सतगुरु माता सुदीक्षा
ब्रह्मज्ञानी का जीवन ऐसा हो जाना चाहिए कि जो भी उससे मिले, उसे मिलकर खुशी मिले। अगर हम किसी को मिलते हैं और उनसे अपशब्द या कड़वी बातें बोलते हैं तो वो व्यक्ति ज्यादा देर तक हमारे करीब नहीं रहेगा, लेकिन अगर हम मीठा बोलेंगे तो वो व्यक्ति शायद यही कहेगा कि आपसे मिलकर आनंद आया और अब मेरा पूरा दिन अच्छा निकलेगा।
जैसे अलग-अलग दिखने वाले फूल जब एक गुलदस्ते में साथ होते हैं तो बहुत ही सुन्दर लगते हैं। ऐसे ही अलग-अलग प्रांत और देश के लोग, चाहे वो महाराष्ट्र के हों, पंजाब के हों या राजस्थान के या फिर जर्मन या अफ्रीकन हों, सब में एक ही परमात्मा का अंश आत्मा है। जब हम सबमें परमात्मा का रूप देखेंगे तो सब सुन्दर नजर आएंगे, फिर किसी से नफरत नहीं होगी। हम सब परमात्मा के एक ही गुलदस्ते के अलग-अलग फूल हैं।
अगर इंसान अपने आस-पास संकीर्ण सोच की ऊंची दीवार बना ले, तो उसके पार नहीं देख पाएगा। केवल ब्रह्मज्ञान रूपी हथौड़े से ही उस दीवार को गिराकर संकीर्णता खत्म हो सकती है और विशालता जीवन में आ सकती है। कबीरदास जी ने भी अपने एक दोहे में यही बताया कि पेड़ में आग लगने पर अगर पक्षी कहे कि मैं अपना बचाव कैसे करूं तो यह विचित्र लगता है। उसे तो अपने पंखों का प्रयोग करके आग से मुक्ति मिल सकती है। ऐसे ही हर मानव के पास यह विकल्प है कि वो ब्रह्मज्ञान पाकर मुक्त हो सके। अमीर हो या गरीब, किसी भी जाति या सम्प्रदाय का मानव हो, वो ब्रह्मज्ञान की दात पा सकता है। मीराबाई जी और कबीरदास जी ने भी अपने सतगुरु से इस समझ को पाकर उत्तम अवस्था प्राप्त की। फिर वो एक रोशन मीनार बन गये, खुद भी रोशन हो गए और दूसरों को भी रास्ता दिखाते रहे।
सिकंदर बादशाह का भी उदाहरण हम बचपन से सुनते आये हैं कि उसने जीवन में कितनी ही ज़मीन-जायदाद प्राप्त कर ली, पर मौत के समय वह भी खाली हाथ ही गया। इसी तरह हर मनुष्य खाली हाथ ही आया और खाली हाथ ही जाएगा। लेकिन ब्रह्मज्ञानी खाली हाथ नहीं जाते, क्योंकि वे इस परमपिता परमात्मा की पहचान रूपी धन से मालोमाल हो जाते हैं।
इंसान अपने लालच की पूर्ति कभी नहीं कर पाता। स्कूल में दासी ने एक कहानी पढ़ी थी, जिसमें एक व्यक्ति को कहा गया कि सूर्य उदय होने से लेकर सूर्यास्त तक जितना भी समय है, उसमें जितनी जमीन पर वो चल पाएगा वो सारी जमीन उसकी हो जाएगी। लालच में चलता चलता वो अन्त में इतना तेज दौड़ा कि सूर्यास्त तक बेहोश होकर गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गयी। जमीन के जिस टुकड़े पर वो गिरा, वहीं उसे दफना दिया गया।
लेखक ने यही समझाने का प्रयास किया कि लालच का कोई अन्त नहीं होता। परमात्मा ने हमारी ज़रूरत के अनुसार बहुत कुछ दिया है, पर अगर हम लालच करते हैं, तो एक जंजाल में फंसकर रह जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि हम मेहनत या कर्म न करें। मेहनत अवश्य करनी है, लेकिन लालच और अहंकार को पीछे रखना है। हर कर्म इस निरंकार को समर्पित करके शुकराना करना है, शिकायत नहीं करनी। एक मोर नाचते हुए अपने पंख देखकर खुश भी हो सकता है और अपने भद्दे पैरों को देखकर शिकायत भी कर सकता है।
निरंकार कृपा करे कि जिन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो गयी है वे मुबारक हैं, पर ज्ञान की कद्र हमेशा बनाए हुए और निरंकार को अंग-संग याद रखते हुए अब हमने इस दात को घर-घर भी पहुंचाना है।
सिकंदर बादशाह का भी उदाहरण हम बचपन से सुनते आये हैं कि उसने जीवन में कितनी ही ज़मीन-जायदाद प्राप्त कर ली, पर मौत के समय वह भी खाली हाथ ही गया। इसी तरह हर मनुष्य खाली हाथ ही आया और खाली हाथ ही जाएगा। लेकिन ब्रह्मज्ञानी खाली हाथ नहीं जाते, क्योंकि वे इस परमपिता परमात्मा की पहचान रूपी धन से मालो माल हो जाते हैं।