यह जानते हुए भी कि हर साल सर्दी की दस्तक व वातावरण में नमी के चलते दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र गैस चैंबर में तब्दील हो जाता है, शासन-प्रशासन हाथ पर हाथ धरे ही बैठा रहता है। यह मान लिया जाता है कि बस एक महीने की दिक्कत है, फिर शोर थम जाएगा। सोमवार को दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक कई जगहों पर 450 से ऊपर दर्ज किया गया, जो खासा घातक श्रेणी का होता है। जिसके चलते ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान-4 यानी ग्रैप की चौथी स्टेज लागू कर दी गई है। जिसके तहत स्कूल बंद करने, गैर जरूरी निर्माण पर रोक, भारी वाहनों की आवाजाही प्रतिबंधित तथा निजी वाहनों के लिये ऑड-ईवन सिस्टम लागू करने की घोषणा की गई। कहा जा रहा है कि दिल्ली की हवा इतनी जहरीली हो गई है कि सांस लेना 25-30 सिगरेट के सेवन के बराबर है। इस प्रदूषण का घातक असर बच्चों व गर्भवती महिलाओं पर अधिक होगा। छोटे बच्चों के दिमाग के विकास पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। इतना ही नहीं, लोगों के श्वसन तंत्र को नुकसान पहुंचने के साथ ही हार्ट अटैक व ब्रेन स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है। सोमवार को स्विस ग्रुप आईक्यू एअर द्वारा जारी वायु गुणवत्ता के आंकड़ों के अनुसार दिल्ली दुनिया में सबसे घातक स्तर तक वायु प्रदूषित राजधानी बन गई। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित दस शहरों में से सात भारत के हैं। यह हमारे नीति-नियंताओं के लिये शर्म की बात होनी चाहिए कि वे अपने नागरिकों को स्वच्छ हवा भी उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। कमोबेश यह स्थिति सिर्फ दिल्ली की नहीं है, देश के अन्य राज्यों में स्थिति बेहद चिंताजनक बनी हुई है। दुनिया के दस प्रदूषित शहरों में कोलकाता पांचवें व मुंबई छठे स्थान पर है। ये स्थिति हमारे लचर प्रशासन व गैर जिम्मेदार प्रतिनिधियों की हकीकत बताती है। साथ ही यह भी कि एक नागरिक के रूप में हम प्रदूषण कम करने के दायित्वों के प्रति उदासीन बने हुए हैं।
वहीं परेशान करने वाली बात यह है कि देशव्यापी प्रदूषण के एक घटक पराली जलाने की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं। नासा की रिपोर्ट में उन स्थानों को चिन्हित करने की चर्चा होती है जहां पराली जलायी जा रही है। लेकिन हमारी सरकारें देखकर भी आंखें मूंद लेती हैं। बल्कि पराली जलाने का काम एक जिद के तौर पर किया जा रहा है। पिछले दिनों उस समाचार ने विचलित किया जब पराली जलाने के विरुद्ध किसानों को जागरूक करने गए अधिकारी को ही पराली जलाने के लिये बाध्य किया गया। विडंबना यह है कि चुनावी माहौल में राजनीतिक दल पराली जलाने वालों के विरुद्ध कार्रवाई के बजाय एक सुरक्षित दूरी बनाकर चल रहे हैं। उन्हें चिंता है तो सिर्फ अपने वोट बैंक की। जिसके चलते यह स्थिति बन गई है कि सिटी ब्यूटीफुल कहे जाने वाले चंडीगढ़ तक में भी वायु गुणवत्ता सूचकांक में चिंताजनक स्तर तक की वृद्धि हुई है। दरअसल, हमारे नीति-नियंता इस संकट को महज एक माह की दिक्कत मानकर फिर चुप बैठ जाते हैं जबकि इस समस्या के समाधान के लिये वर्षपर्यंत प्रयास करने की जरूरत होती है। हमें पता है कि हमारे शहर जनसंख्या के बोझ से दबे हुए हैं और अंधाधुंध निर्माण से हवा के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा उत्पन्न हुई है। दिल्ली में भी कमोबेश यही स्थिति है कि नमी व हवा के दबाव के साथ फॉग की स्थिति बन जाती है। जो कालांतर भयावह प्रदूषण की वजह बनती है। हमारी कृत्रिम जीवनशैली, वाहनों का मोह और सार्वजनिक यातायात साधनों पर लोगों की निर्भरता कम होने से यह प्रदूषण बढ़ रहा है। एक नागरिक के तौर पर भी हमारा व्यवहार कतई जिम्मेदारी वाला नहीं है। प्रदूषण दूर करने व पर्यावरण संरक्षण में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। यह जानते हुए कि हमारे सत्ताधीशों की कार्यशैली कैसी होती है, जो सिर्फ अदालतों की फटकार के बाद ही जागते हैं, इस संकट के समाधान के लिये निरंतर तथा सामूहिक प्रयासों की जरूरत है। यह संकट सिर्फ इस मौसम का ही नहीं, यदि स्थितियां नहीं बदली तो आने वाले दिनों में आम दिनों की बात हो जाएगी।