केंद्र सरकार ने हाल ही में मेडिकल कॉलजों को हिदायत दी है कि डॉक्टर रोगी-परामर्श पर्चे पर जो दवाएं लिखकर दें, उनमें यदि कोई एंटीबायोटिक्स है तो उसको विशेष रूप से चिन्हित करें। वहीं दवा विक्रेताओं और दवाघरों को सलाह दी है कि चिकित्सक के लिखे बगैर कोई एंटीबायोटिक दवा न दी जाए। यह निर्देश देश में एंटी माइक्रोबियल रेज़िस्टेंस (एएमआर) बढ़ने के मद्देनज़र हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में एएमआर की रफ्तार असामान्य है और अब यह विश्वभर में एएमआर का गढ़ बन चुका है।
नेशनल सेंटर फॉर डिजीज़ कंट्रोल (एनसीडीसी) द्वारा 20 अस्पतालों में नवम्बर, 2021 से अप्रैल, 2022 के बीच करवाए अध्ययन में चिंताजनक आंकड़े मिले हैं। कुल 9600 से अधिक रोगियों पर अध्ययन हुआ, इनमें 72 फीसदी एक न एक एंटीबायोटिक दवा का सेवन कर रहे थे, तो बाकी के दो या इससे अधिक का। महत्वपूर्ण यह कि 55 प्रतिशत मरीजों को एंटीबायोटिक दवा बीमारी का इलाज करने के लिए नहीं अपितु संक्रमण से बचाने के लिए दी गई। यह डाटा देशभर में इलाज के मौजूदा चलन का नमूना पेश करता है। खांसी, जुकाम, गला पकड़ना और दस्त जैसी बीमारी कुछ दिनों में अपने-आप ठीक हो जाती है और अधिकांशतः इसके पीछे कारण होता है वायरल इंफेक्शन, इनके निदान को एंटीबायोटिक देने की जरूरत नहीं।
प्रयागराज (2013) और नासिक (2015) के कुम्भ के दौरान, मेला-क्लीनिक पहुंचने वाले 70000 से अधिक मरीजों पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिसेफ ने अध्ययन किया था। प्राप्त डाटा में, इलाज करवाने आए लोगों में लगभग एक-तिहाई को एंटीबायोटिक दवाएं दी गईं। प्रयागराज में कुल मरीजों में 70 फीसदी को सांस संबंधी लक्षण थे, जिनका इलाज एंटीबायोटिक से किया गया।
एएमआर गंभीरतम् वैश्विक स्वास्थ्य खतरों में एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि एएमआर–माइक्रोआर्गेनिज्म के तंतुओं में होने वाला वह क्रमिक विकासानुगत बदलाव, जिस पर परंपरागत एंटीबायोटिक बेअसर सिद्ध हो रहे हैं– एक वैश्विक जनस्वास्थ्य खतरा बन सकता है। रोग-जीवाणुओं में पैदा हुई इस किस्म की प्रतिरोधक क्षमता से वर्ष 2019 में भारत में कम से कम 3 लाख तो दुनियाभर में लगभग 12.7 लाख मौतें हुईं। वर्ष 2050 तक यह संख्या 5 करोड़ तक पहुंचने की आशंका है। आवाजाही के साधनों में आसानी की वजह से सारी दुनिया सिमटकर रह गई है, लेकिन लोगों के साथ, उनके अंदर मौजूद सूक्ष्म रोग जीवाणु, जिन पर दवाएं असर न कर पा रही, वे भी एक महाद्वीप से दूसरे तक तेजी से फैल रही हैं, जैसा कि कोविड-19 महामारी के मामले में देखा गया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एंटीबायोटिक दवाओं को तीन श्रेणियों में बांट रखा है, एक्सेस, वॉच और रिज़र्व। इनमें बाद वाले दो वर्ग के एंटीबायोटिक विशिष्ट लक्षण बनने पर ही दिए जाते हैं। एक्सेस वर्ग के एंटीबायोटिक, किन्हीं जीवाणुओं को विशेष रूप से निशाना बनाने वाले सम्मिश्रण से बने हैं और इनके प्रयोग से एएमआर बनने की संभावना कम होती है, रोगोपचार में यह प्रथम पंक्ति के एंटीबायोटिक हैं। एनसीडीसी सर्वे बताता है कि भारत में डॉक्टरों द्वारा लिखी गई 60 फीसदी एंटीबायोटिक दवाएं वॉच या फिर रिजर्व श्रेणी की होती हैं। एंटीबायोटिक अधिक देने से जीवाणुओं के अंदर प्रतिरोधक क्षमता पैदा होती है। इससे संक्रमण के अगले रूपांतरों पर दवाएं बेअसर हो जाएंगी।
ड्रग एंड कॉस्मैटिक रूल्स 1945 के मुताबिक एंटीबायोटिक शिड्यूल एच/एच 1 श्रेणी में आते हैं। अतएव इनकी बिक्री केवल पंजीकृत स्वास्थ्य चिकित्सक की रोग-परामर्श पर्ची के आधार पर हो सकती है। तथापि भारत में दवा विक्रेता अक्सर अपने तौर पर एंटीबायोटिक दवाएं दे देते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2015 में एक वैश्विक कार्य योजना बनाई थी और भारत ने 2017 में एंटीमाइक्रोबियल सर्विलांस प्रोग्राम के साथ इसका अनुसरण किया। विश्व स्वास्थ्य संगठन की हिदायतें हैं कि उच्चतर श्रेणी के एंटीबायोटिक का प्रयोग संक्रमण रोग विशेषज्ञों के विवेकानुसार होना चाहिए। लेकिन भारत में इस किस्म के प्रशिक्षित स्वास्थ्य सेवाकर्मी बहुत कम हैं।
एंटीबायोटिक के अंधाधुंध इस्तेमाल से एएमआर बनने का जोखिम केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं है। विभिन्न कारणों से पशुओं-पक्षियों को भी एंटीबायोटिक अक्सर दिए जाते हैं। इसलिए कोई हैरानी नहीं कि दूध, अंडे और मछली के बैक्टीरियल कल्चर टेस्ट में दवा-प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर चुके जीवाणु पाए जाते हैं। विभिन्न जल स्रोतों के सैम्पल में भी यही कुछ हो रहा है, वहां ऐसे जीवाणुओं की आमद दवा-उद्योग, अस्पताल से निकलने वाले पानी, सीवरेज और घरेलू अपशिष्ट से होती है। खुले में शौच एक अन्य कारक है, क्योंकि मल-मूत्र के जरिए शरीर से निकली एंटीबायोटेक दवा भूमि में समाकर भूजल में जा मिलती है। इस संदूषित जल को मनुष्य और पशु पुनः पीते हैं। और इस तरह एंटीबायोटिक से अप्रभावित रहने वाला जीवाणु जोखिम का एक सतत चक्र बना रहा है।
हालांकि जिन अस्पतालों में एंटीबायोटिक को लेकर अध्ययन हुआ, पाया गया कि एंटीबायोटिक के उपयोग में कमी आई है, किंतु छोटे और ग्रामीण इलाके में स्थिति बदतर है। प्रशिक्षित कर्मियों और गुणवत्तापूर्ण परीक्षणशालाओं की कमी है। झोला-छाप और अर्ध-प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी इस काम में सबसे आगे हैं। इतना ही नहीं गैर-एलोपैथिक चिकित्सक भी एंटीबायोटिक दवाएं लिख दे रहे हैं।
एएमआर का दुष्परिणाम दूरगामी हो सकता है– अधिक समय तक अस्पताल में भरती रहना, इलाज खर्च में इजाफा और अस्पताल जनित अन्य खतरनाक संक्रमण लगने का जोखिम। कुछ साल पहले, ड्रग रेज़िस्टेंट बैक्टीरियम को ‘दिल्ली सुपरबग’ का नाम दिया गया था। यह क्रमिक विकास से पैदा हुआ वह जीवाणु है, जिस पर अधिकांश एंटीबायोटिक्स बेअसर हो चुके हैं। एंटीबायोटिक से शरीर में न केवल बीमारी पैदा करने वाले सूक्ष्म-जैविकी खत्म होते हैं बल्कि हमारी आंतों में पलने वाले और माइक्रोबायोम बनाने वाले मित्र-जीवाणु भी। माइक्रोबायोम में आया बदलाव आंतों की सुरक्षात्मक झिल्ली को क्षतिग्रस्त कर देता है और इससे अब ऑटो-इम्यून, इंफलैमिट्री बाउल डिजीज़ेस, न्यूरोलॉजिकल और डीजनरेटिव रोग में अनाप-शनाप इजाफा हो रहा है।
‘वन-हैल्थ’ परिकल्पना से- जिसके तहत मनुष्य, जीव और पर्यावरण पैमानों में अंतर-निर्भरता बनाना है- एएमआर को नियंत्रित किया जा सकता है। विभिन्न आबादियों में एएमआर के अलावा ड्रग रेज़िस्टेंस के बदलते पैटर्न पर बारीक नज़र रखने की जरूरत है। जल-आपूर्ति स्रोत, अस्पताल और औद्योगिक अपशिष्ट की भी समय-समय पर जांच-परीक्षण करते रहना आवश्यक है।
मीडिया के जरिए जनसाधारण को जागरूक करने की जरूरत है। अधिक महत्वपूर्ण है, क्लीनिक और छोटे अस्पताल चलाने वाले डॉक्टरों को नई जानकारी से लैस करना। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद को ऐसी निर्देशावली बनानी चाहिए, जिसमें यह स्पष्ट हो कि किन लक्षणों के आधार पर कौन-सा एंटीबायोटिक देना है, और यह दस्तावेज देशभर में पहुंचाया जाए। एंटीबायोटिक उपयोग संहिता का प्रसार करने में भारतीय मेडिकल एसोसिएशन के बृहद नेटवर्क का इस्तेमाल हो सकता है। जन-जागरूकता अभियान, स्वास्थ्य सेवा कर्मी प्रशिक्षण, माइक्रोबियल सर्विलांस, नवीन दिशा-निर्देश और नियमों की सख्त पालना करवाने जैसे उपाय तुरंत लागू की जरूरत है।
लेखक इंडियन सोसायटी फॉर गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी के पूर्व-अध्यक्ष हैं।