सत्यवीर नाहड़िया
लघुकाय छंदों के साथ निरंतर नए प्रयोग होते रहे हैं। जिस प्रकार प्रकृति पर आधारित जापानी छंद हाइकु आज पूरे विश्व की भाषाओं व बोलियों में कुदरत के अलावा अन्य विषयों पर भी लिखा जा रहा है, उसी प्रकार अनेक भाषाओं के ऐसे छंद हैं, जिनकी विषय-वस्तु तथा दायरा निरंतर विस्तृत फलक पा रहा है। ऐसा ही एक और उर्दू छंद है माहिया, जिसका मूल स्रोत पंजाब रहा है। पंजाबी लोकजीवन में इसे टप्पे के नाम से जाना जाता है। पंजाबी वैवाहिक अवसरों के अलावा बैसाखी व लोहड़ी पर ढोल की थाप पर टप्पे सस्वर गाए जाते हैं। इनके गायन की भी विशिष्ट शैली है। पंजाबी संस्कृति में इसे प्रेमी, दंपति जोड़ों की नोकझोंक की विषय-वस्तु पर केंद्रित देखा जा सकता है, किन्तु अब इस छंद का दायरा व विषय-वस्तु भी विस्तृत प्रारूप ले चुकी है।
बारह, दस, बारह की तीन पंक्तियों के इस मात्रिक छंद में पहली व तीसरी पंक्ति तुकांत होती है। पहली तथा तीसरी पंक्ति में छह द्विकल तथा दूसरी पंक्ति में पांच द्विकल इसकी गेयता में चार चांद लगाते रहे हैं।
आलोच्य कृति ‘लिख मन बंजारे’ हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित वरिष्ठ गीतकार हरीन्द्र यादव की माहिया सतसई है, जिसकी हरियाणवी रचनाओं में माटी की सोंधी महक को सहज ही महसूस किया जा सकता है। एक बानगी देखिएगा :- उड़ रै कागा उड़ ज्या/ दूर गया साजन/ उसका संदेसा ल्या/ कागा जब गावैगा/ कूण बटेऊ मां/ बदळादे आवैगा।
रचनाकार ने कुछ ठेठ हरियाणवी लोक कहावतों को बड़ी कुशलता से माहिया स्वरूप दिया है :- सोवण भी ना देगा/ ठाडा मारैगा/ रोवण भी ना देगा/ चुप्पी हां भी हो सै/ बोद्दा की जोरू/ सबकी भाभी हो सै।
संग्रह में हिंदी तथा हरियाणवी के अलावा कुछ रचनाएं विशुद्ध अहीरवाटी में भी हैं :- बस नाम करेलो सै/ कड़वो ना मीठो/ कुछ स्वाद कसैलो सै।
रचनाकार की छंद पर पूरी पकड़, विषय-वस्तु का विस्तृत फलक, बेहद कलात्मक आवरण, सुंदर छपाई तथा बोधगम्य भाषा इस माहिया सतसई की अतिरिक्त खूबियां कही जा सकती हैं। यह पुस्तक माहिया छंद के संरक्षण के साथ-साथ हरियाणवी मां-बोली तथा लोक संस्कृति को सहेजने में भी निर्णायक भूमिका निभाएगी
पुस्तक : लिख मन बंजारे रचनाकार : हरीन्द्र यादव प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन, नोएडा पृष्ठ : 128 मूल्य : रु. 200.