अरुण नैथानी
हेमन्त ‘स्नेही’ मूलत: एक संवेदनशील पत्रकार हैं। चंडीगढ़ से दिल्ली तक की तीन दशक से अधिक की पत्रकारिता में ढाई दशक उन्होंने नवभारत टाइम्स दिल्ली में विभिन्न पदों पर काम किया। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अलीगढ़ स्थित मंगलायतन विश्वविद्यालय में पांच वर्ष निदेशक एवं अध्यक्ष पत्रकारिता व जनसंचार विभाग का दायित्व निभाया। समय-समय पर आकाशवाणी व दूरदर्शन के लिये लिखते रहे। व्यवहार में हेमन्त ‘स्नेही’ स्नेही हैं और सहजता-सरलता उनका विशिष्ट गुण है। यही सहजता-सरलता उनकी रचनाओं में भी नजर आती है। उनकी संवेदनशीलता उन्हें साहित्य से जोड़ती है। उनकी बालोपयोगी पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
समीक्ष्य कृति ‘लाख टके के बोल’ गीत, गीतिकाओं और दोहों का संकलन है। इन विधाओं को वे भावाभिव्यक्ति का सहज व स्वाभाविक माध्यम मानते हैं। उनका विश्वास है कि रचना की गेयता व प्रवाह से रचना अधिक प्रभावशाली हो जाती है। जिसके लिये वे लोकगीतों की आमजन में स्वीकार्यता का उदाहरण देते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में आजादी के तरानों का बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ जाना गेय रचनाओं की स्वीकार्यता ही है। गीतिका दरअसल ग़ज़ल का ही पर्याय है जिसमें पूर्ववर्ती रचनाकारों ने विपुल साहित्य रचा है। कवि नीरज ने अपनी गीतिकाओं में आरम्भिका, मुक्तिका और अन्तिका के बेहतर उपयोग से कालजयी रचनाएं काव्य प्रेमियों को सौंपी हैं।
हेमन्त ‘स्नेही’ दोहा विधा चुनने की वजह बताते हैं कि इसके जरिये गहरी बात को संक्षेप में सहजता-सरलता से अभिव्यक्त होती है। जैसे नाविक के तीर, देखन में छोटे लगे और असर करें गंभीर। तीन दशक की पत्रकारिता में सामाजिक-राजनीतिक जीवन में गहरी दृष्टि का अनुभव इन रचनाओं में शिद्दत से उभरता है। गीतों में अंतरिक्ष विजय, जनतंत्र, सनातन संस्कृति, राष्ट्रप्रेम और जीवन मूल्यों की बात है। गीतिकाएं सुकोमल भावनाओं और आत्मीय अहसासों से सराबोर हैं।
वहीं दोहे धारदार-असरदार हैं। गीतासार-1 में वे आईना दिखाते हैं :-
परिवर्तन ही सृष्टि का नियम अटल हर काल,
अरबपति जो एक पल, अगले पल कंगाल।
अपना परिवेश उन्हें खूब याद आता है :-
यूं ही यदि बढ़ते रहे कंकरीट के गांव,
रह जाएंगे ढूंढ़ते बढ़-पीपल की छांव।
गरीब की बीमारी व लाचारी की उन्हें फिक्र है :-
हॉस्पिटल पर भी हुआ अब धनिकों का राज,
निर्धन को ढूंढ़े नहीं मिलता सही इलाज।
राजनीतिक विद्रूपताओं पर स्नेही तीखा तंज करते हैं :-
लोकतंत्र के नाम पर होते कितने खेल,
देखे जनता ने बहुत गठबंधन बेमेल।
आपातकाल का दौर उनकी स्मृतियों में है :-
बदल गया इक रात में सारा ही परिवेश,
होठों पर ताले पड़े, सन्नाटे में देश।
वर्ष 2014 में राजनीतिक बदलाव पर एक गहरा व्यंग्य देखिए :-
मनमोहन सिंह मौन हैं सजा मिली बिन खोट,
मैंने था कब कुछ किया, करता रहा रिमोट।
हेमन्त ‘स्नेही’ का गीत, गीतिकाओं और दोहे का संकलन ‘लाख टके के बोल’ वाकई लाख पते की बात करता है। उनके व्यक्तित्व की ही तरह रचनाएं सरल-सहज शब्दों में पाठकों से बिना लाग-लपेट के संवाद करती हैं। भाषा सरल व बोधगम्य है।
पुस्तक : लाख टके के बोल रचनाकार : हेमन्त ‘स्नेही’ प्रकाशक : बीएफसी पब्लिकेशन्स, लखनऊ पृष्ठ : 144 मूल्य : 197