विजय सिंगल
मनुष्य अपनी वास्तविक पहचान एवं विधाता के साथ उसके संबंध की खोज में निरंतर रहता है। हर कोई अपने-अपने ढंग से ईश्वर को महसूस करता है और उसकी उपासना करता है। भगवद्गीता में, संख्या 7.16 से 7.23 तक के श्लोकों में, विभिन्न प्रकार के उपासकों के बारे में विस्तार से बताया गया है। इन्हें मोटे तौर पर चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। पहली श्रेणी में वे लोग शामिल हैं जो संकट में पड़ने पर ईश्वर की आराधना करते हैं। जब कोई अंधेरे से घिरा होता है और उससे बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ने में असमर्थ होता है, तो वह सहायता के लिए भगवान की ओर मुड़ता है। वह उनसे विनती करता है कि उसे उस कठिन परिस्थिति से बाहर निकालें जिसमें कि वह पड़ गया है। भक्तों की दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो अपनी भौतिक उन्नति करना चाहते हैं। वे कुछ विशिष्ट सांसारिक प्राप्तियों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। तीसरी श्रेणी के भक्त वे हैं जिनका लक्ष्य होता है ज्ञान की खोज। वे अपने बारे में, ब्रह्मांड के बारे में और सर्वोच्च सत्ता के बारे में सच्चाई को जानना चाहते हैं और उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए ईश्वर का मार्गदर्शन चाहते हैं।
भक्तों के उपरोक्त तीन वर्गों के अलावा, एक चौथी श्रेणी भी है जो कि ज्ञानीजनों की है। इन ज्ञानीपुरुषों को परम सत्य का ज्ञान होता है और वे सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होते हैं। ज्ञान में परिपक्व बुद्धिमान व्यक्ति किसी भौतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए ईश्वर की पूजा करते हैं। वे ईश्वर को अपना सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं और सदैव उसी में स्थित रहते हैं। वे ईश्वर को पाना चाहते हैं- उसे न केवल बौद्धिक स्तर पर बल्कि अनुभवात्मक स्तर पर भी पाना चाहते हैं। ऐसे परमज्ञानी पुरुष, जो कई जन्मों से ज्ञान की तलाश करते-करते अंततः पूर्णज्ञान में विकसित हुए हैं, इस दुनिया में मिलने बहुत मुश्किल हैं।
श्रीकृष्ण इन सभी लोगों को पवित्र कहते हैं क्योंकि इन चारों ही श्रेणियों के भक्त बुरे कार्यों में लिप्त होने के बजाय अच्छे लक्ष्यों की प्राप्ति में संलग्न रहते हैं। वे नैतिक हैं, वे आध्यात्मिक हैं, वे ईश्वर की परोपकारी शक्ति में विश्वास करते हैं और उसकी शरण लेते हैं। वैसे तो भगवान को सभी भक्त प्रिय हैं, लेकिन उन्हें ज्ञानी सर्वाधिक प्रिय हैं क्योंकि उनकी भक्ति अनन्य, एकनिष्ठ और बिना किसी स्वार्थ के होती है। ऐसे शुद्ध भक्तों को भगवान अपने ही समान मानते हैं।
पूजा और प्रार्थना व्यक्ति की भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के साथ आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने के भी मार्ग एवं साधन हैं। भौतिक लाभ के लिए या अन्यथा प्रार्थना करते समय, व्यक्ति स्वयं को अपने से उच्चतर दिव्य-शक्ति के आगे नतमस्तक कर देता है। वह अपने अहंकार को अपने से दूर कर लेता है। जब वह किसी भी दिखावे से परे, अपने विधाता के सामने अत्यंत विनीत होकर खड़ा होता है तब उसका व्यर्थ का अहं, भय एवं मिथ्या आशाएं स्वयं उसके सामने अनावृत्त हो जाती हैं। या तो उसकी इच्छा पूरी हो जाती है या फिर उसे अपनी मांग की अनुचितता का अहसास हो जाता है। तब वह सत्य को स्वीकार कर लेता है और मन की शांति को प्राप्त कर लेता है। धीरे-धीरे उसके मन, चित्त एवं संस्कारों की शुद्धि होने लगती है। वह ज्ञान की ओर अग्रसर होने लगता है। और भक्तों की सर्वाधिक विकसित श्रेणी में शामिल होकर ऐसा बुद्धिमान व्यक्ति, खुद को पूरी तरह से भगवान की इच्छा के अधीन कर देता है। जबकि अन्य लोग भगवान से कोई न कोई मदद या पुरस्कार मांगते हैं, एक ज्ञानी पुरुष कुछ भी नहीं मांगता। वह चाहता है कि उसकी अपनी इच्छा नहीं, बल्कि परमेश्वर की इच्छा लागू हो। जो मनुष्य सच्चे मन से परमात्मा को भजता है, उस पर सदैव परमेश्वर का आशीर्वाद बना रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, ईश्वर की अविनाशी महिमा का अनुभव एक ऐसे भक्त को होता है जो विनम्र, सच्चा और श्रद्धा से भरपूर होता है।
उपासना का कोई निर्धारित प्रारूप नहीं है; यह एक नितांत भौतिक गतिविधि के रूप में हो सकती है जैसे कि आराध्य की वेदी पर फूल, फल या पानी आदि चढ़ाना। यह वाणी के रूप में भी हो सकती है जैसे कि ईश्वर की महिमा का गायन। या फिर यह सर्वोच्च सत्ता के केवल मानसिक आह्वान के रूप में भी हो सकती है। महत्व भेंट की गई किसी वस्तु अथवा सम्पन्न किए गए किसी जटिल अनुष्ठान का नहीं है, अपितु महत्व तो है हृदय की पवित्रता और सर्वोच्च भगवान के प्रति प्रेम का।
उपासना मनुष्य का परमात्मा तक पहुंचने का प्रयास है। कोई भी श्रद्धा व्यर्थ नहीं जाती। किसी भी सच्ची प्रार्थना की कभी अनदेखी नहीं होती। उन लोगों की प्रार्थनाएं भी व्यर्थ नहीं जाती हैं, जो अपनी स्वार्थी इच्छाओं से प्रेरित होकर विभिन्न अनुष्ठानों के माध्यम से विभिन्न देवताओं की उपासना करते हैं। भक्त जिस भी देवता की जिस भी रूप में श्रद्धापूर्वक उपासना करना चाहता है, भगवान उसकी उसी आस्था को दृढ़ कर देते हैं। तब ऐसी दृढ़ आस्था से संपन्न होकर, वह उस देवता की उपासना करता है और उसके माध्यम से वांछित फल प्राप्त करता है। वास्तव में, इन फलों का विधान केवल उस सर्वोच्च सत्ता, ईश्वर द्वारा ही किया गया होता है। दूसरे शब्दों में, सभी दिव्य रूप एक ही परमेश्वर के रूप हैं। विभिन्न स्वरूपों की पूजा अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा की ही पूजा है। वही समस्त फल देने वाला है।
उपासना की सभी पद्धतियां व्यक्ति को उच्चतर स्तर तक पहुंचने में मदद करती हैं। प्रत्येक भक्त की सच्ची प्रार्थना, चाहे वह किसी सांसारिक वस्तु की प्राप्ति के लिए की गई हो या आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करने के लिए; चाहे प्रत्यक्ष रूप से की गई हो या किसी अन्य देवता के माध्यम से, का उत्तर स्वयं उस एक सर्वोच्च सत्ता, भगवान द्वारा ही दिया जाता है।