‘मालूम नहीं क्यों हम धान की फसल पर और ज्यादा कीटनाशक डालते जा रहे हैं,’ यह आश्चर्य दुनिया के शीर्ष राइस साइंटिस्ट डॉ. गुरदेव सिंह खुश ने व्यक्त किया, जब हाल ही में लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में मेरी उनसे मुलाकात हुई। उन्होंने यह भी कहा कि ‘प्लांट ब्रीडर के तौर पर हम वैज्ञानिक धान की कीट रोधी और रोग रोधी किस्में विकसित करते हैं उसके बावजूद साल-दर-साल धान पर कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ता हुआ ही पाते हैं।’ डॉ. खुश 35 वर्षों से भी ज्यादा वक्त तक फिलिपींस के अंतर्राष्ट्रीय चावल शोध संस्थान (आईआरआरआई) में कार्यरत रहे।
डॉ. खुश जिन्हें कुछ लोगों द्वारा ‘पैडी डैडी’ भी कहा जाता है, ने चावल की 328 वैरायटीज का विकास किया है, जिनमें ब्लॉक-बस्टर आईआर-36 और आईआर-42 और आईआर 64 किस्म भी शामिल हैं। ये किस्में कुल मिलाकर चावल की खेती के तहत लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र में उगायी जाती हैं। भारत, इंडोनेशिया, वियतनाम, चीन से मोज़ाम्बिक तक, ये किस्में बेहद लोकप्रिय हैं। यहां तक कि, इंडोनेशिया के एक पूर्व कृषि मंत्री ने एक बार आईआरआरआई के तत्कालीन महानिदेशक से मजाक में कहा था कि आईआर36 किस्म ने उनके लिए बड़ा सिरदर्द पैदा किया। फिर उन्होंने अपने बयान को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘हमारे पास अब इतना सारा चावल है कि हमें पता नहीं कि इसे कहां स्टोर करें।’
1980 के दशक में वैश्विक स्तर पर 11 मिलियन हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में धान की आईआर36 वैरायटी रोपी गयी थी, जो किसी भी फसल की किस्म के तहत सबसे बड़ा इलाका था। कृषि अर्थशास्त्रियों ने ज्ञात किया था कि एशियाई किसान हर साल धान का 5 मिलियन टन अतिरिक्त उत्पादन करते हैं, जिससे हर साल एक बिलियन डॉलर से अधिक की कमाई होती है। आईआर36 किस्म द्वारा प्रदान की गई रोग प्रतिरोधक क्षमता से किसानों को कीटनाशकों की लागत में प्रति वर्ष लगभग 500 मिलियन की बचत हुई। साल 1982 में फिलीपींस के लॉस बानोस में अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) के एक एक्सटर्नल रिव्यू के मुताबिक’, ‘अकेले आईआर36 का असर 21 बरस पहले आईआरआरआई की स्थापना के बाद से इसमें निवेश को सही ठहराने से भी कहीं ज्यादा होगा।’
यहीं डॉक्टर खुश के योगदान का कोई मुकाबला नहीं है। इसलिए जब वे धान पर रासायनिक कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग व दुरुपयोग पर चिंता जताते हैं तो यह समय संज्ञान लेने का है। मुझे याद है, आईआरआरआई के पूर्व महानिदेशक डॉ. रॉबर्ट कैंट्रेल ने एक बार कहा था-‘एशिया में धान की फसल पर पेस्टिसाइड्स का उपयोग धन और प्रयासों की बर्बादी है।’ फिलिपींस के सेंट्रल लुज़ोन सूबे, वियतनाम और बांग्लादेश के किसानों ने भी इसे निर्णायक तौर पर दर्शाया है कि कीटनाशक आवश्यक नहीं हैं। किसानों ने पेस्टिसाइड्स के बिना भी उच्चतर उत्पादकता प्राप्त की है।
करीब दो दशक पूर्व डॉ. कैंट्रेल और लेखक अंतर्राष्ट्रीय कृषि रिसर्च के सलाहकार समूह (सीजीआईएआर) के बौद्धिक संपदा अधिकारों से संबंधित सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड के सदस्य थे। बता दें कि सीजीआईएआर 15 अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्रों की गवर्निंग बॉडी है। हम अक्सर उस गैरजरूरी दबाव से उत्पन्न होने वाले हानिकारक पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में चिंता करते थे जो कृषि वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं, दोनों के बीच बनाने में कीटनाशक निर्माता सफल रहे थे। वे हमेशा कीटनाशकों से दूर जाने के प्रति राष्ट्रीय कृषि केंद्रों की अनिच्छा पर निराशा व्यक्त करते थे।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) अब उनके नाम पर ‘गुरदेव सिंह खुश इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स, प्लांट ब्रीडिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी’ और एक संग्रहालय समर्पित कर रहा है, जो इस विवि के पूर्व छात्र भी हैं। ऐसा करके पीएयू ने खुद को महान सम्मान दिया है। डॉ. खुश को वर्ष 1996 का विश्व खाद्य पुरस्कार, जो इन्हें अपने संरक्षक हेनरी बीचेल के साथ मिला था। वहीं ये 1987 में जापान पुरस्कार, 1977 में बोरलॉग पुरस्कार के प्राप्तकर्ता हैं। डॉ. खुश को साल 1995 में रॉयल सोसाइटी के सदस्य के रूप में चुना गया था।
कम होते भूजल स्रोतों के बारे में उन्होंने स्वीकार किया कि अब धान की ऐसी किस्में विकसित करने का समय आ गया है जिन्हें पानी की जरूरत कम हो। किसी भी दशा में, वे धान के खेत को फसल के अधिकतर भाग तक पानी से लबालब रखने के पक्ष में नहीं थे। जब मैंने उनसे विशेष तौर पर, दुनियाभर में चर्चा का विषय बन रहे खाद्य प्रणाली में बदलावों और खाद, कीटनाशकों व पानी की कम खपत वाली धान किस्में विकसित करने की जरूरत के बारे में पूछा तो उनकी प्रारंभिक प्रतिक्रिया थी कि ‘यह अच्छा विचार है’। ‘यह सिर्फ तभी संभव है जब हम किसानों को पराली जलाने के बजाय उसे खेत में ही जुताई करके मिट्टी में मिलाने के बारे में सीख देंगे। इससे धरती में पर्याप्त पोषक तत्व बढ़ेंगे, और ऐसे में रासायनिक साधनों की जरूरत कम पड़ेगी।’ आने वाले दिनों में हम राइस रिसर्च के,कम से कम पीएयू में, कैमिकल से नॉन कैमिकल धान की खेती की ओर परिवर्तन के बारे में सोच सकते हैं।
नि:संदेह, पराली संकट का असल समाधान पराली के स्थानीय स्तर पर ही प्रबंधन में निहित है। ये मानते हुए कि अकेले पंजाब में धान के 200 लाख टन अवशेष पैदा होते हैं, जिनका ऊर्जा उत्पादन के रूप में उद्योगों में उपयोग सीमित रहेगा। उन्होंने किसानों को बायोमास का पर्याप्त प्रबंधन करने में सक्षम बनाने के लिए इंसेंटिव प्रदान करने की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की। यह जरूरी है क्योंकि किसान उन मशीनों को कूड़ा ही बना रहे हैं जिन्हें शुरू में खेत की आग से निपटने के लिए लाया गया था।
एक वक्त था जब चावल को गरीबी से जोड़ा जाता था। परंतु उच्च-उपज देने वाली धान की किस्मों के उद्भव के बाद अब चावल के साथ गरीबी का संबंध नहीं माना जाता है। अपनी आत्मकथा ‘गुरदेव सिंह खुश – एक धान प्रजनक की यात्रा’ (पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित) में वे कहते हैं कि 1960 के दशक में 1 से 3 टन प्रति हैक्टेयर के मुकाबले अब किसान प्रति हैक्टेयर 5 से 7 टन उपज प्राप्त करते हैं। इस बड़े परिवर्तन के चलते धान का कुल उत्पादन बढ़ा है जो साल 1966 में 257 मिलियन टन था और 2014-15 में 720 मिलियन टन हो गया है। यह बढ़ोतरी एशिया में हुई जहां वैश्विक धान उत्पादन का 95 प्रतिशत हिस्सा उत्पन्न होता है।
मुझे लगता है आज जरूरी है, वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों का ध्यान अब किसानों को मिलने वाले आर्थिक लाभ की तरफ भी जरूर जाना चाहिये। अभी तक हमारा सारा बल उत्पादकता में वृद्धि पर ही था जबकि धान उत्पादन के अर्थशास्त्र को केवल जुबानी सहानुभूति ही मिली है। अकेले उच्चतर उत्पादकता को ही उच्चतर आय की राह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये। यदि यह सच होता तो भारत में धान किसान धनी किसानों में शामिल होते।
भारत में, जबकि 1960 के दशक के बाद धान उत्पादन 4.5 गुणा बढ़ा है लेकिन एक औसत चावल उत्पादक परिवार की खेती से आमदन घटती ही रही है। रिसर्च का ध्यान अब उन नीतियों को देखने पर होना जरूरी है जिन्होंने जानबूझकर कृषि को दरिद्रता में रखा। फसल की उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही किसान की आय में वृद्धि भी रिसर्च की प्राथमिकता बननी चाहिये। आखिरकार, हमें नहीं भूलना चाहिये : ‘किसान नहीं तो खाद्य नहीं।’
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।