पृथ्वी की सेहत, इसके वन, नदियां, महासागर और हवा संकट में हैं। मौसम में हो रहे बेलगाम बदलावों से इसी सदी के अंदर जीवन बदल जाएगा। दुबई में आयोजित कॉप-28 पर्यावरण सम्मेलन में शामिल हुए विश्व के नेता इसको थामने के उपायों पर सहमति के लिए प्रयास कर रहे हैं। पांच दिसम्बर को ‘विश्व मृदा दिवस’ मनाए जाने के साथ मेरे मन में अन्य शाश्वत विचार घुमड़ रहा है ः वह मिट्टी जो सबको जीवन प्रदान करती है, उसकी अपनी सेहत कैसी है। विषैली धरती में डाले गए बीज उगने से रहे। प्रगति चालित अर्थव्यवस्था की नीतियों ने उसी प्राकृतिक पर्यावरण को क्षतिग्रस्त कर डाला, जिसके दम पर तमाम जीवन है। यह विचारधारा, जिसे बदलना कठिन है, आवश्यक पर्यावरणीय सुधारों को रोकती है और सततापूर्ण विकास ध्येयपूर्ति को धीमा बनाती है, इसमें सामाजिक चुनौतियां और मौसम में बदलाव जैसे विषय भी शामिल हैं।
प्रकृति अपनी मिट्टी की सेहत कैसे बनाए रखती है? शायद कुदरत से सीखे गए सबक संस्थानों द्वारा आर्थिक तरक्की को परिभाषित करने की परंपरा और विचारों को बदलने में हमारा मार्गदर्शन कर पाएं।
पंजाब के कृषकों को व्यापक पैमाने पर अन्न उत्पादन करने की तकनीकें और जरूरी साधन मुहैया करवाए गए थे ताकि देश का पेट भरने को गेहूं और चावल का उत्पादन बढ़ सके– इसके लिए मोनोकल्चर एग्रीकल्चर के साथ आयातित बीज-खाद और बांधों, नहरों और भूजल स्रोतों से सिंचाई जल भी उपलब्ध करवाया गया। भूजल स्तर खतरनाक स्तर पर पहुंचता देख, धान बुवाई का समय बारिश की आमद के साथ जोड़ा गया। लेकिन इससे धान-कटाई और गेहंू-बिजाई के बीच पराली उठान के लिए समय घटता गया। किसान पराली को नैसर्गिक रूप से मिट्टी में जज़्ब होने का इंतजार करने या इसका उपयोग कहीं और करने की बजाय, जलाने लगे। इससे प्राकृतिक अपशिष्ट क्षरण चक्र जाता रहा। अब किसानों को ऐसी नई तकनीकों की जरूरत है जिससे कि पराली अन्य कहीं इस्तेमाल के लिए खेत से उठ पाए। परंतु उनके पास इस हेतु आर्थिक स्रोत नहीं है। इसी बीच रसायनों के प्रयोग से उनकी मिट्टी विषैली होती गई।
किसी प्राकृतिक वन या भूभाग में नाना प्रकार की वनस्पतियां, पक्षी, जीव और कीड़े-मकोड़े हुआ करते हैं, जिनका जीवन-चक्र एक-दूसरे पर निर्भर है। इन सबका जीवन प्रकृति की जटिल व्यवस्था पर आश्रित है। मनुष्य ने खेत में खरपतवार समझी जाने वाली हरेक नस्ल को पनपने नहीं दिया। इस तरह खेत में केवल एक प्रजाति की पौध रखकर उत्पादन करना और कमाई बढ़ाते जाने वाला तरीका अपनाया। ‘आधुनिक वैज्ञानिक खेती और वन उपायों’ ने प्रकृति का खुद का जीवन बरकरार रखने वाली प्रणाली को तहस-नहस कर दिया है।
आधुनिकता, वैज्ञानिकता, आर्थिक तरक्की अच्छी बात है। इन्होंने मनुष्य के जीवन काल में इजाफा किया है। बहुत से देशों में बुजुर्गों की गिनती युवाओं से अधिक हो गई है। उनकी सरकारें महिलाओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहन पैकेज तक देने लगी हैं ताकि अर्थव्यवस्था सतत बनी रहे। यहां तक कि भारत में भी, कुछ ही सालों में बुजुर्गों की जनसंख्या युवाओं से ज्यादा हो जाएगी और हमें ‘वृद्ध भारत’ वाली स्थिति से निपटने की तैयारी करनी होगी। मौजूदा अर्थव्यवस्था प्रणाली में न तो वृद्धों को और न ही परिवार या समुदाय की देखभाल को ‘उत्पादक’ माना जाता है। अर्थशास्त्रियों की इच्छा है कि अधिक संख्या में महिलाएं नव-उद्यमी बनें ताकि जीडीपी में इजाफा हो, भले ही इससे परिवार और बुजुर्गों की अनदेखी हो। देखभाल की इस बढ़ती जरूरत को पूरा करने को नए-नए उपाय, जो कि अधिकांशतः पेशेवर हैं, ढूंढ़े जा रहे हैं। बताया जाता है कि इससे भी जीडीपी में इजाफा होगा, परंतु इसकी एवज में चाहे परिवारों और समुदायों का नैसर्गिक रूप से साथ रहने की परंपरा टूट जाए।
सरकारें, जिन्हें सामाजिक एवं पर्यावरणीय सरोकारों वाली व्यवस्था बरकरार रखने पर ध्यान देना चाहिए, यहां उनकी भूमिका एक किसान की तरह होनी चाहिए यानी आजीविका कमाने में विविधता कायम रखने की जिम्मेवाराना सहजवृत्ति निभाना। सरकारों के लिए बुजुर्ग आबादी की देखभाल करने के लिए स्रोत कम पड़ रहे हैं। वे बुजुर्ग, जो परिवारों से अलहदा हैं, उनके लिए वृद्ध-संभाल गृह होने चाहिए, क्योंकि अधिकांश इसका खर्च उठाने लायक नहीं हैं। महंगाई सूचकांक से जुड़ी अधिक पेंशन देने के लिए सरकारों को कंपनियों, कामकाजी वर्ग पर अधिक कर लगाने पड़ते हैं, जो कि वह देने को राजी नहीं। फिर सेवानिवृत्तों को पुनः नौकरी देने का विरोध भी युवा करते हैं क्योंकि उन्हें भी यथेष्ट वेतन वाली अच्छी नौकरी चाहिए। ‘लचीली रोजगार व्यवस्था’, जिसमें नियोक्ता किसी कर्मी को अपनी जरूरत और मुनाफे के हिसाब से रखता-हटाता है, इससे भी नौकरियां घटती जा रही हैं।
महिलाएं, बुजुर्ग और सामाजिक देखभाल प्रदाता समाज का मूल्यवान स्रोत हैं। वे स्वास्थ्य और समाज की निरंतरता बनाए रखने वाली सेवाएं प्रदान करते हैं, जो कि आधुनिक अर्थव्यवस्था के मूल्यांकन खाके में फिट नहीं बैठती। देखभाल-सेवा में जो श्रम-समय लगता है उसका आर्थिक मूल्यांकन नहीं किया जाता।
जी-20 शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने विश्व नेतृत्व से मनुष्यता-केंद्रित नव-व्यवस्था का खाका बनाने का अनुरोध किया था। लेकिन ढर्रे को बदलना आसान नहीं। उनकी इस अपील के बरअक्स भारत के नीति निर्माता जीडीपी वृद्धि को देश की तरक्की का पैमाना बनाकर मूल्यांकन करना जारी रखे हुए हैं। जहां एक ओर भारत विश्व में सबसे तेजी से बढ़ रही मुख्य अर्थव्यवस्थाओं में एक है, वहीं जीडीपी वृद्धि की प्रति इकाई के पीछे नौकरियां पैदा करने की इसकी दर सबसे कम है। दुनिया के सबसे प्रदूषित नगरों की सूची में भारतीय शहर हैं, हमारा भूजल स्तर गिरता जा रहा है।
जीडीपी दर को किसी मुल्क की आर्थिक सेहत का पैमाना मानने के मूल सिद्धांत में वैचारिक खोट यह है कि इसमें उन्हीं तत्वों को गिना जाता है जिसे अर्थशास्त्री अहम समझते हैं– यानी पैसे से मापी जा सकने वाली आर्थिक गतिविधियां और उत्पादन। जीडीपी गणना में उसका कोई मोल नहीं जिसका महत्व मनुष्यता के लिए है। किसी कॉर्पोरेट की कारगुजारी को मापते वक्त ध्यान निवेशकों को मिले मुनाफे पर केंद्रित रहता है। इसकी एवज में बृहद व्यापारिक माहौल और प्रकृति पर क्या असर रहा, यह नहीं गिना जाता।
लेकिन सततापूर्ण पर्यावरण ध्येय की सूची में, आपस में गुंथे सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक समस्या के अलावा बुजुर्ग बनती जनसंख्या से पैदा चुनौतियां शामिल हैं और इनके आलोक में नव-आर्थिक एवं जन-नीतियों पर विचार करने की जरूरत है। तुर्रा यह कि पर्यावरण बदलाव में सुधार हेतु नए उपायों के लिए वित्तीय मदद की घोषणा करने का विचार उसी मिट्टी में रोपा जा रहा है, जो वित्तीय संस्थानों एवं कॉर्पोरेट हितों का पोषण करती है।
बदलाव का हल उच्चस्तरीय सम्मेलनों का आयोजन, केवल माहिरों को बुलाने से नहीं निकलने वाला। इसके लिए आम लोगों की राय, मसलन, किसान, देखभाल सेवा प्रदाता, श्रमिक और महिलाएं, जो भले आर्थिक माहिरों के पदानुक्रम में कहीं नहीं आते और जिन्हें स्थापित ढर्रे में फैसले लेते वक्त नज़रअंदाज किया जाता है, लेकिन ताकतवर लोगों को अपनी कुर्सियों से उतरना ही होगा और इनकी राय सुननी पड़ेगी।
लेखक योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं।