दीपिका अरोड़ा
आखिरकार लोकसभा-राज्यसभा में पारित हुआ ‘नारी शक्ति वंदन बिल’, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंज़ूरी मिलने के उपरांत कानून बन चुका है। निश्चय ही प्रेरक पहल के तौर पर यह एक सराहनीय विषय है, वर्षों से उठती चली आई मांग अंतत: किसी निर्णायक मोड़ तक तो पहुंची! विश्लेषण करें तो महिलाओं के नेतृत्व में होने वाला समावेशी विकास दूरगामी प्रभावों के साथ क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए एक उत्प्रेरक है जो युग-युगांतर प्रतिध्वनित होता है। नारी नेतृत्व क्षमता में अपार मानसिक सुदृढ़ता के साथ कोमल भावनाएं समाविष्ट होने के कारण न्यायिक प्रतिबद्धता को अपना यथेष्ट स्थान मिलने की संभावनाएं भी प्रबल रहती हैं।
स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी समता के नाम पर, देश की आधी आबादी को 50 फीसदी की अपेक्षा सिर्फ़ 33 फीसदी अधिकार मिलना ख़लता तो अवश्य है किंतु महिला प्रतिनिधित्व बढ़कर एक-तिहाई होने से वर्तमान समाज में फैली नारी उत्पीड़न समस्याओंं में विशेष सुधार होने की आस जगना भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं।
ख़ैर, बदलते समय की इस चिर-प्रतीक्षित आहट से समाज में नारी की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर होने की उम्मीद भले प्रबल हुई हो किंतु यदि नर-नारी समानता को वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट-2023 के अनुमानित दृष्टिकोण से देखा जाए तो भारत की महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष आने में अभी 149 वर्ष लगेंगे। रिपोर्ट के मुताबिक़, वैश्विक स्तर पर भी लैंगिक भेदभाव के समापन में अभी 131 साल बाकी हैं। वर्ष 2006 से 2023 के दौरान लैंगिक समानता में केवल चार फीसदी सुधार होने का अनुमान है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर समानता सिर्फ़ 68 फीसदी तक पहुंच बना पाई, जबकि भारत में इसकी मौजूदा स्थिति 64 फीसदी है। धीमी गति के चलते वर्ष 2154 से पूर्व इसका 100 फीसदी तक पहुंच पाना मुश्किल है, जबकि भारत को इस संदर्भ में 18 वर्ष अतिरिक्त लगेंगे।
वैतनिक समानता के अधिकार को झुठलाती रिपोर्ट बताती है कि वर्क फ़ोर्स में महिलाओं की 37 फीसदी प्रतिभागिता सहित हम 139वें स्थान पर हैं। समान कार्य के लिए महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन देने की बात करें तो इस संबंध में वैश्विक स्तर पर हमारा देश अभी 116वें पायदान पर है। महिला-पुरुष की अनुमानित आय में मौजूद अंतर देखा जाए तो हम 141वें स्थान पर आते हैं। जन्म के समय लिंगानुपात में हम 140वें तथा स्वस्थ जीवन जीने में 137वें रैंक पर हैं। रिपोर्ट ख़ुलासा करती है, महिलाओं को पुरुषों के मुक़ाबले आर्थिक समानता पाने में 169 वर्ष लग सकते हैं तथा राजनीतिक समानता प्राप्ति हेतु 162 वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।
संसद में महिला प्रतिभागिता की बात करें तो हमारा देश 117वें स्थान पर आता है। महिला मंत्रियों के अनुपात में हम 146 देशों की सूची में 132वें स्थान पर हैं। देश की केवल 17 फीसदी कंपनियों के बोर्ड में महिलाएं हैं। मात्र 2 फीसदी कंपनियों में ही महिला-स्वामित्व पाया गया।
नारी साक्षरता दर तथा प्राथमिक शिक्षा के विषय में भले ही हम 25 अन्य देशों सहित संयुक्त रूप से पहले नंबर पर हों किंतु कदाचित बात रोज़गार अवसरों की हो तो देश का एक बड़ा प्रतिशत इससे वंचित है। किसी भी रूप में नारी शोषण-उत्पीड़न तथा उसके विरुद्ध आपराधिक एवं दुष्कर्म मामलों का प्रतिपल संज्ञान लिया जाए तो हृदय दहल जाता है।
निश्चय ही नारी प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी से स्थिति सुधरने की कामना कर सकते हैं किंतु चाहकर भी उन तथ्यों को नहीं नकार सकते जो प्रथम दृष्टया ही नारी प्रतिनिधित्व पर पुरुषत्व हावी होने का अंदेशा दे जाते हैं। कतिपय अपवाद छोड़ दें तो बहुधा देखने में आया कि प्रतिनिधित्व की कमान नारी के हाथ में होने के बावजूद कमांड किसी पारिवारिक अन्य पुरुष की ही चलती है। विचारणीय है, जब नारी की कार्यक्षमता व सोच पर दबाव बनाकर उसे महज़ एक कठपुतली की भांति प्रयुक्त किया जाए तो स्थिति में सुधार आने की गुंजाइश ही कहां रह जाती है? नारी की प्रतिभा का सही उपयोग तो तभी हो सकता है, जब उसे साधिकार स्व-निर्णय लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाए।
नारी के प्रति सामाजिक सोच का दायरा बढ़ाए बिना समानता की कल्पना करना मात्र एक मृगमरीचिका है। दो आवश्यक शर्तों के आवरण में प्रदत्त ‘नारी शक्ति वंदन कानून’ के लागू होने की राह भी भला कहां इतनी सरल है? दीर्घकाल से लंबित जनगणना पूर्ण होने एवं संविधान के अनुच्छेद 82 के तहत परिसीमन; दोनों ही मुद्दों को लेकर कई विवाद हैं। इंडिया गठबंधन द्वारा जातिगत गणना की मांग के रूप में एक अन्य अवरोधक उठ खड़ा हुआ है। नारी सशक्तीकरण के अंतर्गत शृंखलाबद्ध प्रयास से यह कानून देश में कब और कितना सार्थक परिवर्तन लाएगा एवं कब तक आधी आबादी की समता को पूर्णता तक पहुंचाएगा, यह तय होने में तो संभवत: काफी समय लग सकता है। फ़िलहाल तो यही देखना है, सशर्त लागू होने की मांग उठाता यह आरक्षण विधेयक नारी प्रतिनिधित्व को समता के अंतिम सोपान तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होगा अथवा अन्य कई कानूनों की भांति मात्र एक चुनावी जुमला भर बनकर रह जाएगा!