इन दिनों मुझे अत्यंत व्याकुलता का सामना कर पड़ रहा है। क्या हम छात्रों द्वारा आत्महत्याएं को एक आम बात समझकर रफा-दफा कर रहे हैं या फिर यह मानने लगे कि शिक्षा प्राप्ति एवं इससे संलग्न सफलता की दौड़ में यह तो रहता है– कुछ कमजोर और भावनात्मक रूप से नाज़ुक युवा हताशा में अपनी जान दे देते हैं? विश्वास कीजिए, मैं अक्सर मध्य-वर्गीय अभिभावकों और यहां तक कि अध्यापकों से इस विषय में बात करने का प्रयास करता हूं कि इस किस्म की पढ़ाई, शिक्षा की असल आत्मा को मार रही है और इससे सामाजिक विक्षिप्तता का सामान्यीकरण हो रहा है। मैं उन्हें राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के जरिये समझाने की कोशिश करता हूं कि वर्ष 2021 में 13089 छात्रों ने खुदकशी की (औसतन 35 से अधिक प्रतिदिन)। फिर भी वे मानने को राजी नहीं– यह रवैया वर्तमान में पर्यावरण पर बन आए संकट की अलफ सच्चाई से मुंह मोड़ने जैसा है।
आईआईटी संस्थानों के दिए आकंड़े के मुताबिक 2018-23 के बीच 33 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की है और एनआईटी और आईआईएम में यह गिनती 61 है। इतना होने पर भी हमने इस विषय पर चुप्पी साधने की ठान रखी है या इसको एक अन्य भ्रंश की तरह लेते हैं। माल बनाने वाली फैक्टरियों सरीखे कोचिंग केंद्रों के लिए कुख्यात राजस्थान का शहर, कोटा जहां ‘सफलता का स्वप्न’ बेचा जाता है, उससे हमारा नाता दिनों-दिन बढ़ रहा है, भले ही इस साल जनवरी से अगस्त माह के बीच भी, हर महीने खुदकुशी का औसत तीन रहा है।
बेशक, मुझे जीवन को नकारात्मक बनाने वाली इस अंधी दौड़ के पीछे ढांचागत और सामाजिक कारणों का बखूबी भान है– यानी, अत्यधिक जनसंख्या वाले मुल्क में नौकरियों की भारी कमी, नौकरी मिलने की संभावना में कला संकाय से हुई पढ़ाई को दोयम मानना और इसके नतीजे में इंजीनियरिंग, मेडिकल साइंस, बिजनेस मैनेजमेंट और अन्य तकनीकी कोर्सों के लिए बनी आसक्ति। संस्कृति और शिक्षा पर नव-उदारवाद की चोट से जीवन-आकांक्षा का बाजारीकरण और सबसे ऊपर, अत्यंत-प्रतिस्पर्धात्मकता या सामाजिक डार्विनवाद को स्वीकार्यता अर्थात् अन्यायी सामाजिक व्यवस्था में श्रेष्ठता या ‘श्रेष्ठम ही जीने लायक’ के सिद्धांत को मान्यता देकर जीवन का अंग बना डालना। इस पर चुप्पी साधकर हम व्यवस्था का ऐसा सामान्यीकरण होना गवारा नहीं कर सकते।
बतौर एक अध्यापक, मैं महसूस करता हूं कि हमें इस ढंग की शिक्षा व्यवस्था का आलोचक और नई संभावनाओं को तलाशने वाला बनना चाहिए। शिक्षा बचाओ आंदोलन किए बिना जड़ पकड़ चुकी व्यवस्था को बदला नहीं जा सकता। बेशक, हर छात्र आत्महत्या से नहीं मरा होगा, लेकिन फिर यह भी उतना ही सच है कि लगभग प्रत्येक युवा विद्यार्थी, जो इस शिक्षा प्रणाली का हिस्सा है, वह ऐसे माहौल में बड़ा हो रहा है जो मानसिक तनावों, अवसाद और विफलता के डर में बढ़ोतरी के लिए मुफीद है। वर्तमान व्यवस्था वह है, जिसे अर्थपूर्ण जीवन, प्रेम और सहयोग, नैतिकता, जीवनकाल के उतार-चढ़ावों का निश्चयपूर्ण सामना करने और शांत बने रहने की काबिलियत को सिखाने में जरा रुचि नहीं रखनी है। न ही ऐसी मानसिकता बनाने में, जो बच्चे को जीवन की सरलता में असली खजाना खोजने लायक बनाए, मसलन, नन्हे से पीले फूल पर अठखेलियां करती तितली के नज़ारे का आनन्द लेना, बुजुर्ग दादी मां के लिए चाय बनाना, खुशियों के पल उनसे साझा करना या फिर सर्दी की रात में रजाई में बैठकर कोई नॉवेल पढ़ना। इसके बरक्स मौजूदा शिक्षा प्रणाली तमाम पवित्र आकांक्षाओं और सपनों को मार रही है, यह युवा मानस को वह घोड़ा बना रही है, जो निरर्थक दौड़ में भागता रहे।
स्कूल से लेकर उद्योग सरीखे बने कोचिंग केंद्रों तक, हमने अपनी शिक्षा का मतलब मानकीकृत परीक्षाओं में उत्तीर्ण करने वाली रणनीति बना दिया है। महान किताबें पढ़ने का आनंद, नूतन विचारों की खोज, विचार-विमर्श, विज्ञान-प्रयोगों से सीखना, साहित्य और कला आधारित पढ़ाई की जगह प्रवेश और मुख्य परीक्षाओं और इनकी तैयारी को अधिक महत्व देने से असली सिखलाई प्रभावित हुई है। आज अगर कुछ महत्वपूर्ण है तो दक्षता व सरपट गति, ताकि ओएमआर शीट पर सही उत्तर के खाने पर तेजी से निशान लगाने की काबिलियत बने।
कोई हैरानी नहीं कि एसीसीक्यू-केंद्रित परीक्षाएं उत्तीर्ण करना सिखाने वाली पुस्तकें युवा शिक्षार्थी की सोच में समाई हुई है। जी हां, ऐसा मानस सौंदर्य-बोध, सृजनशीलता और उत्कंठा से विहीन हो जाता है। जिस किस्म की बुद्धिमत्ता को भाव दिया जा रहा है, वह पूर्णतया मशीनी है, जिसमें कोई सृजनशील कल्पना या दर्शन के प्रति जिज्ञासा नहीं है। आप कोचिंग केंद्र के किसी रणनीतिकार से यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह बच्चे को सूर्यास्त का नज़ारा, कविता पढ़ने का आनंद या प्रेरक फिल्म की सराहना करना सिखाएगा। वह प्रशिक्षक तो केवल आपके बच्चे को और तेज दौड़ना, दूसरों को पछाड़ना, भौतिकी या गणित को केवल प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने का औजार बनाना, आईआईटी-जेईई और नीट जैसी परीक्षा में प्राप्त स्थान से अपनी काबिलियत आंकने वाली मानसिकता ही बना सकता है। इस किस्म की शिक्षा पद्धति शिक्षार्थी को केवल सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक रूप से गरीब बनाती है। यह उसके चित्त को जीवन के उतार-चढ़ावों या अस्तित्व संबंधी गहरी खोज पर मनन के लिए तैयार नहीं करती।
इसी तरह की मशीनी शिक्षा कार्ल मार्क्स की उस परिभाषा को वैध बनाती है, जिसे वे ‘वस्तु आसक्ति’ कहा करते थे। जी हां, वह यह मानकर चलती है कि हमारे बच्चों को इस तरह तैयार किया जाए मानो वे कारखाने से निकली एक वस्तु या दाम की चिंदी लगी चीज़ हो। उच्च शिक्षा में सम्मान का सूचक बना दिए गए आईआईटी और आईआईएम संस्थानों में दाखिला पाना– जो मध्यवर्गीय अभिभावकों के लिए अपने बच्चों के भविष्य का अंतिम मोक्ष-धाम है- इसने युवा मस्तिष्कों को बढ़िया नौकरी और मोटी पगार की मिथकों से सम्मोहित कर रखा है।
यदि हमारे बच्चे अपने आप में एक विलक्षण और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व बनने की बजाय महज एक निवेश या बिकने की वस्तु बनकर रह जाएं, तो हम एक विक्षिप्त, व्याकुलता-ग्रसित और अत्यंत-तनावयुक्त पीढ़ी बनाने में लगे हैं। भले ही मौजूदा व्यवस्था से आगे चलकर ‘प्रेरणादायक वक्ताओं’ और ‘स्व-सहायता’ पुस्तकों का एक अन्य बाजार बन जाए, लेकिन इससे आत्महत्याओं की बढ़ती प्रवृति पर रोक लगाना असंभव है।
बतौर अध्यापक-शिक्षाविद-चिंतातुर नागरिक, हमें जागना होगा, आवाज़ उठानी होगी, जीवन-लील शिक्षा को खारिज करना होगा, नव-जागृति निर्माण और बच्चों को जीवन का अलग नज़रिया देना होगा– जो जीवन को सुदृढ़ और सौहार्द से परिपूर्ण करे।
लेखक समाजशास्त्री हैं।