पिछले करीब एक दशक से साहित्योत्सव और पुस्तक मेलों का जो सिलसिला शुरू हुआ है वह 2023 में थोड़ा और व्यापक होने के साथ कहीं ज्यादा व्यावसायिक रूप में नजर आने लगा है। बेशक इस डिजिटल ज़माने में पाठकों के पास पढ़ने के विकल्प तो कई मौजूद हो गए हैं, लेकिन तमाम प्रकाशकों ने इस साल भी बड़ी संख्या में पुस्तकें छापीं और बेचीं। अगर बात इस बार के दिल्ली विश्व पुस्तक मेले से शुरू करें तो कोविड काल की वजह से दो साल के बाद हुए इस मेले में 20 लाख से ज्यादा लोग आए, 40 देशों के करीब 800 प्रकाशकों ने हिस्सा लिया और जिन प्रकाशकों ने धर्म, अध्यात्म, हिन्दुत्व और मोदी दर्शन से जुड़ी पुस्तकें छापीं, वह मालामाल होकर लौटे।
देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा था तो जाहिर है सरकारी पुस्तक मेले की थीम भी इसी से जुड़ी हुई थी। मेले के शुरू से लेकर अंत तक मोदी जी के पोस्टर देखे जा सकते थे और बड़े से कटआउट में मोदी जी के साथ सेल्फी लेने वालों की कतारें लगी थीं। तमाम लेखकों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ में और उनकी शख्सियत के हर पहलू पर इस साल ढेर सारी पुस्तकें लिख डालीं। लेखकों और प्रकाशकों को भी हिन्दुत्व के दर्शन के साथ राम और अयोध्या सबसे ज्यादा रास आए। यानी हवा के साथ लेखन भी बहता हुआ नज़र आया।
दरअसल लेखकों में बाज़ार का ट्रेंड देखकर लिखने की परंपरा पहले भी रही है, लेकिन 2023 में इसे संस्थागत तौर पर देखा जा सकता है। आम तौर पर साहित्य को सत्ता, समाज, संवेदनशीलता, सच्चाई औऱ समय का आईना माना जाता रहा है, लेकिन अब इसमें से कुछ तत्व वक्त के साथ घुलते मिलते नजर आते हैं। संवेदनशीलता और सच्चाई को हाशिए पर धकेलते हुए 2023 में ज्यादातर लेखकों ने अब अपने लेखन को ‘गौरवशाली हिन्दू इतिहास’ से जुड़ी कथाओं और चिंतन पर केन्द्रित किया है।
साहित्य सृजन में लगे तमाम संवेदनशील और गंभीर रचनाकारों के लिए साहित्य अकादमी ने साल के जाते-जाते अच्छी खबर सुनाई और वरिष्ठ कथाकार संजीव को उनके उपन्यास ‘मुझे पहचानो’ के लिए अकादमी पुरस्कार देने का ऐलान किया। साहित्य अकादमी ने साबित करने की कोशिश की कि अभी उसकी स्वायत्तता बरकरार है। इसी कड़ी में इस साल आई साहित्य अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक की ग़ज़लों के संग्रह ‘सच लिखना आसान नहीं’ का जिक्र करना जरूरी हो जाता है।
कई वरिष्ठ लेखकों ने अपना साहित्य प्रेम कहानियों और आज के दौर में रिश्तों की खत्म होती गरिमा पर केन्द्रित रखा। इसी कड़ी में वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया का कहानी संग्रह आया ‘लगभग प्रेमिका और अन्य कहानियां’। आलोक यात्री ने लिखा ‘नीली छतरी वाली लड़की’ तो सिनीवाली का उपन्यास आया ‘हेति’। वहीं संजीव पालीवाल का उपन्यास ‘ये इश्क नहीं आसां’ तो वंदना यादव का ‘ये इश्क है’। इसी तरह विभूति नारायण राय ने भी ‘रामगढ़ में हत्या’ लिखकर ऐसी ही एक प्रेम कथा पेश की जो कहीं न कहीं एक जासूसी उपन्यास का आभास देती है। सुभाष चंदर मूल रूप से बच्चों की कहानियां और व्यंग्य के लिए जाने जाते हैं, उनकी भी किताब आई चर्चित ‘हास्य कहानियां और सच्चा चैंपियन’। व्यंग्य की एक और किताब आई राजीव तनेजा की ‘हां, मै नपुंसक हूं’। नीरज बधवार का व्यंग्य संग्रह बातें कम स्कैम ज्यादा, डॉ. मलय जैन का हलक का दरोगा के अलावा विकास मिश्र का उपन्यास बखरी हो या सुधांशु गुप्त का कहानी संग्रह तेरहवां महीना भी उल्लेखनीय रहा जबकि इस साल अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास मुखड़ा क्या देखे, लीना मल्होत्रा के कविता संग्रह धुरी से छूटी आह, युवा कवयित्री लवली गोस्वामी का पहला उपन्यास वनिता की भी चर्चा रही।
कवि मदन कश्यप ने लॉकडाउन डायरी लिखी, साथ ही आदमी के दोहरे चरित्र पर उनके लेखों का संग्रह आया– बीजू आदमी। कवि उपेन्द्र कुमार के 75 साल पूरे होने पर उन पर केन्द्रित और सूर्यनाथ सिंह के संपादन में पुस्तक आई– समय कोरी दीवार। वहीं कवि-कथाकार शैलेन्द्र शांत की डायरी ‘तारीखें भी कहती हैं कहानियां’ और ग़ज़ल संग्रह ‘कहने को नया ज़माना है’ भी चर्चा में रहा। दिल्ली में होने वाले वार्षिक और भव्य साहित्योत्सव की बात करें तो यहां साहित्य कम और जाने-माने और चर्चित चेहरों को जुटाकर युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल करने की प्रतियोगिता ज्यादा नजर आती है। इन आयोजनों में स्कूल और कॉलेजों के छात्र-छात्राओं की भीड़ और पिकनिक वाला माहौल आपको एक नए तरह के साहित्य सृजन की संस्कृति की झलक देता है, जहां बाजार है, ग्लैमर है, गीत संगीत है और टीवी एंकर्स की चकाचौंध है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से शुरू हुआ यह सिलसिला इस साल भी ज्यादातर ऐसे आयोजनों में पहले से कहीं ज्यादा संगठित और समृद्ध नजर आया।
कोलकाता और चेन्नई का विश्व पुस्तक मेला भी खासी चर्चा में रहा और जगह-जगह हो रहे लिटरेचर फेस्टिवल में लेखकों का आना-जाना, अपनी पुस्तकों का लोकार्पण, विमोचन कराने का सिलसिला भी जारी रहा। आज़ादी के अमृत काल के दौरान जो साहित्य सृजन हुआ उसकी झलक लगभग हर पुस्तक मेले में देखने को मिली। इस दौरान कुछ प्रकाशकों से बातचीत के दौरान यह तथ्य भी सामने आया कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के लेखकों की साहित्यिक पुस्तकें नहीं के बराबर बिकती हैं। एक प्रकाशक ने तो यहां तक कहा कि अब तो गीता प्रेस की किताबें ज्यादा बिकती हैं और ज्यादातर बड़े प्रकाशकों ने भी कुछ वैसी ही राह अपना ली है।
इस बार साहित्यिक पत्रिका हंस के तीन दिवसीय साहित्योत्सव में अशोक वाजपेयी ने कहा कि ऐसे मंच की आज बहुत जरूरत है जहां आप खुलकर अपनी बात कह सकें। देश में मोदी लहर के बहाव में ज्यादातर साहित्यकार या तो खामोश हो गए या हताश होकर अपने रचनाकर्म को किसी और दिशा में मोड़ दिया। वरिष्ठ साहित्यकार सुभाष चंदर तो यहां तक कहते हैं कि 2023 डरे-सहमे हुए लेखकों का साल रहा।
कुछ और किताबों की चर्चा की जाए तो इस साल अकु श्रीवास्तव की एक किताब खासी चर्चा में रही ‘उत्तर उदारीकरण के आंदोलन’। वहीं सुदीप ठाकुर की किताब ‘दस साल : जिनसे देश की सियासत बदल गई’ को तमाम बुद्धिजीवियों ने काफी पसंद किया।
अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन को बहुत करीब से देखने वाले जाने-माने पत्रकार और लेखक हेमंत शर्मा की किताब ‘फिर लौटे राम’ की बात की जाए तो इसका पहला ही प्रिंट आर्डर 50 हजार का आया और यह किताब छपने के कुछ ही दिनों बाद पूरी बिक गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस पुस्तक को अपनी प्रतिनिधि पुस्तक बनाते हुए इसे घर-घर बांटने का अभियान भी चला रखा है।
इस साल यात्रा संस्मरणों पर भी काफी काम हुआ। वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोक दीप ने ठंडा मरुस्थल लद्दाख लिखा, तो हरिवंश ने सृष्टि का मुकुट कैलास मानसरोवर, श्रीप्रकाश शुक्ल ने देस देस परदेस लिखा तो सुधीर मिश्र ने मुसाफिर हूं यारों…नासिरा शर्मा ने मरजीना का देश इराक लिखा तो हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त ने भी अपनी विदेश यात्राओं का संस्मरण एक किताब के रूप में पेश किया– दो डग देखा जग।
इस साल की एक खास उपलब्धि यह रही कि देहरादून में पहली बार एक तीन दिवसीय क्राइम लिटरेचर फेस्टिवल हुआ। इसमें वो तमाम पूर्व आईपीएस और पूर्व आईएएस लेखक शामिल हुए जिन्होंने अपने कार्यकाल के अनुभवों पर आधारित बड़े स्तर के संस्थागत अपराध की घटनाओं को इपनी पुस्तकों के जरिये सामने लाने की कोशिश की। राजनीति-अपराध-पुलिस-मीडिया के गठजोड़ का भी खुलासा किया।
बेशक जब आप साल भर का लेखा-जोखा पेश करते हैं तो सभी का ज़िक्र कर पाना नामुमकिन है लेकिन खास बात यह जरूर है कि फेसबुक और सोशल मीडिया ने बहुत से छुपे हुए लेखकों को सामने लाने का काम किया है जो बेशक प्रकाशकों के लिए हर साल सैकड़ों किताबें छापने का रास्ता खोल चुके हैं। वर्ष 2023 साहित्य सृजन उम्मीद भी जगा रहा है कि शायद आने वाले साल साहित्य के लिए सृजन की कुछ नई रोशनी लेकर आए।
वो शख्सियतें जो छोड़ गईं साथ…
वर्ष 2023 ने साहित्य जगत की कुछ ऐसी शख्सियतों को हमसे जुदा किया जिन्होंने अपने रचनाकर्म के तमाम आयामों से बहुत कुछ दिया और बेशक जिनका जाना हिन्दी जगत के लिए बड़ी क्षति की तरह है। वयोवृद्ध कथाकार से रा यात्री ने जहां अपने पीछे अपनी किताबों का एक विशाल संसार छोड़ा है, वहीं कवि, लेखक, अनुवादक सुरेश सलिल ने भी इस साल आखिरी सांस ली। वरिष्ठ आलोचक रमेश कुंतल मेघ, जाने-माने बांग्ला लेखक समरेश मजूमदार और डॉ. आशुतोष भी वक्त से हार गए। राजनेता और लेखक केशरीनाथ त्रिपाठी भी नहीं रहे और 2023 जाते-जाते चित्रकार और कवि इमरोज़ को भी अपने साथ ले गया।