आमतौर पर जनवरी माह का पहला सप्ताह भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए महत्वपूर्ण समय होता है। यह वह वक्त है जब विशाल सालाना आयोजन – भारतीय विज्ञान कांग्रेस (आईएससी) का अधिवेशन होता है। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री करते हैं और देशभर से आये हजारों वैज्ञानिक एवं विद्यार्थी इसमें भाग लेते हैं। लेकिन जनवरी, 2024 अलग रहा। जब न केवल जालंधर के पास स्थित एक यूनिवर्सिटी ने आखिरी वक्त पर इसकी मेजबानी करने से हाथ खींच लिए और वजह बताई ‘अनदेखी चुनौती’ बल्कि आयोजन के लिए धन मुहैया करवाने वाली केंद्र सरकार ने भी। इससे मजबूरन भारतीय विज्ञान कांग्रेस संगठन ने अब यह आयोजन रद्द कर दिया।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस एक नायाब मंच है। जहां अन्य वैज्ञानिक सम्मेलन किसी विशेष विषय के दायरे में होते हैं, जिनमें चुनींदा शीर्ष वैज्ञानिक भाग लेते हैं, वहीं आईएससी अधिवेशन बहु-विषयक है और इसमें भाग लेने का मौका तमाम नियमित विज्ञान विद्यार्थियों एवं शोधकर्ताओं के लिए खुला होता है। यह विज्ञान नीति निर्धारकों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श करने और सरकार को सुझाव देने का मंच रहा है। इस प्रकार के सुझाव नीतियों को स्वरूप देने में मददगार रहे, यहां तक कि नए सरकारी विभागों का सृजन भी संभव हुआ, मसलन, पर्यावरण विभाग, जिसने आगे चलकर मंत्रालय का स्वरूप लिया, और सागर विभाग जो वर्तमान में पृथ्वी विज्ञान के नाम से जाना जाता है। सबसे ऊपर, आईएससी विज्ञान संचार एवं वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के अतिरिक्त जिज्ञासा की ललक को बढ़ाने का काम करती रही।
1914 में अपनी स्थापना के साथ, आईएससी के वार्षिक अधिवेशन कोविड महामारी से बनी रुकावट के दौर के अलावा, बिना नागा होते रहे। विज्ञान कांग्रेस की गाथा और भारत में आधुनिक विज्ञान की उन्नति आपस में गुंथी रही है। आईएससीए की स्थापना भारत में कार्यरत दो ब्रिटिश शिक्षाविदों – कैनिंग कॉलेज, लखनऊ के प्रो. पीएस मैकमोहन और प्रेसिडेंसी कॉलेज, मद्रास के प्रो. जेएल साईमनसन का मूल विचार था। इसकी प्रेरणा उन्हें ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ एडवांसमेंट ऑफ साइंस से मिली। उद्देश्य था, जो लोग विशुद्ध एवं कार्यकारी विज्ञान में रुचि लेते हों, उन्हें साझा मंच प्रदान करना और समाज के साथ विज्ञान का राब्ता बनाना। यह पहला ऐसा मंच था जहां गणित, खगोलशास्त्र, भौतिकी, रसायन शास्त्र, भू-विज्ञान और जीव-विज्ञान से जुड़े लोग आपस में मिलते और नवीन विचारों का आदान-प्रदान करते। इस प्रकार की बैठकों को ध्यान में रखकर, सालों तक, नये वैज्ञानिक समाज और व्यावसायिक संस्थानों का उद्भव हुआ- नतीजा रहा समरस भारतीय वैज्ञानिक समुदाय।
राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के कुछ आलोचक कहते हैं कि यह मंच अपनी प्रासंगिकता गंवा चुका है और अभी भी सदी पुरानी रिवायत और प्रारूप में जकड़ा हुआ है। हालांकि इस प्रकार की धारणा सही नहीं है और यह आईएससी के उस क्रमिक विकास को झुठलाना है, जिसने भारत में विज्ञान की उन्नति के विभिन्न चरणों के साथ अपनी गति बनाए रखी। पहला चरण था 1914-1947 का, जब भारतीय साइंसदानों और भारत में स्वरूप ले रहे विश्वविद्यालयों एवं प्रयोगशालाओं में कार्यरत यूरोपियन वैज्ञानिकों के बीच विचारों का आपसी आदान-प्रदान काफी रहा। आईएससी अधिवेशनों में प्रस्तुत सभी खोज-पत्रों की प्रतिद्वंद्वी-मीमांसा होती, जिससे वैज्ञानिक कार्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने और इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता देने के सिद्धांत का उद्भव हुआ। भारत में वैज्ञानिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आईएससी का एक उप-उत्पाद है। मेघनाद साहा द्वारा स्थापित ‘साइंस एंड कल्चर’ पत्रिका इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
1930 के दशक के आखिर में, जब स्वतंत्रता आंदोलन गति पकड़ने लगा और राष्ट्रीय नेतृत्व ने भावी भारत को लेकर योजनाओं की रूपरेखा बनानी शुरू की, तो तीव्र औद्योगिकीकरण एवं सामाजिक दायित्व के जरिये राष्ट्रीय विकास के लिए नूतन विचारों के लिए आईएससी एक सार्थक मंच बना। यह 1937 का अधिवेशन था जब जवाहरलाल नेहरू ने अपने संबोधन में ये कालजयी पंक्तियां कहीं ‘विज्ञान युग की आत्मा है और आधुनिक संसार का सिरमौर अवयव। भविष्य विज्ञान का है और उनका, जो विज्ञान से दोस्ती रखना चाहेंगे और समाज की तरक्की के लिए इसकी मदद लेना चाहेंगे’। वे 1947 में आईएससी के जनरल प्रसिडेंट बने और 1964 में अपने देहांत तक प्रत्येक सालाना अधिवेशन को संबोधित करते रहे। इसके बाद से, वैज्ञानिक समुदाय और आईएससी में अपना संबोधन देना सत्तासीन प्रधानमंत्री के लिए एक रिवायत बन गई और उन्होंने इस अवसर का इस्तेमाल अक्सर महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणाओं के लिए किया।
आजादी उपरांत जैसे-जैसे राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं और अनुसंधान परिषदें स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू हुई, आईएससी भी नए चरण में दाखिल हुई। वैज्ञानिक अनुसंधान का मंच बने रहने के अलावा यह योजनाओं, खाद्य संकट और स्वास्थ्य विकास जैसे अहम मुद्दों पर विचार-विमर्श का सम्मेलन रही। समय के साथ, विश्वविद्यालय व्यवस्था से जुड़े अनुसंधानकर्ताओं के अलावा, वे लोग जो राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिक विभागों से संलग्न थे, परिचालन पर उनका दबदबा बनने लगा। अनुशासन-विषयक व्यावसायिक समुदाय विकसित हुए और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियां अगले कुछ सालों में परिपक्व हुईं, वैज्ञानिक खोज-पत्र आईएससी मंच की बजाय व्यावसायिक संस्थानों की बैठकों में पेश करने की वजह से इसकी चमक कुछ फीकी पड़ने लगी।
वर्तमान में विज्ञान में बनी विविधता, उच्च विशेषज्ञता एवं प्रतिस्पर्धात्मक प्रकृति के चलते, आईएससी के लिए यह मानना अयथार्थवादी होगा कि वह शोधपत्र आदि प्रस्तुत करने के लिए साइंसदानों की पहली पसंद बने। अतएव, पिछले सालों में, वैज्ञानिक समुदाय में बहुतों को महसूस हो रहा है कि आईएससी केवल एक मेला बनकर रह गई है। स्थानीय आयोजकों द्वारा प्रवेश को आसान बनाने की कमजोरी का फायदा उठाकर, आईएससी सत्रों में गैर-वैज्ञानिक तत्वों की घुसपैठ देखने को मिली है।
तथापि, बहु-विज्ञान धाराओं में अपने ज्ञान को अन्य से साझा करने के इच्छुक वैज्ञानिक, युवा साइंसदानों एवं उभरते वैज्ञानिकों व अपने समकक्षों से संवाद करने के लिए आईएससी को उपयोगी पाते हैं। प्रमुख अनुसंधान और शिक्षण संस्थानों के अतिरिक्त, भारत में बहुत से विश्वविद्यालय एवं कॉलेज हैं, जहां विज्ञान पढ़ाया जाता है, चूंकि उनके छात्र और अध्यापक चोटी के व्यावसायिक संस्थानों एवं शिक्षा जगत के सदस्य नहीं हैं लिहाजा अपने शोध पत्र की प्रस्तुति और चोटी के वैज्ञानिकों और नीति-निर्धारकों से संवाद के लिए उन्हें आईएससी की जरूरत है। नोबेल पुरस्कार विजेता तक आईएससी सत्रों को संबोधित करते आए हैं और वे प्रतिभागी विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा स्रोत व सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं।
इन तमाम वजहों के चलते, आईएससी का बने रहना और पुनर्नवीनीकरण किया जाना जरूरी है। कई मर्तबा जब हम सोशल मीडिया के जरिये छद्म-विज्ञान का उद्भव होते देखते हैं, तब हमें आईएससी जैसे और मंचों की जरूरत है ताकि वैज्ञानिक सोच बनाने को बढ़ावा मिले और विज्ञान-विरोधी प्रवृत्तियों का प्रतिरोध हो पाए। केंद्रीय सरकार की भी जवाबदेही बनती है कि क्योंकर विज्ञान एवं तकनीक विभाग ने आईएससी आयोजन को वित्तीय मदद देना बंद कर दिया है।
लेखक विज्ञान संबंधी विषयों के जानकार हैं।