ऐश्वर्य मोहन गहराना
पेशेवर जीवन में होने वाले उतार-चढ़ावों में पति-पत्नी की कमाई और रोजगार ऊपर-नीचे होते रहते हैं। अधिकतर ज्यादा कमाने वाला जाने-अनजाने निरंकुश होने का प्रयास करता है या दूसरा पक्ष स्वतः ही आत्मसमर्पण मुद्रा में रहता है।
विडंबना है कि हम विजातीय विवाह भले ही मान लें, विवर्गीय विवाह नहीं स्वीकार कर पाते। यदि वैवाहिक जीवन का एक पात्र न कमाता हो तब हम कमाऊ पात्र के वर्ग में स्वीकार कर लेते हैं। परंतु यदि दोनों कमाऊ पर अलग-अलग आय वर्ग में हों, तो समाज अपना अनावश्यक हस्तक्षेप करने से नहीं चूकता। जब एक पति नौकरी छोड़कर अपना खुद का काम जमाने की कोशिश करता है, तब पत्नी पर घर चलाने से अधिक समाज में स्थान बचाने का अधिक दबाव रहता है।
हमारे समाज में ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां माता-पिता से इतर परिवार के अन्य सदस्य प्रेमवश अपना जीवन, आर्थिक, सामाजिक और वैवाहिक स्थिति दांव पर लगा कर परिवार के अन्य सदस्य को पढ़ाई और रोजगार में मदद करते हैं। यह सदस्य भाई, बहन, पति या पत्नी कोई भी हो सकते हैं और बहुत कम मामलों में उन्हें किसी प्रतिकार की आशा होती है। यदि कोई प्रतिकार की आशा रखता है तो प्रायः वह इतना अहसान जताता रहता है कि उसका ‘कर्ज’ अहसान जता-जता कर ही वसूल (भले ही वह खुद न माने) हो जाता है।
जब भी मैं देखता हूं, उन मां-बाप का बुढ़ापा कष्ट में रहता है, जो अहसान जता-जता कर या बुढ़ापे के सहारे की आशा में बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कराते हैं। यही बात पति या पत्नी को पढ़ाने के संदर्भ में भी सही है। यह भी होता है कि इस प्रकार के अहसान करने वाले लोग, खुद अपना बौद्धिक स्तर नहीं बढ़ाते। यह समस्या आम तौर पर पुरुषों में अधिक होती है अपने बच्चों, भाई, बहन, पत्नी या प्रेमिका के बढ़ते सामाजिक व बौद्धिक स्तर के साथ तादात्म्य बनाने के अभ्यस्त नहीं होते।
स्त्री के लिए इस प्रकार के तादम्य बिठाने की सीमा यह है कि दूसरा पक्ष जड़ नहीं बल्कि गतिशीलता से स्तर बदल रहा हो या अपने स्तर पर उन्हें स्वीकार कर रहा हो।
साभार : गहराना डॉट कॉम