शिखर चंद जैन
दुनिया में कई ऐसी बीमारियां भी हैं, जो बहुत कम ही बच्चों में पाई जाती हैं। रेयर डिजीज की श्रेणी में विश्व स्वास्थ्य संगठन उन बीमारियों को रखता है, जो दस हजार में से 6 बच्चों में ही पाई जाती हैं। माना जाता है कि रेयर डिजीज से ग्रस्त 30 फीसदी बच्चे 5-7 वर्ष की आयु में ही मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। दुनिया में करीब सात हजार रेयर डिजीज मौजूद हैं जिनमें अधिकतर आनुवंशिक हैं। रेयर डिजीज को पहचानना बड़ी मुश्किल है तो उपचार भी बेहद मुश्किल है।
इनकी पहचान जल्द कर ली जाए, तो इलाज में बहुत हद तक मदद मिल सकती है। सेहत विज्ञानी अलग-अलग तरीकों जैसे स्टेम सैल ट्रीटमेंट, जीन थेरेपी या एंजाइम थेरेपी से इनके इलाज के तरीके ढ़ूंढ़ने में लगे हुए हैं। कोलकाता के रवींद्रनाथ टैगोर अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. अरिंदम विश्वास ने बताए कुछ ऐसे ही रेयर डिजीज औऱ उनके संभावित इलाज-
आसिफिकेंस प्रोग्रेसिवा
यह बीमारी 20 लाख में से किसी एक बच्चे में होती है। बच्चे के शरीर के विभिन्न हिस्सों में हड्डियां बनने लगती हैं। आमतौर पर जहां मसल्स होती हैं वहां। यह समस्या 2-5 वर्ष में देखी जा सकती है। मसल्स की गांठें दिखने लगती हैं। कई बार चोट लगने के बाद ऐसे संकेत नजर आते हैं। तीस वर्ष की उम्र तक चलना-फिरना ही मुश्किल हो जाता है। इन्हें बार-बार निमोनिया होता है। इलाज में चिकित्सक प्रेडनिसोलोन दवा का प्रयोग करते हैं।
प्रुन बेली सिंड्रोम
यह रोग 40 हजार में से एक बच्चे में होता है, ज्यादातर लड़कों में। इसमें पेशाब में रुकावट की समस्या होती है। इनके पेट के ऊपर की मांसपेशियां पूरी तरह विकसित न होने से पेट बाहर की ओर निकल जाता है। टेस्टिस भी पेट में होते हैं। बार-बार यूरीन इंफेक्शन होता है। कई बार किडनी में भी समस्या आ जाती है। सीएचआरएम 3 जीन के विकार से यह बीमारी होती है। इलाज के दौरान पेशाब के रास्ते में अवरोध दूर करते हैं। कई बार सर्जरी से टेस्टिस को पेट से नीचे लाकर स्क्रोटम में पहुंचाना पड़ता है।
ड्यूकन मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी
36000 में से एक बच्चे को होने की संभावना। सिर्फ लड़कों मे होने वाली बीमारी है। यह मसल्स की बीमारी है। इसमें एक्स क्रोमोजोम पर डिस्ट्रॉफिन जीन विकार हो जाता है। लक्षण ये हैं- इस बीमारी के संकेत जन्म के 2-3 सालों में दिखने लगते हैं। सबसे पहले पैरों की मसल्स कमजोर होती हैं। फिर 10 वर्ष के बाद बच्चा चलने में अक्षम होने लगता है। 25 वर्ष की उम्र तक श्वांस प्रक्रिया से जुड़ी मांसपेशियां भी अशक्त होने लगती हैं औऱ फिर रोगी मर जाता है। इसका फिलहाल इलाज नहीं है।
एकोन्ड्रोप्लेसिया
यह रोग 25 हजार में से एक बच्चे को होता है। इससे पीड़ित बच्चे बौने होते हैं। एक खास जीन में परिवर्तन देखा जाता है। पीड़ित बच्चे का सिर काफी बड़ा होता है। शरीर व हाथ पैर की लंबाई का कोई अनुपात नहीं होता। चेहरा बीच से छोटा व नाक चपटी होती है। रीढ़ में भी विकार होता है। इलाज में अब तक सफलता नहीं मिली है। वैज्ञानिक कारगर इलाज की खोज में जुटे हुए हैं।
प्रोजिरिया
यह रोग अस्सी लाख में से एक बच्चे को होता है जिसमें बच्चा बचपन में ही बूढ़ा सा नजर आने लगता है। यह एलएमएनए जीन में बदलाव आने की वजह से होती है। लक्षण ये हैं कि इस बीमारी के शिकार बच्चे का वजन अन्य बच्चों की अपेक्षा धीरे बढ़ता है। स्किन भद्दी हो जाती है। बाल झड़ जाते हैं औऱ चेहरे पर झुर्रियां पड़ जाती हैं। इलाज हेतु आजमाने के हिसाब से तरह तरह की दवाएं, ग्रोथ हार्मोन आदि का प्रयोग किया गया है, पर अभी वांछित सफलता नहीं मिल पाई।
उपरोक्त रोगों के अलावा कुछ बीमारियां हैं तो रेयर डिजीज, पर इन दिनों इनके कई मामले सामने आ रहे हैं। जैसे-
जन्मजात थायराइड की कमी : यह थायरॉइड हार्मोन की कमी से होती है। लक्षणों में ज्यादा सोना, पीलिया, कम टेंपरेचर, शामिल हैं। इलाज के लिए थायराइड की गोलियां दी जाती हैं। बायोटीन्स डेफीशिएंसी : यह आनुवांशिक बीमारी बायोटिन की कमी के कारण होती है। लक्षण हैं- बच्चे की व्यावहारिक, दिमागी क्षमता में कमी, दौरा आना । इलाज विटामिन बी 7 दवा देकर किया जाता है। गेलेक्टोसिमिया : आनुवंशिक बीमारी जो कि गेलेक्टोसकाइनेस की कमी से होती है। इसमें नवजात शर्करा को पचा नहीं पाता है। लक्षण हैं- दौरा आना, वजन नहीं बढ़ना, पीलिया, कम खाना। इसके इलाज के लिए मीट, दूध एवं दूध उत्पादों का प्रयोग बंद कर देना चाहिए।