सीताराम गुप्ता
कविवर रहीम का प्रसिद्ध दोहा है :-
यों ‘रहीम’ सुख होत है उपकारी के संग,
बांटनवारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग।
दूसरों की भलाई करने वाला उसी प्रकार से सुखी होता है जैसे दूसरों के हाथों पर मेहंदी लगाने वाले की उंगलियां ख़ुद भी मेहंदी के रंग में रंग जाती हैं। रंग ही नहीं जाती हैं अपितु सुवासित भी हो जाती हैं। जो इत्र बेचते हैं वे खुद उसकी सुगंध से महकते रहते हैं। जिस प्रकार से एक फूल बेचने वाले के कपड़ों और बदन से फूलों की सुगंध नहीं जा सकती उसी प्रकार से दूसरों की भलाई करने वाले व्यक्ति पर उसके द्वारा की गई भलाई का अच्छा प्रभाव भी उस पर अवश्य ही पड़ता है। ऐसे व्यक्ति का कभी अहित नहीं हो सकता।
प्रत्यक्ष रूप से ही नहीं परोक्ष रूप से भी इसका लाभ मिलता है। एक बुढ़िया बेहद कमज़ोर और बीमार थी। रहती भी अकेले ही थी। उसके कंधों में दर्द रहता था लेकिन वह खुद अपने हाथों से दवा लगाने में भी असमर्थ थी। कंधों पर दवा लगवाने के लिए लोगों से मिन्नतें करतीं। एक दिन बुढ़िया ने पास से गुजरने वाले युवक से कहा कि बेटा जरा मेरे कंधों पर ये दवा लगा दे। भगवान तेरा भला करेगा। युवक बोला अम्मा मेरे हाथों की उंगलियों में तो दर्द रहता है। मैं कैसे दवा लगाऊं?
बुढ़िया ने कहा कि बेटा बस इस डिबिया में से थोड़ी-सी मरहम अपनी उंगलियों से निकालकर मेरे कंधों पर फैला दे। युवक ने अनिच्छा से डिबिया में से थोड़ी-सी मरहम लेकर अपने एक हाथ की उंगलियों से बुढ़िया के दोनों कंधों पर लगा दी। दवा लगते ही बुढ़िया की बेचैनी कम होने लगी। बुढ़िया युवक को आशीर्वाद देने लगी। बेटा, भगवान तेरी उंगलियों को भी जल्दी ठीक कर दे। युवक अविश्वास से हंस दिया लेकिन उसने महसूस किया कि उंगलियों का दर्द भी गायब होता जा रहा है।
वास्तव में बुढ़िया को मरहम लगाने के बाद युवक की उंगलियों पर कुछ मरहम लगी रह गई थी। उसने दूसरे हाथ की उंगलियों से उसे पोंछने की कोशिश की तो मरहम उसके दूसरे हाथ की उंगलियों पर भी लग गई। यह उस मरहम का ही कमाल था जिससे युवक के दोनों हाथों की उंगलियों का दर्द गायब-सा होता जा रहा था। अब तो युवक सुबह, दोपहर और शाम तीनों वक्त बूढ़ी अम्मा के कंधों पर मरहम लगाता और उसकी सेवा करता। कुछ ही दिनों में बुढ़िया पूरी तरह से ठीक हो गई और साथ ही युवक के दोनों हाथों की उंगलियां भी दर्दमुक्त होकर ठीक से काम करने लगीं। निस्संदेह जो दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाता है उसके खुद के जख्म भरने में देर नहीं लगती।
‘दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाना’ अब इस मुहावरे को भी देख लीजिए। जरूरी नहीं जख्मों पर कोई दवा या मरहम ही लगाई जाए क्योंकि ये जख्म भीतरी भी हो सकते हैं। मनुष्य की पीड़ा भौतिक ही नहीं मानसिक भी हो सकती है। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने का अर्थ है किसी के दुखी मन को सांत्वना देकर उसकी मानसिक यंत्रणा अथवा पीड़ा को कम करना। आवश्यकता के अनुसार किसी को कोई आश्वासन देना। यदि कोई किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा से मुक्त करता है तो पीड़ित कोे बड़ी राहत मिलती है। वह पीड़ा को कम करने वाले या कष्ट को समाप्त करने वाले के प्रति कृतज्ञता से भर उठता है और आशीर्वाद या दुआएं देने लगता है।
कृतज्ञता की अवस्था कृतज्ञ को ही नहीं मदद करने वाले को भी अच्छी लगती है। जब कोई उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करता है। वह एकदम विनम्र होकर परमार्थ के भावों से भर उठता है। दुनिया के सभी लोग कष्टमुक्त हो जाएं, ऐसी मनोदशा व्यक्ति के लिए आरोग्य प्रदान करने वाली होती है। ऐसी भावावस्था में व्यक्ति के शरीर में स्थित अंतःस्रावी ग्रंथियों से लाभदायक हार्मोंस का उत्सर्जन प्रारंभ हो जाता है। जो उसे रोगों से बचाने तथा रोगग्रस्त होने पर शीघ्र रोगमुक्त करने में सहायक होते हैं।
किसी की मदद करने, कोई अच्छा काम करने अथवा निष्काम भाव से कोई समाजोपयोगी कार्य करने से समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ती है। जिससे व्यक्ति को असीम परितुष्टि की अनुभूति होती है। यही असीम परितुष्टि की अनुभूति व्यक्ति के शरीर में उपयोगी हार्मोन सेरोटोनिन अर्थात हैपी हार्मोन के स्तर को बढ़ा देती है जो उसके स्वास्थ्य और रोगमुक्ति के लिए बेहद उपयोगी होती है। ऐसी अवस्था व्यक्ति के दीर्घायु होने में भी सहायक होती है। दूसरों की मदद करके भी हम अपने लिए रोग-मुक्ति, अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घायु सुनिश्चित कर लेते हैं, इसमें संदेह नहीं।
गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :– जिनके मन में परहित जज्बा बना रहता है उनके लिए संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो उन्हें न मिल सके। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने वाला, सच्चे मन से लोगों की सेवा करने वाला आध्यात्मिक, अधिभौतिक व अधिदैविक तीनों प्रकार की व्याधियों से मुक्त होकर आनंदपूर्वक जीवन ही नहीं व्यतीत करता है। वह धर्म का भी सही अर्थों में पालन करता है।