भारत भर में चैत्र और आश्विन नवरात्रे शक्ति की आराधना के लिए हैं- वे चाहे देवी दुर्गा स्वरूप में हों, भगवान राम हों या भगवान शिव। हर प्रान्त में इनकी विविधताएं हैं। इन्हीं दिनों में गुजरात का गरबा नृत्य भारत की अध्यात्म, गीत, नृत्य व नाटक की समृद्ध कला का निरूपण करता है। जैसे गुजरात राज्य में आश्विन मास के नवरात्रे माता अंबा की आराधना का पर्व है। नौ दिनों व्रत-उपवास या निराहार रहकर राम के चरित्र का गुणगान, उपासना और गरबे के रूप में देवी दुर्गा व राधा कृष्ण की उपासना डांडिया रास के रूप में की जाती है। प्रसिद्ध लेखक अविनाश व्यास के अनुसार, प्रकृति से उपजे संगीत को मानव ने कंठ-स्वर दिया तब गीत का जन्म हुआ और स्वतः ही स्वर लयबद्ध हुआ। जब-जब ताल साथ हुई, किसी ने तंतु से सुर दिया तो किसी ने चर्मवाद्य से, और शनै-शनै लोकसंगीत का जन्म हुआ। बता दें कि नवरात्र पर्व का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। हिंदू पंचांग के अनुसार, वर्ष में चार नवरात्रे आते हैं- दो दैव नवरात्रे चैत्र और आश्विन मास में आते हैं वहीं दो गुप्त नवरात्रे भी होते हैं।
गुजरात का अलौकिक गरबा
नवरात्रे के पवित्र नौ दिनों में हम समस्त देवगणों के शक्ति पुंज में से उत्पन्न हुई, चंड-मुंड का चुटकी में संहार करने वाली, महिषासुर का मर्दन करने वाली देवी मां को पूजते हैं जो देवों के हृदय में सम्यक् रूप से वंदित हैं। रौद्र भी हैं, रम्य रूप में भी पूजित हैं। असुरों के विनाश हेतु काली स्वरूपा हैं। जन-जन का विश्वास है कि भक्तों के स्नेह से पूजित त्रिपुर सुन्दरी रूप में आरासुर चौक में भक्तों के आह्वान को मान्यता देते हुये अपने अदृश्य रूप में भक्तों के बीच गरबा खेलने पधारती हैं। वास्तव में नवरात्रि के पावन दिवसों में जब महिलाएं पारम्परिक परिधान में सोलह शृंगार कर नृत्य करती हैं तो उपके पगथाप से उड़ती धूल गगन मंडल में छा जाती है और उनका वह रूप साक्षात रम्य-सौम्य अंबा समान प्रतीत होता है। गरबा खेलती गुजराती महिलाएं ढोली से प्रार्थना करती हैं कि ‘ढोलीडा ढोल धीमो धीमो बगाड मां, रठियाणी रातडी नो जो जो रंग जाय ना’ अर्थात ढोली तुम ढोल को धीरे-धीरे बजाना, इस मनोहर रात का रंग कहीं पीका न हो जाए।
अध्यात्म, संगीत व नृत्य का मेल
आसो मास के नवरात्रे के गरबे जीवन की नीरसता को दूर कर उल्लास की ओर प्रेरित करते हैं। दीपक की ज्योति अंधकार और निराशा को दूर भगाती है। मां अंबा के भक्त गुजरातियों के झूमने-गाने का यह उत्सव अपनी रंग-बिरंगी छटा, मौज-मस्ती व गीत-नृत्य के कारण विश्व भर को आकर्षित करता है। नवरात्रे गुजरात का ऐसा पर्व है जिसका उत्सव गरबा यहां के प्रत्येक जिले में पृथक-पृथक रूप से मनाया जाता है। गरबा शब्द संस्कृत के गर्भदीप शब्द का अपभ्रंश है। हालांकि गरबा गुजरात की लोकप्रिय नृत्य शैली है लेकिन गरबा मात्र नृत्य का नाम नहीं है गरबा स्थापित किया जाता है, गरबा नृत्य किया जाता है और गरबा गाया भी जाता है अर्थात अध्यात्म, संगीत व नृत्य का समन्वय है गरबा।
27 छिद्रों वाला दीप घट
गरबे का वास्तविक स्वरूप सछिद्र दीप घट है जिसे गर्भदीप कहा गया है। जो नवरात्रि के प्रथम दिवस स्थापित किया जाता है। यह मिट्टी, पीतल या किसी भी धातु का हो सकता है। जिसके भीतर (चौमुखी) चार ज्योतियां प्रज्जवलित की जाती हैं। इस घट में विधिवत 27 छिद्र किए होते हैं जिन्हें 27 नक्षत्र माना गया है। यही सछिद्र गर्भदीप गरबा कहलाता है। इसी के साथ तांबे, पीतल व कांसे के एक घट में पांच आम्रपत्र जल के साथ श्रीफल (एकाक्षी नारियल को सर्वश्रेष्ठ माना गया है) रखकर उसे सुन्दर चुनरी से सजा कर गेहूं की ढेरी पर इसे स्थापित किया जाता है। स्थापना के समय ही मिट्टी के पात्र में पंच धान को जल सहित मिट्टी में उगाया जाता है। जिसे माताजी का ज्वारा उगाना कहते हैं। प्रतिदिन इनका विकसित होना देवी की प्रसन्नता व समृद्धि के रूप में देखा जाता है जिसे गरबा स्थापना कहते हैं।
अद्भुत आध्यात्मिक भाव
गुजरात की महिलायें उपवास अथवा निराहार रहकर नौ दिन तक देवी की कठोर उपासना करती हैं। तब घर में अखंड दीप रखा जाता है। दीप के छिद्रों से जो प्रकाश झरता है वह विषाणुओं का नाश करता है। उससे अद्भुत आध्यात्मिक भाव उत्पन्न होते हैं जो सकारात्मकता की ओर ले जाते हैं। घर के बाहर हो तो इस स्थापित घट के चारों ओर नृत्य किया जाता है। माता शक्ति की भक्ति से भरे गीतों गरबों का सुर-ताल के साथ गायन किया जाता है। दरअसल दीपक के चारों ओर घूमती महिलाएं उस शक्ति के चारों ओर घूम रही होती हैं जिस शक्ति की आराधना ब्रह्मा, विष्णु व महेश स्वयं करते हैं। यह दिव्य भाव संकटों के कट जाने का विश्वास दिलाता प्रतीत होता है -जैसे साक्षात शक्ति घूम रही है, दिन-रात, जन्म-मृत्यु व सुख-दुःख घूम रहे हैं। यही तो हमारी जीवन शक्ति संचार है।
राग आधारित बोल व ताल
गरबे के बोल व ताल राग पर आधारित होते हैं। यहां तक कि प्रतिदिन गाई जाने वाली अंबे मां की प्रसिद्ध आरती ‘जय अंबे गोरी, मैया जय श्यामा गोरी’ भी राग खमास पर आधारित है। आरती के दौरान जो तीन ताली बजा कर अंबा को प्रसन्न करते हैं वो राग लालित्य है। जो कि मध्यकालीन गुजरात के कवि वल्लभ भट्ट द्वारा रचित है। कुल 118 कड़ियों का प्रसिद्ध आनन्द का गरबा भी इन्हीं की रचना है जो घर-घर में गाया जाता है। यह गायन एकल अथवा समूह में हो सकता है। गरबे के शब्दों में गुजरात में स्थित माताजी के स्थानक जैसे गब्बर, चाचर चौक, आरासुर, शंखलपुर आदि के विषय में स्तुति होती है। इन स्थानों व मां अंबे की स्तुति के लिए प्राचीन कवियों ने सुन्दर गरबों की रचना की है।
वाद्य यंत्रों के साथ पोशाक भी खास
नृत्य करते समय ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा, मंजीरा आदि का प्रयोग किया जाता है। गायन के साथ वादन ढोलक, तबला बांसुरी इसे और कर्णप्रिय बनाते हैं। दो ताली का गरबा हींच कहलाता है व तीन ताली के गरबा को हमची अथवा ऊलणियों कहा जाता है। गरबा करते समय पहने जाने वाले वस्त्र विशेष तौर पर गुजराती कढ़ाई करके बनाए जाते हैं जैसे कच्छी भरत, आभला भरत, रबारी भरत, रेशमी भरत आदि। मोतियों, कोड़ियों, कांच, सीपी और काले धागे व ऊन से बने आभूषणों ने विश्व भर में अपनी पहचान बना ली है। गरबा नृत्य के समय परम्परागत पोशाक साड़ी, चणिया चोणी (लहंगा), ओढ़नी, केडियु, धोती कुर्ता, जाकेट, डोडयो) पहन कर स्त्री-पुरुष व बच्चे सभी भाग लेते हैं। गरबे के गीतों को समय के अनुसार प्राचीन गरबा व अर्वाचीन गरबा में विभाजित किया गया है।
सामाजिक मर्यादाएं
गरबा सामाजिक उत्सव होने के साथ-साथ पारिवारिक उत्सव भी है। घर के बड़े-बुजुर्ग भी वहां उपस्थित होते हैं। सौराष्ट्र में इस अवसर पर घर की कुल वधुएं मुंह पर घूंघट करते हुए भी इसका आनंद लेती नजर आती हैं। जामनगर के नागर ब्राह्मण समाज द्वारा नवरात्र में ईश्वर विवाह करने की परम्परा है जिसे शिव-पार्वती विवाह कहते हैं। इस अवसर पर घर-घर ‘बैठा गरबा’ का आयोजन होता है जिसमें महिलाएं एक स्थान पर गरबा स्थापना करके बैठ कर श्रद्धा से गरबा गाती हुई देवी की आराधना करती हैं।
सभी शुभ अवसरों पर गरबा
गुजरात का यह गरबा गुजराती समाज में नवरात्रों के अलावा भी हर मांगलिक अवसर पर उसी भव्यता से किया जाता है। संतान के जन्म व विवाह आदि के अवसर पर माडवणी में गरबा स्थापित किया जाता है। माडवणी माता के मंदिर का प्रतीक है। इसी माडवणी को सिर पर रखकर घर की महिलाएं नृत्य करती हैं। माडवणी अर्थात एक चौकी पर तिकोने आकार से गृह रूप देकर उसके अंदर गरबा स्थापित करके शृंगार करना। माता के स्थानक की मान्यता के अनुसार, माडवणी तैयार की जाती है। गरबा गाते हुए सिर पर रखकर नृत्य करना। गरबे का यह भव्य स्वरूप जो आज नजर आता है वैसा पहले नहीं था। इसके स्थान पर शैरी गरबा अर्थात मोहल्ला गरबा किया जाता था। गांव-मोहल्ले के बड़े चौक में आंगन को गोबर से लीप कर खड़िया व गेरू से चित्रकारी करके सजाया जाता। चारों तरफ आशोपालव के तोरण बांध कर वातावरण को आध्यात्मिक रूप दिया जाता। मात्र ढोलक, मंजीरे व खड़ताल की थाप और तालियों की ताल पर महिलाएं-पुरुष, बच्चे सभी मिलकर एक साथ ताल-लय से गाते हुए नृत्य करते। एक महिला बुलंद आवाज में गाती और बाकी उसके पीछे-पीछे स्वर में साथ देती। भक्ति से सराबोर यह उजियाली रात ऐसी प्रतीत होती जैसे देवता स्वयं उनके बीच उपस्थित हैं। समय के साथ इसके स्वरूप में परिवर्तन आता गया। दरअसल राग, स्वर, ताल लय, नृत्य व पोशाक का सुन्दर समन्वय गुजरातियों का यह गरबा गुजरात प्रदेश का गहना है।
गरबा आया कहां से?
महाभारत काल की एक कथा के मुताबिक, बाणासुर नामक असुर की एक रूपवान तेजस्वी कन्या उषा थी जिसका विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न के साथ हुआ था। माना जाता है कि उषा ने अपने गर्भकाल में माता पार्वती से लास्य नृत्य सीखा था। बता दें कि नृत्य की एक शैली रौद्र है व एक लास्य है। उषा जब प्रद्युम्न से विवाह करके द्वारिका आयी। तब किसी उत्सव के अवसर पर उसने यह लास्य शैली का नृत्य किया जो उसने अपनी सखियों को भी सिखाया था। यही गरबा नृत्य है जो आगे चलकर समग्र गुजरात में फैला। समय पा कर गुजरात की महिलाओं ने इस सौन्दर्य, सुर, ताल से भरपूर इस नृत्य शैली को पूरे देश में प्रसारित कर दिया। आगे चलकर इसी गरबा नृत्य को विश्व भर में सराहा, स्वीकारा गया। जैसे भगवान कृष्ण ने बांसुरी की धुन से सभी को मोहित किया उसी तरह से गुजरात के इस गरबे ने विश्वभर के युवक-युवतियों को इस नृत्य के प्रति घेला (दिवाना) बना दिया।
गुजरात के गरबे का बदलता स्वरूप
आज गरबा घर व गांव से निकल पर हॉल व पार्टी तक पहुंच गया है। एकल व समूह गायन अथवा वृंद का स्थान म्युजिकल पार्टियों (आर्केस्ट्रा) ने ले लिया है। ढोलक-हारमोनियम के स्थान पर डीजे आ गये हैं। कानफोड़ू संगीत। दीपमालाओं के जगमग प्रकाश का स्थान तीखी डिजिटल लाइट्स ने ले लिया है। सजावट के प्रकार बदले। विज्ञापनों ने गरबों का व्यवसायीकरण कर दिया है। गरबे अब मां दुर्गा की आराधना व श्रद्धा-भक्ति के स्थान पर मस्ती में झूमती-गाती युवा पीढ़ी के लिए रंगोत्सव बनकर रह गया है। अचरज भरी व अच्छी बात यह कि हमारे विदेश में बसे भाई-बहन अभी भी इसे श्रद्धा से करते हैं। संभवतः इसका कारण यह हो कि जब वे इस देश से गए थे तब तक गरबे का वास्तविक स्वरूप उनके मन में बसा हो। अब इस युवा गरबा उत्सव का पहनावा बदला, स्टैप्स बदले। अब वर्तुलाकार घूमना जरूरी नहीं क्योंकि कहीं कोई गरबा स्थापित ही नहीं, ताली बजाना भी आवश्यक नहीं। गरबे में माता जी की आराधना से सराबोर मीठे बोलों ने अब अपने में पनघट, मेले, नदी तट, शृंगार व विरह जैसे विषय को समाहित कर लिया है।
पर यह भी सत्य है कि आधुनिक गरबों ने पूरे विश्व के युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। अब हर देश में नवरात्रों के गरबे कुछ दिनों के लिए अवश्य देखे जाते हैं, जिसमें भारतीयों के साथ विदेशी भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। वहीं गरबे में बदलाव के मौजूदा दौर में जामनगर के नागर जाति के लोगों की पहल सराहनीय है। नरसिंह मैहता के वंशज इन लोगों का समाज आज भी पुत्रियों के विवाह पर कंकु कन्या के सिद्धान्त का पालन करता है। ये लोग बैठा गरबा की मौलिक परंपराओं को बनाये रखे हुए हैं। देवी के भक्त ये लोग गुजरात की अमूल्य परंपरा के संवाहक हैं।
सकारात्मक पहलू और भी
गरबे का स्वरूप बदल गया। टेक्नोलॉजी बदली तो शृंगार साधन आदि सभी कुछ बदला। आराधना करने वाले वैसे ही अपनी-अपनी तरह से कर ही रहे हैं। पर इस गरबे के कारण अनेक लोगों को पहचान मिल रही है, रोजगार मिल रहा है व संस्कृति का अच्छा प्रचार-प्रसार हो रहा है। विश्व गुरु का ये एक रंग-बिरंगा, हंसता-खिलखिलाता चेहरा भी विश्व के समक्ष है। खासकर कोरोना काल के बाद गरबे नये उत्साह नया जोश व उमंग लिए आये। गायकों ने बेहतर अभ्यास कर समाज को कुछ अच्छा और नवीन देने की ठानी। अब पोशाकों से बाजार भरे हैं। इस वर्ष नयी एसेसरीज़ व गहनों की भी बहुलता है। शृंगार को लेकर अब पुरुष भी सजग होने लगे हैं। नये-नये स्टेप्स के प्रयोगों में व्यस्त हैं। गरबे के अलावा बाजारों में पूजा के सामान, मंदिरों की सजावट व माता की रंग-बिरंगी गोटेदार चूनर की शोभा भी दर्शनीय है। उम्मीद है कि इस वर्ष का गरबा महोत्सव नवीन उत्साह के साथ नए कलेवर भी लिए होगा।
लेखिका साहित्यकार हैं।