रुचि उनियाल
‘घुघूती-बासूती… क्या खांदी?’ दुधु-भाती! मैं भी दे… जुठू छ… कैकू? मेरू! गीतात्मक शैली में ये छंद उत्तराखंड में लोरी के तौर पर बच्चों को सुनाए जाते हैं। वाकया पर गौर कीजिए- मैं प्राप्ति को दोनों पैरों में बिठाकर और उसके दोनों हाथ थामकर ये लोकगीत या यूं कहूं कि दुधबोली सिखाने के लिए पुरख-परम्परा से चली आ रही सुनी-पूछी गई प्रश्नोत्तरी सुना रही हूं। मेरी मां (सासु मां) मुझे इस तरह मातृत्व में डूबा देखकर भाव-विभोर हो रही हैं। कहीं न कहीं इस अनुभव से वंचित रह जाने के कारण उनकी आत्मा पीड़ा का जो दंश झेलती है वह उनकी आंखों के किनारों पर आ कर रुक जाती है। मां मुझे बच्चों के साथ खेलता-हंसता देखती हैं तो अक़्सर ही अपने जीवन के उन दिनों में चली जाती हैं, जहां उन्होंने अपने बच्चों का बचपन ज़िम्मेदारियों और सास से मिली कटुता के चलते ठीक से देखा भी नहीं। जीवनभर जिस ब्वारी (बहू) ने घर का काम किया हो जिसके साथ सदैव सौतेला व्यवहार किया गया हो वह मातृत्व के सुख से वंचित तो नहीं रही लेकिन उसे पूरी तरह जी भी नहीं पाई। शायद ऐसा इसलिए भी था कि वो अब तक पति से दूर रहते हुए सास की कड़वी बातों को सुन-सुन कर परेशान हो गई थी, न ढंग का खाने को मिलता…… न नींद भर सोने को, और न एक घड़ी बच्चों के पास बैठकर उन्हें दुलारने को।
मां बताती हैं कि उनकी देवरानी जब तक उनके साथ रही तब तक हमेशा उन्हें एक बहू के जैसे इज़्ज़त देती रही, जैसे कि हम दोनों देवरानी-जेठानी उन्हें देते हैं। एक बार जब बड़ी ब्वारी घास से लौटी तो छोटी ब्वारी उनके लिए गर्म पानी कर के ले आयी, हाथ-पांव धोने के लिए, फिर तुरंत चाय बना लायी। लेकिन भीतर बैठी सासु को न जाने क्यों अपनी ही बहुओं के बीच का प्यार नहीं सहा जा रहा था। जब छोटी ब्वारी चाय रखकर जेठानी के पास से अंदर आयी तो अपने बड़े बेटे के ख़ुद को पीछे से पकड़ लेने से ममता से भर गयी…। बच्चा तुतला कर अपनी मां को कुछ बोल रहा था तो ब्वारी ने कहा ‘दीदी ने भी तो यह देखा होगा न!
सास ने तुरंत बड़ी ब्वारी को सुनाते हुए कहा कि ‘अरे कहां! ये क्या जाने मां होना क्या होता है? इसने कभी अपने बच्चों को गोद में भी लिया हो तो पूछ ले। बाहर बैठी बड़ी ब्वारी की आत्मा छलनी हो गई ये शब्दबाण सुनकर। खैर…, मैं प्राप्ति को दादी की गोद में देती हूं तो दादी मारे ख़ुशी के उसे कस के गले लगा लेती हैं।
साभार : पहली बार डॉट ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम