तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके पार्टी अध्यक्ष एमके स्टालिन ने अपने दल के सांसद डीवीएन सेंथीकुमार की खिंचाई करके ठीक किया है, जब उक्त सांसद ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभाई चुनावों में भाजपा की जीत के बाद लोकसभा में हिन्दी भाषी सूबों को ‘गोमूत्र राज्य’ ठहराया। पिछले सप्ताह लोकसभा में दिए अपने भाषण में सेंथीकुमार ने तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में भाजपा की चुनावी हार का हवाला देते हुए कह डाला कि भाजपा का दक्षिण भारत में सफल होना मुश्किल है। अंततः उन्हें अपने कहे पर माफी मांगनी पड़ी और उक्त शब्दों को लोकसभा कार्यवाही के रिकॉर्ड से हटा दिया गया।
देश के किसी भी हिस्से या सूबे के लोगों की भावुकता को चोट पहुंचाने वाले किसी सांसद के ऐसे शब्द अस्वीकार्य हैं। संसदीय कार्यवाही में हल्की-फुल्की छेड़छाड़ होती है, होती आई है और होनी भी चाहिए, क्योंकि सदस्यों की विषयात्मक बहस में कुछ हद तक नोक-झोंक भरा तरीका मित्रतापूर्ण बहस का हिस्सा होती है। हालांकि, बेइज्जती करने वाले शब्दों की संसदीय प्रकिया में कोई जगह नहीं है। डीएमके सांसद के बोल न केवल चोट पहुंचाने वाले थे बल्कि इंडिया नामक गठबंधन का राजनीतिक रूप से खमियाजा भी हो सकता है।
उम्मीद के मुताबिक भाजपा ने उक्त शब्दों पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की और इन्हें उत्तर-दक्षिण के आधार पर देश को बांटने वाला प्रयास करार दिया। दक्षिण के संदर्भ में, जहां कर्नाटक में भाजपा की हार हुई है, लेकिन तेलंगाना में कुल वोटों में अपना हिस्सा बढ़ने से सांत्वना भी मिली है। ऐसा नहीं है कि मानो दक्षिण में भाजपा का कोई आधार नहीं है। लेकिन तथ्य यह भी है कि किसी भी दक्षिण भारतीय राज्य में भाजपा की अपनी सरकार नहीं है, हालांकि पुड्डुचेरी में भाजपा सत्तारूढ़ गठजोड़ का अंग है। ठीक इसी समय, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन सूबों की जनसंख्या के अच्छे-खासे वर्ग में अपने प्रति भरोसा अर्जित किया है, विशेषकर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर।
अलबत्ता, डीएमके सांसद के बोलों से बना विवाद मौका है भारतीय राष्ट्रवाद पर आत्मविश्लेषण करने का। यह इसलिए क्योंकि हो सकता है कि राष्ट्रवादिता की परतों के भीतर क्षेत्रवाद मौजूद हो। इसमें कोई शक नहीं कि आज़ादी के बाद से देश की राष्ट्रवादिता की जड़ें लचीली रही हैं और मजबूत होती गईं। देश के तमाम इलाकों में लोग राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत हैं, जो देश पर बाहरी खतरा महसूस होने पर खासतौर पर उभर आती है। इसके आलोक में, राजनीतिक वर्ग को सनद रहे कि दुनिया की कुल आबादी में छठा हिस्सा रखने वाले देश भारत का राष्ट्रवाद समावेशी हो, जो सभी संस्कृतियों, जीवनशैली, भाषाओं, क्षेत्रीय आकांक्षाओं का सम्मान करे। साथ ही, राष्ट्रवाद तभी मजबूत होगा जब दौलत और कमाई के मामले में क्षेत्रवार विषमताएं घटें। यह बात देश के विभिन्न हिस्सों में मानव विकास के स्तर पर भी लागू होती है। जिस एक विषय पर चर्चा कभी-कभार होती है, वह है संविधान में राजकीय नीति के दिशा-निर्देशक सिद्धांतों पर प्रकाश।
राजनीतिक वर्ग और जनता अधिकांशतः भूली बैठी है कि दिशा-निर्देशक सिद्धांत देश में राजकाज चलाने का ‘आधारभूत’ है और कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करवाना राजव्यवस्था का कर्तव्य है। अनुच्छेद 38(2) का दिशा-निर्देश सिद्धांत कहता है ‘राजव्यवस्था, खासतौर पर, आमदनी में असमानता को न्यूनतम रखने और सामाजिक रुतबे, सुविधाएं और अवसरों में गैर-बराबरी को समाप्त करने का प्रयास करे, न केवल किन्हीं लोगों में, बल्कि अलग-अलग भागों में बसी आबादी और विभिन्न रोजगारों में लिप्त लोगों के बीच भी।’ जाहिर है यहां शब्द ‘क्षेत्र’ में सूबे भी शामिल हैं। इससे इंकार नहीं हो सकता कि बढ़ती क्षेत्रवार और राज्यवार असमानता के चलते विभिन्न किस्म के दबाव और भावनाएं -कुछ अस्वस्थ भी– उभरें।
राजनीतिक वर्ग गरीबों के संत्रास का हल निकालने को विभिन्न उपाय बैठा रहा है, इसमें उनके खातों में सीधे पैसे भेजने वाली योजना भी शामिल है। यह अच्छा है कि बिचौलिए द्वारा यह पैसा हड़पने से बचाने के लिए धन स्थानांतरण के लिए डिजिटल तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। केंद्रीय एवं राज्य सरकारें गरीब वर्ग की रोजगार संभावना बेहतर बनाने को कौशल स्तर बढ़ाने वाली योजनाएं चलाना चाहती हैं।
जहां एक ओर यह सब किया जा रहा है, जिस मुख्य और बहुत अहम ध्येय को स्पष्टतः नज़रअंदाज किया जा रहा है, वह है व्यक्तिगत और समूहगत कमाई में असमानता को न्यूनतम करने वाले दिशा-निर्देशक सिद्धांत। यह करने के लिए कर की दर को बढ़ाना कारगर न होगा। इसकी पूर्ति केवल शिक्षा प्रसार और लोगों के रवैये में बदलाव लाकर ही हो पाएगी। देश के वह हिस्से, जहां के लोग दूरगामी सोच रखते हैं और डिजिटल युग की संभावनाओं और अवसरों का भरपूर फायदा लेना चाहते हैं, न ही उनमें ‘इतिहास की गलतियों को सुधारने के प्रति आसक्ति’ है, वे आमदनी और भौतिक सुखों के हिसाब से बेहतर हैं।
अवश्य ही दक्षिणी राज्यों में लोगों के बड़े वर्ग पर, शायद उनके अलहदा ऐतिहासिक अनुभवों एवं उत्तरी अंचल से काफी दूर होने के कारण, अपने मानस पर इतिहास की सांप्रदायिक, ऐतिहासिक गलतियों को सही करने का बोझ उतना नहीं लेते। इसलिए उनके संयुक्त मुद्दे देश के उत्तर भारतीय राज्यों से अलग हैं। यह खासियत भी अंदर ही अंदर जुड़ी हुई है और चुनावी परिणामों में प्रतिबिम्बित होती है। राजनीतिक जमात के लिए इन कारकों को ध्यान में रखना अनिवार्य है।
स्वाभाविक है, भौगोलिकता कारणों से भी सूबों और इलाकों के बीच मुद्दों और उनके हल निकालने की मसरूफियतों में बहुत बड़ा अंतर रहेगा। हालांकि, अनुच्छेद 38(2) में बताई समझदारी पूर्ण दिशा-निर्देशों को दरकार है तमाम सुबाई और केंद्र सरकार नवीन नीतियां अपनाएं ताकि भारतीय गणराज्य परिवार के सभी सदस्यों को महसूस हो कि वे सारे एक समान महत्वपूर्ण हैं और अधिकार संपन्न और समृद्धि हासिल करने का अवसर सबके लिए एक जैसे हैं। वास्तव में, वसुधैव कुटुम्बकम् की शुरुआत भारतीयम् कुटुम्बकम् में है।
साथ ही, भारतीय गणराज्य के परिवार के सभी सदस्य स्वस्थ एवं एक-दूसरे का ख्याल रखने वाले हों, यह सुनिश्चित करने का सबसे यकीनी तरीका है कि असमानता सीमित रखी जाए और लोगों का रवैया दूरगामी सोच वाला बने।
लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं।