शमीम शर्मा
बनते तो सारे ही लोग मिट्टी के हैं पर कुछ फौलादी हो जाते हैं। अगर इस मिट्टी को हौसले से संभाला जाये तो फौलादी होते देर नहीं लगती। मिट्टी से मानस फौलादी बन जाये तो सराहना होती है और पत्थर का बन जाये तो जन-जन पूछता है कि तुम किस मिट्टी के बने हो।
यह सिर्फ फिल्मों में ही होता है कि हीरो को अगर ठोकर लग जाये तो वह सीधे हीरोइन की बांहों में जाकर गिरता है। पर सच्चाई यह है कि अपने जैसे किसी सामान्य व्यक्ति को ठोकर लगे तो गिरते ही पूरे मुंह पर मिट्टी पुत जाती है और गोड्डे-मोड्डे बुरी तरह छिल जाते हैं। दिवाली पर पंखों तक की मिट्टी झाड़ी जाती है। कोशिश रहती है कि इतनी सफाई की जाये कि घर में कहीं मिट्टी रह न जाये। पता नहीं मिट्टी से बने हम मिट्टी को ही इतनी नफरत की निगाहों से क्यों देखते हैं। कितने ही रेफ्रिजरेटर ले लो, भर-भर पानी की बोतलें रख लो पर जो स्वाद मिट्टी की सुराही और घड़े के पानी में है, वह अन्यत्र नहीं। मैं अपना समय याद करूं तो घर की रसोई में रखे घड़े से लेकर शौचालय में रखा घड़ा याद आता है। गुसलखाने में कपड़े धोने का पानी स्टोर करने के लिये घड़े रखे जाते थे। घर में ज्यादातर दो बड़ी-बड़ी झाल हुआ करती जो पर्याप्त मात्रा में पानी संचित कर लेती। दूध, दही, लस्सी और पशुओं का चारा तक घड़ों में रखे जाते। अब ऐसी घड़ी आ गई है कि हम घड़ों से दूर होते जा रहे हैं।
मिट्टी के दीपक-सा है ये जीवन। तेल खत्म, खेल खत्म। फिर भी लोग जीवनशैली यूं अपनाते हैं मानो शाश्वत रूप से डेरा डालना है। मिट्टी के बर्तन तो हम सब खूब देखभाल कर बजाकर देखने के बाद ही खरीदते हैं पर खुद छोटी-छोटी बातों पर टूट जाते हैं। आजकल रोड किनारे अनेक ऐसे लोग मिल जायेंगे जो मिट्टी के दीये लिये बैठे हैं। लोग उनके पास से उन्हें नज़रअन्दाज़ करते हुए निकल जाते हैं। पर इसमें कोई शक नहीं कि मिट्टी के दीये जलायें तो किसी और का घर भी रोशन होने की पक्की गारंटी है। किसी मनचले की नसीहत है कि जो लोग आपको घास नहीं डालते उन पर मिट्टी डालो और चैन से रहो।
000
एक बर की बात है अक किसी गांम मैं कोय मोड्डा आग्या अर वो एक दिन प्रवचन देण लाग्या- देखो बच्चा! नारी जल की तरह शीतल और तरल होती है और पुरुष मिट्टी की तरह ठोस और रूखा होता है। या बात सुण कै नत्थू तै डंट्या नीं गया अर वो खड़ा होकै बोल्या- ज्यां तै ए ब्याह पाच्छै कीच्चड़ माच ज्यै है महाराज।