हरियाणा में कांग्रेस के क़द्दावर नेता और राज्यसभा सदस्य दीपेन्द्र हुड्डा सोमवार 15 जनवरी को अचानक अयोध्या पहुंच गए। वहां उन्होंने सरयू नदी में स्नान किया और रामलला के दर्शन किए। उनके साथ पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष अजय राय और कांग्रेस की केंद्रीय कमेटी की तरफ़ से नियुक्त उत्तर प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडेय ने भी सरयू स्नान कर रामलला के दर्शन किए। बाद में प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत भी वहां पहुंचीं। हुड्डा ने कहा, भगवान राम उनकी आस्था के प्रतीक हैं और वे प्रदर्शन नहीं करते। हालांकि उन्होंने सोशल मीडिया की साइट एक्स में अपनी स्नान की तस्वीर भी डाली। दीपेन्द्र हुड्डा के अयोध्या जाकर रामलला के दर्शन करने से यह बात स्पष्ट हो गई है, कि भले कांग्रेस ने 22 जनवरी का आमंत्रण ठुकराया हो लेकिन पार्टी के भीतर भी कशमकश चल रही है। हिंदी प्रदेशों में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के उत्सव से लोगों में इस क़दर जोश उमड़ा है, कि उसकी अनदेखी किसी के वश की बात नहीं।
22 जनवरी को अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के गर्भगृह में रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का समारोह आयोजित है। यह एक ऐतिहासिक क्षण होगा। क़रीब 500 वर्ष बाद मर्यादा पुरुषोत्तम और हिंदू लोकमानस के भगवान राम उस जगह पर पुनः बिराजेंगे, जहां उनका जन्म हुआ था। 1527 ईस्वी में अयोध्या में रामलला के जन्म स्थान मंदिर को तोड़कर बाबर के सेनापति मीर बकी ने मस्जिद का निर्माण कराया था। यह मंदिर उसने बाबर के कहने पर तोड़ा था, और इस आशय का एक पत्थर भी वहां लगवा दिया था, इस वजह से इसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था। इसके बाद से लगातार इस स्थान पर मंदिर बनवाने के लिए राम भक्तों का आग्रह रहा। पिछले 500 वर्षों में अनगिनत साधु-संत और रामभक्त यहां मारे गए। किंतु राम भक्तों का यह संघर्ष कभी बंद नहीं हुआ।
इस मंदिर को मुक्त करवाने के लिए विश्व हिंदू परिषद का योगदान सिर्फ़ यह रहा, कि उसने इस संघर्ष को सांगठनिक रूप दिया। उसने छिटपुट संघर्ष करने वाले राम भक्तों के लिए मंच तैयार किया और भाजपा ने देशव्यापी बनाकर इसे राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया। हालांकि, बीच-बीच में यह आंदोलन हिंसक भी हुआ, और राम भक्तों पर गोलियां भी चलीं। कई रामभक्त मारे भी गये। लेकिन सत्ता द्वारा गोलियां बरसाने के चलते आंदोलन और तीव्र हुआ। अंततः राम मंदिर कार सेवकों के ग़ुस्से के चलते 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा ध्वस्त हो गया। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सभी राजनीतिक दलों ने चुप्पी साधी।
राम मंदिर पर सुप्रीम फ़ैसला आ जाने के बाद से यहां राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई और अंततः 22 जनवरी को मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम तय हुआ है। इस दिन के लिए हज़ारों निमंत्रण पत्र बांटे गये हैं। निमंत्रण बांटने का ज़िम्मा राम मंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने लिया। मंदिर के इस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में राजनीतिक दलों के नेता तथा तमाम फ़िल्मी कलाकारों को न्योता देने से विवाद बढ़ा है। समारोह में वे तमाम लोग नहीं बुलाये गये जो राम मंदिर आंदोलन में जेल गये और बलिदान हुए। हालांकि जब पूरा देश राममय हो उठा हो तो वे सारे लोग मुंह से राम-राम जपने लगे हैं, जो कल तक राम मंदिर आंदोलन को कार सेवकों का उन्माद बता रहे थे।
बहुत सारे साधु-संत भी इस प्राण-प्रतिष्ठा का विरोध कर रहे हैं। इसका कारण एक तो उनको इसमें अपनी उपेक्षा प्रतीत हो रही है, दूसरे वे इस प्राण-प्रतिष्ठा की पद्धति से नाखुश हैं। राम मंदिर के लिए राजनीतिक आंदोलन शुरू करने वाले लालकृष्ण आडवाणी और उसकी ध्वजा थामने वाले मुरली मनोहर जोशी को निमंत्रण तो ट्रस्ट की तरफ़ से गया है। लेकिन उन्हें सलाह भी दी गई है, कि ठंड की वज़ह से ये नेता न पधारें। ऐसे कई कारण हैं, जिनसे विवाद पैदा हो गया है। हर नेता और हर साधु के अपने-अपने ‘ईगो’ हैं। लेकिन हर एक को इंतज़ार था, कि कांग्रेस इस पर क्या प्रतिक्रिया देती है? क्या सोनिया गांधी इस समारोह में आएंगी अथवा नहीं। यह जानी-मानी बात है, कि अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाने की पहल तत्काल प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने की थी। लेकिन जब कांग्रेस को न्योता देने विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष गए, तब न्योता तो स्वीकार कर लिया गया परंतु जयराम रमेश ने कहा है, कि कांग्रेस इस मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में नहीं जाएगी, तब से कांग्रेस में बेचैनी भी खूब पनपी है।
7-8 अप्रैल, 1984 को दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में संतों ने एक धर्म संसद आयोजित की। इस धर्म संसद में प्रमुख वक्ता डॉ. कर्ण सिंह थे, जो कांग्रेस के प्रमुख नेता थे और उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी। एक फ़रवरी, 1986 को बाबरी मस्जिद में क़ैद रामलला मंदिर का ताला खुला, यह बहुत बड़ी घटना थी। उस समय केंद्र में राजीव गांधी की और उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी। सबने इस पर मौन साधा। क्योंकि यह हर एक को पता था, कि यह पहल प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इशारे पर हुई थी। फ़ैज़ाबाद के ज़िला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश दिया था। मालूम हो कि यह ताला वहां 1949 से लगा था। यही नहीं, अयोध्या में राम मंदिर जन्म स्थान पर शिलान्यास 9 नवंबर, 1989 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सहमति से किया गया था।
इसके बाद से राम मंदिर आंदोलन पूर्णतया राजनीतिक हो गया और हर राजनीतिक पार्टी इसमें अपने-अपने फ़ायदे ढूंढ़ने लगी। 25 सितंबर, 1990 को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा शुरू की थी। इसे 23 अक्तूबर को बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव के आदेश पर समस्तीपुर में रोक लिया गया और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार कर लिया। भाजपा ने केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में आ गई।
उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। 30 अक्तूबर से 2 नवंबर, 1990 के बीच कारसेवकों की तोड़-फोड़ रोकने के लिए पुलिस बल का प्रयोग हुआ। इसमें 40 कार सेवक मारे गए। इससे आंदोलन ने और तीव्र रूप ले लिया तथा पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इसका भाजपा को लाभ मिला और 1991 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। उन्हीं के कार्यकाल में 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचे को उग्र भीड़ ने ध्वस्त कर दिया। केंद्र की नरसिंह राव सरकार भी बस देखती रही। एक तरह से कांग्रेस के अधिकांश नेता भी यह मानते थे कि बाबरी मस्जिद मूल रूप से राम जन्म स्थान ही है।
सबसे दिलचस्प प्रकरण अब शुरू हुआ है। वे राजनेता और बुद्धिजीवी तथा फ़िल्म व खेल सम्राट जो कल तक इसे भाजपा की हिंदू तुष्टीकरण नीति मान रहे थे और येन-केन-प्रकारेण विरोध कर रहे थे, भी अब प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को राष्ट्रीय उत्सव बता रहे हैं। यहां तक कि वे राजनीतिक दल भी जो राम को एक काल्पनिक पात्र मानते हैं और सनातन हिंदू समाज को नष्ट करने की बातें करते रहे हैं। वे समझ रहे हैं कि इस समय देश का लोक मानस राम मंदिर के साथ है। ऐसे में राममूर्ति प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में न जाने से सारा क्रेडिट भाजपा को मिलेगा। फ़िल्म गीतकार ज़ावेद अख़्तर ने भी कहा है, कि हिंदू समाज बहुत उदार है और राम तो पूरे भारतीय समाज में मान्य हैं। ज़ावेद अख़्तर ने अजंता एलोरा समारोह में कहा है, कि प्राण-प्रतिष्ठा समारोह दुनिया का सबसे बड़ा समारोह है, इसलिए इस पर हंगामा करने का कोई अर्थ नहीं है। भगवान राम और सीता को उन्होंने न सिर्फ़ हिंदू देवी-देवता कहा बल्कि उन्हें संपूर्ण भारतीय समाज की सांस्कृतिक विरासत बताया। ज़ावेद अख़्तर के बयान से खुद को सेकुलर बताने वालों के मुंह धुआं हो गए हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।