भारत की विविधता में एकता को देखना है, तो उसके पर्वों और त्योहारों पर नज़र डालें। नवरात्र की शुरुआत के साथ ही चौमासे का सन्नाटा टूट गया है। माहौल में हल्की सी ठंड आ गई है और उसके साथ बढ़ रही है मन की उमंग। बाजारों में रौनक वापस आ गई है। घरों में साज-सफाई शुरू हो गई है। नई खरीदारी शुरू हो गई है। वर्षा ऋतु की समाप्ति के साथ भारतीय समाज सबसे पहले अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए पितृ-पक्ष मनाता है। उसके बाद पूरे देश में त्योहारों और पर्वों का सिलसिला शुरू होता है, जो अगली वर्षा ऋतु आने के पहले तक चलता है। जनवरी-फरवरी में वसंत पंचमी, फिर होली, नव-संवत्सर, अप्रैल में वासंतिक-नवरात्र, रामनवमी, गंगा दशहरा, वर्षा-ऋतु के दौरान रक्षा-बंधन, जन्माष्टमी, शिव-पूजन, ऋषि पंचमी, हरतालिका तीज, फिर शारदीय नवरात्र, करवाचौथ, दशहरा और दीपावली।
हमारा हर दिन पर्व है। यह खास तरह की जीवन-शैली है, जो परंपरागत भारतीय-संस्कृति की देन है। जैसा उत्सव-धर्मी भारत है, वैसा शायद ही दूसरा देश होगा। इस जीवन-चक्र के साथ भारत का सांस्कृतिक-वैभव तो जुड़ा ही है, साथ ही अर्थव्यवस्था और करोड़ों लोगों की आजीविका भी इसके साथ जुड़ी है। आधुनिक जीवन और शहरीकरण के कारण इसके स्वरूप में बदलाव आया है, पर मूल-भावना अपनी जगह है। यदि आप भारत और भारतीयता की परिभाषा समझना चाहते हैं, तो इस बात को समझना होगा कि किस तरह से इन पर्वों और त्योहारों के इर्द-गिर्द हमारी राष्ट्रीय-एकता काम करती है।
अद्भुत एकता
कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक कुछ खास तिथियों पर अलग-अलग रूप में मनाए जाने वाले पर्वों के साथ एक खास तरह की अद्भुत एकता काम करती है। चाहे वह नव संवत्सर, पोइला बैसाख, पोंगल, ओणम, होली हो या दीपावली और छठ। दीपावली के दौरान पांच दिनों के पर्व मनाए जाते हैं। नवरात्र मनाने का सबका तरीका अलग-अलग है, पर भावना एक है। गुजरात में यह गरबा का पर्व है और बंगाल में दुर्गा पूजा का। उत्तर भारत में नवरात्र व्रत और रामलीलाओं का यह समय है। देवोत्थान एकादशी के साथ तमाम शुभ कार्य शुरू हो गए हैं।
दक्षिण भारत में इन दिनों घरों में बोम्मई गोलू या नवरात्र गोलू सजाए गए हैं। यह एक रोचक परंपरा है। इस परिघटना को दस्तकारी-संरक्षण, गृह-सज्जा, सांस्कृतिक एकता और सामुदायिक-सद्भाव की दृष्टि से देखें। आप पाएंगे कि ऐसी परंपराएं उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम देश के हर कोने में उपस्थित हैं। रोजगार, पढ़ाई, पर्यटन और दूसरे कारणों से देशभर में प्रवासन जबर्दस्त तरीके से बढ़ा है। प्रवासी कामगार अपने साथ अपने इलाके की संस्कृति भी लेकर चलते हैं। आपको चेन्नई, कोयंबटूर या बेंगलुरु में बिरहा और बिदेसिया गाते बिहारी मजदूर मिलेंगे और नोएडा में पोंगल और ओणम मनाते दक्षिण भारतीय।
हाल के वर्षों में बंगाल की सार्वजनीन दुर्गा पूजा उत्तर के लगभग सभी शहरों में होने लगी है। लखनऊ और गाजियाबाद जैसे शहरों में उत्तराखंड की रामलीला तो न जाने कब से हो रही है। उत्तराखंड का पारंपरिक उत्सव है-घी संक्रांति। उत्तराखण्ड में इसे घ्यू संग्यान, घिया संग्यान और ओलगिया के नाम से भी जाना जाता है। कुमाऊं के इलाके में इस दिन मक्खन अथवा घी के साथ बेड़ू रोटी (उड़द की दाल की पिट्ठी भरी रोटी) खाने का रिवाज है। उत्तराखंड के हरेला, घी संक्रांति और फूलदेई जैसे पर्वों में प्रकृति की भूमिका है।
पारंपरिक उद्यम
हमारे सभी त्योहार पारंपरिक उद्यमों से जुड़े हैं, जो कृषि-समाज की विरासत है। पारंपरिक उद्यमों को तीन या चार मोटे वर्गों में बांट सकते हैं। पहला कृषि और उससे जुड़े उद्यम। दूसरे कारीगरी और दस्तकारी, और तीसरे सेवा से जुड़े काम। खेती और उससे जुड़े कामों में पशुपालन, बागवानी और वन-संपदा के व्यावसायिक इस्तेमाल से जुड़े काम हैं। आटा चक्की, कोल्हू और परंपरागत खाद्य प्रसंस्करण इनमें शामिल है। इनके साथ बांस, रस्सी, कॉयर और जूट का काम भी जुड़ा है। हाल के वर्षों में फूलों की खेती और ऑर्गेनिक खेती महत्वपूर्ण कारोबार के रूप में विकसित हुई है। जड़ी-बूटियों की खेती भी व्यावसायिक खेती का परिष्कृत रूप है।
दस्तकारी और कारीगरी के परंपरागत शिल्प के साथ हथकरघा उद्योग जुड़ा है जो रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हुआ करता था। इसके साथ रेशम, कालीन, दरी और ऊनी शॉल का काम है। ठप्पे की छपाई, रेशमी और सूती धागों को बांधकर तरह-तरह की चीजें बनाने की पटुआ कला। जेवरात और रंगीन पत्थरों का काम, मीनाकारी, मिट्टी के बर्तन, खिलौने, ठठेरों का काम, चमड़े का काम, कारपेंटरी, परिधान निर्माण वगैरह।
विसंगतियां
अठारहवीं सदी के शायर नज़ीर अकबराबादी ने लिखा है : हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का/हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का। ये बताती हैं कि दीवाली आम त्योहार नहीं था। यह हमारे सामाजिक दर्शन से जुड़ा पर्व था। भारत का शायद यह सबसे शानदार त्योहार है, जो दरिद्रता के खिलाफ है। अंधेरे पर उजाले, दुष्चरित्रता पर सच्चरित्रता, अज्ञान पर ज्ञान की और निराशा पर आशा की जीत। यह सामाजिक नजरिया है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ ‘अंधेरे से उजाले की ओर जाओ’ यह उपनिषद की आज्ञा है। यह एक पर्व नहीं है। कई पर्वों का समुच्चय है। पर क्या हमारी दिवाली वही है, जो इसका विचार और दर्शन है? आसपास देखें तो आप पाएंगे कि आज सबसे गहरा अंधेरा और सबसे ज्यादा अंधेर है। समाज में अविवेक, अज्ञान का महासागर आज पछाड़ें मार रहा है।
हमारे सारे त्योहार फसल, मौसम और खेतिहर समाज के साथ जुड़े हैं। इन तीनों मामलों में बदलाव आ रहा है। धीरे-धीरे हमारा समाज खेतिहर समाज से बदल कर औद्योगिक समाज में तब्दील हो रहा है। बदलाव अभी पूरा नहीं है। जो हुआ है वह अधकचरा है। सोशल मीडिया पर एक संवेदनशील सज्जन ने लिखा, जिंदगी के सफ़र में हमने दीवाली को रूप बदलते देखा है। ‘बचपन में गांव में दिवाली पर हम मशाल जलाते थे। छतों पर घी के दिए जलाए जाते थे जो तेज हवा की वज़ह से थोड़ी देर में ही बुझ जाते थे। न पटाखे होते थे, न मिठाई। उपहार लेने-देने की रिवाज़ नहीं था। दादाजी खील बांटते थे। बाज़ार से एक बोरा भर कर लाया जाता था। दिवाली के दिन सारे गांव को आमंत्रित किया जाता और दादाजी अपने हाथों से सबको खील बांटते।’
दोस्ती पर पीआर हावी
बदलते वक्त के साथ दिवाली भी बदली। बिजली की लड़ियों ने दीपकों की जगह ले ली। मिठाई के साथ उपहारों का आदान-प्रदान शुरू हुआ। हम गिफ्ट की कीमत तय करने लगे हैं। जिसका जितना रसूख उसकी वैसी गिफ्ट। जो सत्ताधारी या पावरफुल हैं, उनके गिफ्ट उतने ही भारी हैं। एक दिन मिलने की औपचारिकता शुरू हुई। मैत्री-भाव की जगह पीआर यानी ‘पब्लिक रिलेशनिंग’ ने ले ली। मिठाइयों की जगह ड्राई फ्रूट्स ने ले ली। दफ्ती के डिब्बों की जगह चांदी की मंजूषाओं में रखकर मेवे जाने लगे। पैसे के प्रदर्शन ने आत्मीयता की जगह ले ली। मन की खुशी की जगह पटाखों की धमक ने घेर ली। जो जितना पैसे वाला उसके धमाके उतने भारी।
गांव के मेलों और कस्बे के बाजारों का दौर खत्म हुआ। अब ई-बाजार खुला है। जैसे-जैसे दीपावली करीब आ रही है, मीडिया में इस आशय की खबरें बढ़ रही हैं कि उत्तर भारत के शहरों में प्रदूषण का स्तर कैसा रहेगा। देखना है कि इस साल कहां तक जाएगा। सजे-धजे मॉल भीड़ से भरे हैं। मिठाई के डब्बे, शानदार गिफ्ट के पैकेट, लेजर लाइट्स और सड़कों पर मीलों लम्बा ट्रैफिक जाम। त्योहार पूरी शिद्दत के साथ ज़मीन पर उतर आया है। माहौल में रोशनी-रंगत और शोर है, पर मन में अनजाना सा भय भी है।
माताओं को इंतजार होता है। दिवाली पर बेटा-बहू घर आएंगे। अब ‘मेक माय ट्रिप’ उन्हें दिवाली हॉलिडे स्पेशल डिस्काउंट दे रहा है। एयरलाइंस बुला रही हैं, आओ सिंगापुर में दिवाली मनाओ। घर में क्या रखा है? वक्त बदला, त्योहार बदले, हम भी बदल रहे हैं। देखिए आपके फोन पर व्हाट्सएप के कितने मैसेज पड़े हैं। उनसे रोशनी फूट रही है। सबका संदेश है, ‘हैप्पी दिवाली!’
हमारा दीपक
जिन्हें हम परंपरागत कौशल कहते हैं उनमें से काफी के लिए बदलता आर्थिक परिदृश्य खतरे का संकेत लेकर आ रहा है। परंपरागत शिल्पों के सामने भारत में ही नहीं सारी दुनिया में खतरा है, पर भारतीय समाज के लिए उसका खास महत्व है। कुछ साल पहले की बात है। एक न्यूज़ चैनल पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दीये बनाने वाले कुम्हारों और उनकी दिक्कतों पर आधारित खबर दिखाई जा रही थी। दीये बनाने वाली महिला का कहना था कि दीयों की बिक्री घट रही है। मेरे पति कोई और काम जानते भी नहीं हैं। अब कर भी क्या सकते हैं? क्या हम इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि चीन का कोई उद्यमी भारतीय बाज़ार पर रिसर्च करके मिट्टी के बर्तनों और दीयों का विकल्प तैयार करके लाए? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? चीन, हमारे कुम्हार, हमारे उद्यमी या भारत सरकार? हम दस्तकारों को वक्त के साथ खुद को ढालना नहीं सिखा पा रहे हैं? या ऐसे हालात तैयार नहीं कर पा रहे हैं कि उनके हितों की रक्षा हो। परंपरागत शिल्पों के साथ आज भी काफी बड़ी आबादी की रोजी-रोटी जुड़ी है। उन्हें अपने काम के तरीके में थोड़ा बदलाव करके और उसकी तकनीक को सुधारकर बेहतर बाजार तक लाने की जरूरत है। हमें विकल्प चाहिए। ग्राहक को अच्छी रोशनी की लड़ी मिलेगी तो वह भारतीय और चीनी का फर्क नहीं करेगा। थोड़ा सा प्रोत्साहन व दिशा मिले तो देश के लघु उद्यमों के लिए वैश्वीकरण बेहतर मौके पैदा कर सकता है।
दक्षिण के गोलू
तमिलनाडु, आंध्र और कर्नाटक में घरों में सीढ़ीनुमा स्टैंड पर गुड्डे-गुड़ियों जैसी छोटी-छोटी प्रतिमाएं सजाई जाती हैं। इन प्रतिमाओं में देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं के पात्रों, दशावतार के अलावा सामान्य स्त्री-पुरुषों, बच्चों, पालतू जानवरों और वन्य-प्राणियों की छोटी-छोटी मूर्तियां सजाई जाती हैं। इसके साथ ही देवी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की गुड़ियों के साथ मारापाची बोम्मई नामक लकड़ी की गुड़िया इस परंपरा का खास हिस्सा होती हैं। देश के संतों और नायकों की मूर्तियां स्थापित होती हैं। ऐसी उम्मीद की जाती है कि हर साल एक नई गुड़िया इसमें शामिल की जाएगी। यह संकलन पीढ़ी-दर-पीढ़ी समृद्ध होता जाता है। तमिल में गोलू या कोलू का मतलब है ‘दिव्य-उपस्थिति’, तेलुगु में बोम्माला कोलुवु का अर्थ है ‘खिलौनों का दरबार’, कन्नड़ में बॉम्बे हब्बा का अर्थ है ‘गुड़ियों का महोत्सव।’अब इनमें नए-नए विषय जुड़ते जा रहे हैं। जैसे कि चंद्रयान, और सुपरस्टार रजनीकांत, कार्टून चरित्र डोरेमोन वगैरह-वगैरह।्
मिट्टी के खिलौने
प्रेमचंद की कहानी ईदगाह में आपने मिट्टी के खिलौनों का जिक्र पढ़ा। मिट्टी और लकड़ी के खिलौने इन पर्वों से जुड़े हैं। छत्तीसगढ़ में खेती-किसानी से जुड़ा त्योहार है पोला। भाद्र पक्ष की अमावस्या को यह त्योहार मनाया जाता है। पोला के कुछ ही दिनों के भीतर तीजा मनाया जाता है। विवाहित स्त्रियां पोला त्योहार के मौ2के पर अपने मायके में आती हैं। हर घर में पकवान बनते हैं। इन्हें मिट्टी के बर्तनों, खिलौनों में भरते हैं ताकि बर्तन हमेशा अन्न से भरा रहे। बच्चों को मिट्टी के बैल, मिट्टी के खिलौने मिलते हैं। पुरुष अपने पशुधन को सजाते हैं, पूजा करते हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। मिट्टी के बैलों को लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं जहां उन्हें दक्षिणा मिलती है। ऐसे पर्वों को आप किसी दूसरे रूप में किसी दूसरे इलाके में देख सकते हैं।
उत्तर के टेसू
उत्तर भारत में और खासतौर से ब्रज के इलाके में शारदीय नवरात्र के दौरान शाम को टेसू और झांझी गीत हवा में गूंजते हैं। लड़के टेसू लेकर घर-घर जाते हैं। बांस के स्टैण्ड पर मिट्टी की तीन पुतलियां फिट की जाती हैं। टेसू राजा, दासी और चौकीदार या टेसू राजा और दो दासियां। बीच में मोमबत्ती या दिया रखा जाता है। जनश्रुति के अनुसार टेसू प्राचीन वीर है। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा झांझी का विवाह भी रचाया जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अब तक भारत में उत्तर से दक्षिण तक मिट्टी और लकड़ी के खिलौने और बर्तन जीवन और संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनके समानांतर कारोबार चलता है, जो आमतौर पर गांव और खेती से जुड़ा है। इसके पहले कि ये कलाएं पूरी तरह खत्म हो जाएं हमें उनके संरक्षकों को खोजना चाहिये।
गणेश पूजा
गणेश चतुर्थी के मौके पर उत्तर भारत में भी घरों में गणेश प्रतिमा स्थापित करने का चलन बढ़ रहा है। दिल्ली के महत्वपूर्ण इलाकों, खासतौर से राजमार्गों के किनारे फुटपाथों पर बिकने वाली गणेश प्रतिमाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। परंपरागत कुंभकारी को आधुनिक प्लास्टर ऑफ पेरिस के सांचों और पेंट की मदद से नई परिभाषा देने का मौका मिल रहा है। परंपरागत दस्तकारी पर्यावरण-मित्र थी, पर उसके आधुनिक संस्करण के बारे में दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता। गणेशोत्सव और नवरात्रि के बाद प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी प्रतिमाएं नदियों में विसर्जन के काफी समय बाद तक पानी में घुलती नहीं हैं। इन्हें आकर्षक बनाने के लिए लगे रासायनिक रंगों के साथ भी यही बात है। इनका असर पानी के स्रोत और जीव–जंतुओं पर भी पड़ता है।
चीनी लड़ियां
जाने-अनजाने दीपावली की रात आप अपने घर में एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से ज्यादातर चीन में बने होंगे। वैश्वीकरण की बेला में हमें इन बातों के निहितार्थ और अंतर्विरोधों को समझना चाहिए। दीपावली के मौके पर बाजारों में भारतीय खिलौने कम होते जा रहे हैं। उनकी जगह चीन में बने खिलौने ले रहे हैं। बात केवल खिलौनों तक सीमित नहीं है। भारतीय बाजार की जरूरतों को समझ कर माल तैयार करना और उसे वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराना व्यावसायिक सफलता है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की परंपरागत उद्यम-भावना कमजोर नहीं है। उसे उचित दिशा और थोड़ा सा सहारा चाहिए और जोखिमों से निपटने वाली मशीनरी भी। गरीब उद्यमी को इंश्योरेंस का सहारा नहीं मिलता।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।