विश्वनाथ सचदेव
पांच राज्यों के चुनाव का बुखार चढ़ने लगा है। उम्मीदवार, राजनीतिक दल और चुनावी कार्यकर्ता सबने कमर कस ली है। चुनाव संबंधी खबरें मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। इन्हीं खबरों में से एक है ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) द्वारा मध्य प्रदेश के बारे में जारी की गई एक जानकारी। यह जानकारी राज्य के उन विधायकों के बारे में है जो अपने आपराधिक रिकार्ड के बावजूद पिछले पांच साल से राज्य के विधानसभा में बैठकर राज्य के भावी विकास की योजनाएं बनाते रहे हैं। ‘एडीआर’ के मुताबिक राज्य के 230 मौजूदा विधायकों में से 93 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं और इनमें ऐसे विधायक भी हैं जिन पर हत्या और हत्या के प्रयास जैसे गंभीर आरोप लगे हैं। आरोपी तब तक सज़ा का भागीदार नहीं होता जब तक अदालत में अपराध प्रामाणित न हो जाये। लेकिन सवाल यह उठता है कि वह क्या मजबूरी होती है जिसके चलते राजनीतिक दलों को ऐसे लोगों को चुनाव के लिए टिकट देना पड़ता है, जिन्हें अपने हलफनामे में अपने पर लगे आरोपों की पूरी जानकारी देनी होती है।
एडीआर द्वारा मध्य प्रदेश के लिए जारी की गई इस रिपोर्ट के अनुसार दाग़ी राजनेता लगभग सभी दलों में पाये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए आरोपी 93 विधायकों में से 39 भाजपा के हैं, 52 कांग्रेस के, एक बसपा का और एक निर्दलीय। राज्य में मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच है। इस बार कितने दाग़ी उम्मीदवार होंगे, यह तो उम्मीदवारों की पूरी सूची जारी होने और उनके हलफनामे के बाद ही पता चलेगा, पर यह तो स्पष्ट है कि हमारी राजनीति और अपराध के रिश्ते बहुत मजबूत हैं। इस संदर्भ में मध्य प्रदेश और देश के बाकी राज्यों में कोई विशेष अंतर नहीं है। और यह भी सच है कि यह रिश्ता विधानसभाओं तक सीमित नहीं है। संसद तक पहुंची हुई है यह बीमारी। बहुत पुरानी बात नहीं है जब सिंगापुर के राष्ट्रपति ने भारत की संसद में आपराधिक प्रवृत्ति के राजनेताओं की बढ़ती संख्या का हवाला देकर जनतंत्र के कमज़ोर होने की बात कही थी। अच्छा नहीं लगा था किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा हमारे देश के बारे में इस तरह की बात करना और हमारी सरकार ने यह बात सिंगापुर के राष्ट्रपति तक पहुंचा भी दी थी। पर इससे यह हकीकत तो नहीं बदलती कि हमारी राजनीति पर आपराधिक तत्व और प्रवृत्तियां हावी होती जा रही हैं। हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमारा भारत दुनिया का सबसे पुराना गणतंत्र है और आबादी के लिहाज से दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र भी, पर भारतीय राजनीति पर आपराधिक प्रवृत्तियों का साया हमारे लिए चिंता की बात होनी चाहिए।
चिंता की बात यह भी है कि हमारे राजनेताओं के साथ जिन अपराधों को जोड़ा जा रहा है वह सिर्फ ‘व्हाइट कॉलर’ अपराध ही नहीं है, हत्या, अपहरण, आगजनी, बलात्कार जैसे आरोप भी लगते रहे हैं। यह बात भी अपने आप में कम चौंकाने वाली नहीं है कि इन सारे आरोपों के बावजूद मतदाता ऐसे दाग़ी नेताओं को चुनता है! ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाये जाने और उनके चुने जाने के आंकड़े भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं। सन् 2004 के बाद हर चुनाव में आपराधिक तत्वों की हमारी राजनीति में सक्रियता और भागीदारी बढ़ी ही है। वर्ष 2014 के चुनाव में हमारे 24 प्रतिशत निर्वाचित प्रतिनिधियों पर आपराधिक मामले चल रहे थे, 2019 में यह प्रतिशत बढ़कर 43 हो गया। फरवरी, 2023 में अदालत में एक याचिका दायर की गयी थी, जिसमें कहा गया था कि 2009 से अब तक घोषित आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या में 44 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी थी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 159 सांसदों ने अपने खिलाफ गंभीर आरोपों की जानकारी दी थी। इन गंभीर आरोपों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण और महिलाओं के विरुद्ध अपराध शामिल हैं।
मतदाता को भी उन्हीं उम्मीदवारों में से चुनाव करना होता है जो उनके समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। सवाल यह उठता है कि राजनीतिक दल ऐसे दाग़ी उम्मीदवारों को चुनाव में उतारते क्यों हैं? इसका सीधा-सा जवाब है, राजनीतिक दलों की नज़र सिर्फ चुनाव जीतने पर होती है। जीतने के लिए जो कुछ ज़रूरी है वह सब करने को तैयार हैं हमारे राजनेता, हमारे राजनीतिक दल!
हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था के 75 सालों का लेखा-जोखा इस बात का साक्षी है कि चुनावों में जीत को ही सर्वोपरि मान लिया गया है। यह बात भी स्पष्ट है कि इस जीत में धन-बल और बाहुबल की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। बाहुबल का सीधा रिश्ता अपराधों से है और धन बल का तमाशा भी हम लगातार देखते आ रहे हैं। यह अनायास ही नहीं है कि चुनावों में जीतने वाले हमारे राजनेताओं में एक बड़ी संख्या करोड़पतियों की होती है।
अभी कुछ दिन पहले ही तेलंगाना में 100 करोड़ रुपये से अधिक राशि सुरक्षा एजेंसियों ने बरामद की थी। साथ ही 145 करोड़ का सोना और अन्य सामान भी जब्त किया गया। इसी 9 अक्तूबर से 21 अक्तूबर के बीच 300 करोड़ रुपये से अधिक की बरामदगी हुई। बताया जा रहा है कि यह राशि मतदाताओं में बांटे जाने के लिए थी। यह ताज़ा आंकड़े हैं, वरना यह छिपी हुई बात नहीं है कि हर चुनाव में करोड़ों रुपये रिश्वत के रूप में मतदाताओं में बांटे जाते हैं। यही कारण है कि विधानसभाओं और लोकसभा तक में करोड़ों नहीं अरबोंपतियों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। यह वोट खरीदू राजनीति और बाहुबल के सहारे वाली राजनीति आपराधिक तत्वों से गठजोड़ नहीं करेगी तो आश्चर्य होगा। अपराध और राजनीति के बीच का गहरा रिश्ता सिर्फ हमारे देश तक ही सीमित नहीं है। लेकिन इस स्थिति को स्वीकार कर लिये जाने की जो मानसिकता देश में लगातार पनप रही है, और स्वीकार्यता पा रही है, वह निश्चित रूप से गंभीर चिंता की बात होनी चाहिए।
इस बात पर भी गौर किया जाना ज़रूरी है कि देशभर में आज अनेक ऐसे राजनेता हैं जिन्हें अदालत ने अपराधी घोषित भी कर दिया है, कुछ सज़ा भुगत चुके हैं, कुछ सज़ा भुगत रहे हैं। इसके बावजूद वह बड़ी बेशर्मी से स्वयं को नेता कह-कहलवा रहे हैं! ऐसे राजनेता तो हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था के अपराधी हैं ही, कहीं न कहीं हम मतदाता भी अपराध के भागीदार हैं। सच कहें तो मतदाता का अपराध दुगना है– पहले तो वह ऐसे आरोपियों-अपराधियों को चुनता है, और दूसरे उनके अपराध घोषित हो जाने के बावजूद उन्हें नेता कहता-मानता है।
अपराध और राजनीति की यह रिश्तेदारी जनतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को अस्वीकार करती है। स्वतंत्र देश के जागरूक मतदाता का यह दायित्व बनता है कि वह इस रिश्तेदारी को नकारे। और कुछ नहीं तो मतदाता इतना तो कर ही सकता है कि वह जब मतदान का बटन दबाये तो इतना ध्यान रखे कि एक बटन ‘इनमें से कोई नहीं’ अर्थात् ‘नोटा’ का भी है। यह बटन दबाने का मतलब राजनेताओं और राजनीतिक दलों को यह बताना है कि वे मतदाता को हल्के में नहीं ले सकते। अपराध और राजनीति का यह अपवित्र गठबंधन हमारे जनतंत्र को भीतर ही भीतर खोखला बना रहा है। जनतंत्र को बचाना ज़रूरी है, और यह कार्य राजनीति करने वाले नहीं, जागरूक नागरिक ही कर सकते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।