जी़ पार्थसारथी
अब जबकि वर्ष 2023 खत्म होने को है, दक्षिण एशिया के तीन बड़े देश -भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान- 2024 में होने वाले राष्ट्रीय चुनावों की तैयारी में मसरूफ हैं। भारत में हाल ही में, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को मिली चुनावी विजय के साथ इस सत्ताधारी दल की लोकप्रियता और मजबूती देखने को मिली है। विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने देश के दक्षिणी राज्य तेलंगाना में सत्ता में वापसी की है। बांग्लादेश में अगले साल के जनवरी माह में तो पाकिस्तान में फरवरी में आम चुनाव होंगे। आगे चलकर श्रीलंका में भी राष्ट्रीय चुनाव होना है।
इसी दौरान, प्रधानमंत्री मोदी ने मालदीव के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मुइज्जू के प्रतीकात्मक अनुरोध को स्वीकार करते हुए वहां तैनात लगभग 75 भारतीय सैनिकों की वापसी स्वीकार कर ली है। हालांकि ठीक इसी समय मालदीव में भारतीय मदद से बनने वाली विकास योजनाओं को बढ़ावा देने के लिए उच्च स्तरीय समझौता हुआ है। विगत में, भारत ने मालदीव की संप्रभुता कायम रखने हेतु वहां सैन्य बल भेजा था, जब 1988 में सशस्त्र गिरोह ने इस टापू की सत्ता हथिया ली थी।
वर्तमान में पाकिस्तान गंभीर आर्थिक दिवालियापन से गुजर रहा है। चुनाव की तैयारियों के मध्य, तमाम व्यावहारिक प्रयोजनों से, पाकिस्तान में राज सेना का ही है। कहने को लोकतंत्र है, लेकिन पाकिस्तान के बेताज बादशाह नवनियुक्त सेनाध्यक्ष जनरल असीम मुनीर हैं। यह भी तथ्य है कि पाकिस्तान के अन्य महत्वाकांक्षी सेनाध्यक्षों की भांति जनरल मुनीर को भी अमेरिका का वरदहस्त प्राप्त है और उन्हें अमेरिका यात्रा का निमंत्रण मिला। पाकिस्तानी सेना के जनसूचना विभाग ने जनरल मुनीर की अमेरिकी रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री के अलावा बाइडेन प्रशासन की अन्य वरिष्ठतम शख्सियतों के साथ भेंट कार्यक्रम की तारीखें काफी जोर-शोर से प्रचारित की थीं। जनरल मुनीर को उनके पूर्ववर्ती सेनाध्यक्ष बाजवा ने विशेष रूप से चुनकर अपनी जगह बैठाया है। बता दें कि अमेरिका के कहने पर यूक्रेन तक सैन्य सामग्री पहुंचाने में बाजवा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इसी बीच अफगानिस्तान मामलों पर अमेरिकी विशेष प्रतिनिधि थॉमस वेस्ट पाकिस्तान पहुंुचे और आतंकवाद से लड़ाई में पाकिस्तान के साथ अमेरिकी का पूर्ण सहयोग होने की घोषणा की है। जाहिर है बाइडेन प्रशासन की याददाश्त कमजोर है, लगता है वह दिन भूल गए, जब पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को सुरक्षित पनाहगाह मुहैया करवा रखी थी। इसके अलावा वह भी भूल गया लगता है जब एक ओर अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की निकासी हो रही थी तो दूसरी ओर तत्कालीन आईएसआई के इशारों पर तालिबान काबुल में सत्ता संभाल रहे थे। इमरान खान से चिढ़ रखने वाले जनरल मुनीर ने अमेरिका की यात्रा की है। लेकिन इन सबका पाकिस्तान का अपने सदाबहार दोस्त चीन के साथ रिश्तों पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फिलहाल जनरल मुनीर का मुख्य ध्यान इमरान खान और उनके चेलों को अनेकानेक मामलों में फंसाने पर है। पूर्व विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी की ब्यानबाजी उन्हें आगामी आम चुनाव में हिस्सा लेने से महरूम करवा सकती है।
बड़ी संख्या में अधिकारियों, सैनिकों और पूर्व-सैनिकों में इमरान खान को चुनाव लड़ने से वर्जित करने वाले प्रयासों को लेकर रोष है। सबसे अहम, लगता है इमरान खान को न्यायपालिका की प्रभावशाली सहायता प्राप्त है। तय कार्यक्रम के अनुसार 8 फरवरी, 2024 को पाकिस्तान में आम चुनाव करवाए जाएंगे। अब देखना यह है कि क्या इमरान खान को सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिल पाएगी और चुनाव में भाग लेने की इज़ाजत मिलेगी।
उधर, पाकिस्तानी सशस्त्र बलों को अब पश्तूनों से सीधी चुनौतियां दरपेश हैं, जो कि ड्यूरंड सीमा रेखा के दोनों ओर तालिबान के समर्थक हैं। भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान से संवाद के सूत्र कायम रखकर काफी समझदारी की है। उम्मीद है आगे भी भारत अफगान लोगों को बेतरह जरूरी गेहूं की आपूर्ति जारी रखेगा। भारत से अफगानिस्तान को भेजी सामग्री बरास्ता पाकिस्तान की बजाय अब ईरान के चाबहार बंदरगाह से होकर पहुंच सकेगी। ऐसे में जब खुद मोदी सरकार आगामी आम चुनाव के लिए कमर कस रही है, बांग्लादेश में शेख हसीना की आवामी लीग सरकार को दरपेश सख्त मुकाबले से भारत के लिए नई चुनौतियां बन सकती हैं। बांग्लादेश में आवामी लीग के प्रति वर्तमान और पिछली अमेरिकी सरकारों का पूर्वाग्रह जारी रहने से, भारत की पूरबी सीमाओं पर मुश्किलें जटिल बनी हैं। शेख हसीना की आवामी लीग के प्रति अमेरिकी पूर्वाग्रह बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त से कायम है। अमेरिका का यह रवैया इस तथ्य के मद्देनज़र हैरानी जनक है कि बांग्लादेश का चीन के साथ संबंध नपी-तुली मित्रता वाला है, जो कि चीन-पाकिस्तान के बीच परमाणु और सैन्य संबंधों से काफी अलग है, और अमेरिका को जिसकी न तो परवाह है न ही दिखाई देता है।
आवामी लीग के प्रति अमेरिका की खुन्नस शेख मुजीब-उर-रहमान के वक्त से है, जो उनकी पुत्री शेख हसीना के साथ भी कायम है। भारत में भी, गहन संशय है कि बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख मुजीब-उर-रहमान की हत्या के पीछे विदेशी हाथ है। भारत और बांग्लादेश, दोनों की म्यांमार से थलीय सीमाएं साझा हैं। सीमापारीय आतंकवाद से निबटने में जहां भारत के म्यांमार के साथ निकट संबंध हैं वहीं रोहिंग्या शरणार्थियों के मसले के कारण बांग्लादेश और म्यांमार के बीच तल्खी है। सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने में म्यांमार के साथ भारत का सीमापारीय सहयोग काफी मजबूत है। मणिपुर की हालिया घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में उक्त सहयोग का होना काफी अहम है।
भारत की दक्षिण-पूरबी सीमाओं पर आने वाले महीनों में तनाव और संभावित हिंसा में उभार देखने को मिल सकता है। बांग्लादेश में भी आगामी आम चुनाव में हिंसा होने को लेकर चिंता है, जहां पर शेख हसीना की पंथ-निरपेक्ष सरकार को कट्टरवादी इस्लामिक तत्वों से चुनौतियां दरपेश हैं। बांग्लादेश और शेख हसीना को निजी तौर पर, अमेरिका और कनाडा के खिलाफ नाराज़गी जायज है, जिन्होंने दो पूर्व बांग्लादेश फौजी अफसरों को पनाह दी हुई है जिन्हें शेख मुजीब-उर-रहमान हत्याकांड में सजा सुनाई जा चुकी है। इन दोनों की सज़ा पर बांग्लादेश में क्रियान्वयन लंबित है।
नव वर्ष में बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत में आम चुनाव होने जा रहे हैं। पाकिस्तान में, अत्यधिक प्रभाव रखने वाली सेना, लोकप्रिय नेता इमरान खान को चुनाव लड़ने से बेदखल करने पर तुली हुई है। जबकि ठीक इसी वक्त मुल्क लगभग दिवालिया है और गुजारे के लिए अमेरिकी सहायता और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक की खैरात पर निर्भर है। बांग्लादेश में, अमेरिका और पाकिस्तान, दोनों नहीं चाहते कि शेख हसीना सत्ता में लौटें।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक हैं।