ज्ञाानेन्द्र रावत
पिछले दिनों सिक्किम में आई बाढ़ के चलते सरकारी आंकड़ों के अनुसार, तकरीबन 41,870 लोग प्रभावित हुए हैं। अकेले चार जिलों में पच्चीस हजार लोग प्रभावित हुए। चुंगथान बांध टूट गया, तीस्ता नदी के किनारे रहने-बसने वाले 20-22 हजार लोग बेघर हो गए। करीब 6,675 लोग राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं, 1,320 से ज्यादा मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं। मंगन, पाक्योंग, नामची और गंगटोक जिलों के बाजार, पुल, बांध, सड़कें सभी टूट गये हैं, अकेले जलपायीगुड़ी जिले में 11 हजार लोगों को सुरक्षित निकालने में प्रशासन कामयाब रहा है।
राजमार्ग संख्या-10 और सड़कें टूट जाने व संचार व्यवस्था ठप होने से जहां देश के शेष हिस्से से संपर्क टूट गया है, वहीं राहत व बचाव दलों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। लगभग 3000 पर्यटक फंसे हैं। तीस्ता नदी किनारे फार्मास्युटिकल कंपनियों, जल विद्युत परियोजनाओं और बरदांग में स्थित सेना की स्थायी छावनी को काफी नुकसान हुआ है। छावनी के 41 वाहन मलबे में फंसे हुए हैं, अभी तक 62 लोगों के जीवित मिलने और 42 शव मिलने की सूचना है। सेना के 13 जवानों सहित 142 लोग लापता हैं।
राज्य के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग की मानें तो घटिया सामग्री से बांध निर्माण की वजह से सिक्किम में बादल फटने के बाद स्थिति खतरनाक हुई। वहीं जल प्रलय से सिक्किम की 1200 व 550 मेगावाट वाली दो जल विद्युत परियोजनाएं बर्बाद हो गई हैं।
दरअसल, इस तबाही का मुख्य कारण ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड यानी जीएलओएफ है। ल्होनक झील में उफान आने और तीस्ता नदी का जलस्तर अचानक बढ़ जाने, चुंगथांग बांध टूटने और सिक्किम के चुंगथाम इलाके में स्थित ल्होनक झील के ऊपर बादल का फटना माना जा रहा है। यह झील ल्होनक ग्लेशियर पर बनी है। यह आपदा प्राकृतिक जरूर है लेकिन इसे पूरी तरह अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। केन्द्रीय जल आयोग के अधिकारी नेपाल और भारत में आये भूकंप को सिक्किम में आई बाढ़ का एक कारण भले करार दें लेकिन इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि 168 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली यह झील पहले से ही असुरक्षित घोषित थी।
जीएलओएफ तब होता है जब हिमनद झीलों का जलस्तर काफी ज्यादा बढ़ जाता है। इससे बड़ी मात्रा में पानी पास की नदियों और धाराओं में बहने लगता है जिसके कारण अचानक बाढ़ आ जाती है जो तबाही का कारण बनती है। यहां इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि वैश्विक तापमान वृद्धि के चलते तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर का पानी इसी झील में जमा हो रहा था और उसी के कारण इस झील का क्षेत्रफल लगातार बढ़ता जा रहा था।
दरअसल, दुनिया में नित नये-नये शोध इस बात के प्रमाण हैं कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रोक दिया जाये, इसके बावजूद दुनिया में करीब दो लाख पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से आधे से ज्यादा और उनके द्रव्यमान का एक-चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक पिघल जायेगा।
यह पेरिस समझौते के लक्ष्य से भी परे है। असलियत यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर पिघलकर टुकड़ों में बंटते चले गये। कारण पर्वतीय इलाकों में तापमान में बढ़ोतरी की दर दोगुनी रही है, जिससे यह बदलाव आया है। चिंता की बात यह कि ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से भारत समेत समूची दुनिया के करीब डेढ़ करोड़ लोगों के जीवन पर खतरा मंडराने लगा है।
गौरतलब है जैसे-जैसे जलवायु गर्म होती है, उसी तेजी से ग्लेशियर पिघलते हैं और पिघला हुआ पानी ग्लेशियर के आगे जमा हो जाता है जो झील का रूप अख्तियार कर लेता है। झीलों के अचानक फट पड़ने की स्थिति में इनका पानी तेजी से बहता है और 120 किलोमीटर से भी अधिक इलाके को अपनी जद में ले लेता है। इससे आई बाढ़ काफी विनाशकारी होती है जो जन-धन, कृषि भूमि, बुनियादी ढांचे सहित सभी कुछ तबाह कर देती है। गौरतलब है कि 1990 के बाद से जलवायु परिवर्तन के चलते ऐसी झीलों की तादाद में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। फरवरी, 2021 में उत्तराखंड के चमोली जिले में आई बाढ़ ऐसी ही आपदा का परिणाम थी।
वैज्ञानिकों की सोच से भी ज्यादा तेजी से ग्लेशियर खत्म हो रहे हैं। कानेंगी मेलन यूनिवर्सिटी और फेयरबैंक्स यूनिवर्सिटी के शोध ने खुलासा किया है कि यदि जलवायु परिवर्तन की दर इसी तरह बरकरार रही तो इस सदी के आखिर तक दुनिया के दो-तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। यदि दुनिया आने वाले दिनों में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब रहती है, उस हालत में भी आधे ग्लेशियर गायब हो जायेंगे। हम बहुत सारे ग्लेशियर खोने जा रहे हैं। लेकिन हमारे पास क्षमता है कि हम ग्लेशियर के पिघलने की दर को सीमित कर उसके अंतर को कम कर सकते हैं।
दरअसल, जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का बहुत बड़ा कारण है। जगजाहिर है कि ग्लेशियरों के पिघलने से ऊंची पहाड़ियों में तेजी से कृत्रिम झीलें बनेंगी और इन झीलों के टूटने से बाढ़ तथा ढलान पर बनी बस्तियों तथा लोगों पर खतरा बढ़ जायेगा। इसलिए जहां बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन से प्राथमिकता के आधार पर लड़ना जरूरी है, वहीं ग्लेशियर से बनी झीलों से उपजे संकट का समाधान भी बेहद जरूरी है।