ण दुर्गुण दुर्व्यसन और दुखों को दूर कर दीजिए- ओम विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। द्वेष की भावना ही सब प्रकार की हिंसा की मूल है, इनके विनष्ट हुए बिना व्यक्ति आगे बढ़ नहीं सकता। हिंसा से पृथक रहने की अवस्था हिंसा के दुष्परिणामों को भली-भांति जान लेने पर ही आती है।