चेतनादित्य आलोक
साधु-संत, सिद्ध, महात्मा, विद्वत्जन, मनीषी एवं ऋषि-मुनिगण भारतीय संस्कृति के आधार स्तंभ रहे हैं। इसीलिए प्रायः भारतीय संस्कृति को गढ़ने तथा मढ़ने का श्रेय इन महापुरुषों एवं युगनायकों को दिया जाता है। ऐसे ही एक महान ऋषि याज्ञवल्क्य हुए, जो भारतीय ऋषि परंपरा में अग्रणी रहे हैं। ये ब्रह्मज्ञानी होने के साथ-साथ महान आध्यात्मिक वक्ता, योगी और मंत्रद्रष्टा भी थे। बृहदारण्यकोपनिषद के अनुसार ऋषि याज्ञवल्क्य कुरु पांचाल प्रदेश के निवासी थे। इनका जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि को होने के कारण प्रत्येक वर्ष इस तिथि को इनकी जयंती बड़ी ही श्रद्धा और भक्ति-भाव से मनाई जाती है। इस अवसर पर संपूर्ण भारतवर्ष में प्रार्थना, पूजा एवं सभाओं का आयोजन करके ऋषि श्रेष्ठ द्वारा रचित ग्रंथों का पाठ किया जाता है। साथ ही लोग इनके उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते और स्वयं ही अपना मार्गदर्शन करते हैं। इस बार ऋषि याज्ञवल्क्य की जयंती 29 फरवरी को मनाई जाएगी।
ब्रह्मा जी का अवतार होने के कारण ये ब्रह्मर्षि कहलाए। वहीं श्रीमद्भागवत पुराण में इन्हें देवरात का पुत्र बताया गया है। इनके अतिरिक्त इन्हें ‘योगीश्वर याज्ञवल्क्य’ के रूप में भी जाना जाता है। वैदिक मंत्रद्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्यों में ऋषि याज्ञवल्क्य का प्रमुख स्थान रहा है। महर्षि वैशम्पायन से इन्होंने यजुर्वेद संहिता एवं वाष्कल मुनि से ऋग्वेद संहिता का ज्ञान अर्जित किया था। महर्षि वैशम्पायन शिष्य याज्ञवल्क्य से बहुत स्नेह रखते थे और इनकी भी गुरु में अनन्य श्रद्धा एवं सेवा-निष्ठा थी, किंतु एक बार गुरु से इनका कुछ विवाद हो गया, जिससे गुरु ने रुष्ट होकर कह दिया कि उन्होंने इन्हें (ऋषि याज्ञवल्क्य को) यजुर्वेद के जिन मंत्रों का उपदेश दिया है, उन्हें ये उगल दें। तत्पश्चात् गुरु की आज्ञा मानकर दुखी और निराश याज्ञवल्क्य ने सारी वेदमंत्र विद्या मूर्तरूप में उगल दी, जिन्हें महर्षि वैशम्पायन के अन्य शिष्यों ने ‘तित्तिर’ यानी तीतर पक्षी का रूप धारण कर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लिया।
इस प्रकार महर्षि वैशम्पायन के अन्य शिष्यों द्वारा तीतर बनकर ग्रहण की गई वेदमंत्र विद्या बाद में यजुर्वेद की ‘तैत्तिरीय शाखा’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान से रहित हो जाने के बाद ऋषि याज्ञवल्क्य ने सूर्यदेव की उपासना कर उनके समक्ष पुनः ज्ञान प्राप्ति की अपनी इच्छा प्रकट की। विष्णु पुराण के अनुसार इन्होंने सूर्यदेव की प्रत्यक्ष कृपा से यजुर्वेद के गूढ़ मंत्रों का ज्ञान अर्जित किया। सूर्यदेव के वरदान से ऋषि याज्ञवल्क्य ‘शुक्ल यजुर्वेद’ या ‘वाजसनेयी संहिता’ के आचार्य बने और इस प्रकार इनका एक नाम ‘वाजसनेय’ भी हुआ। यही नहीं, दिन के मध्यकाल में ज्ञान की प्राप्ति होने के कारण ‘माध्यन्दिन शाखा’ का उदय हुआ एवं ‘शुक्ल यजुर्वेद संहिता’ के मुख्य मंत्रद्रष्टा ऋषि याज्ञवल्क्य हुए। तात्पर्य यह कि शुक्ल यजुर्वेद हमें ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा ही प्राप्त हुआ। इस संहिता में कुल चालीस अध्याय हैं। आज प्रायः अधिकांश लोग वेद की इसी शाखा से सम्बद्ध हैं और सभी पूजा अनुष्ठानों, संस्कारों आदि में इसी संहिता के मंत्र उपयोग में लाए जाते हैं।
इनके अतिरिक्त ‘शुक्ल यजुर्वेद संहिता’ में ऋषि याज्ञवल्क्य ने ‘रुद्राष्टाध्यायी’ नामक उन मंत्रों का भी समायोजन किया है, जिनके द्वारा भगवान रुद्र यानी भोलेनाथ शिवशंकर की उपासना की जाती है। यही नहीं, इस संहिता का जो ब्राह्मण भाग है, वह ‘शतपथ ब्राह्मण’ के नाम से लोकप्रिय है। इनके अतिरिक्त ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ भी ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा ही हमें प्राप्त हुआ है। साथ ही गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी आदि ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं तथा विदूषी नारियों से जो इनका ज्ञान-विज्ञान एवं ब्रह्मतत्व से सम्बंधित शास्त्रार्थ हुआ था, वह भी अत्यंत ही प्रसिद्ध है। ऋषि याज्ञवल्क्य विदेहराज जनक के सलाहकार एवं गुरु भी थे। कहते हैं कि इन्होंने प्रयाग में भारद्वाज मुनि को श्रीरामचरित मानस सुनाया था। गौरतलब है कि इन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण धर्मशास्त्र का प्रणयन भी किया था, जो ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ के नाम से जगत् प्रसिद्ध हुआ। इस ग्रंथ पर आधृत ‘मिताक्षरा’ आदि संस्कृत टीकाएं भी उपलब्ध हैं। बता दें कि सनातन धर्मावलंबियों के बीच में ‘मनुस्मृति’ के पश्चात् ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
आध्यात्मिक जगत् में इन प्रमुख ग्रंथों के कारण ऋषि याज्ञवल्क्य की महानता और इनके ज्ञान की अलौकिकता प्रतिष्ठित हुई। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में इनके विज्ञ का सहज बोध होता है। महर्षि वैशम्पायन एवं शाकटायन आदि की परंपरा के ऋषि याज्ञवल्क्य अत्यंत तेजस्वी व्यक्तित्व वाले दार्शनिक थे। इस प्रकार देखा जाए तो ऋषि याज्ञवल्क्य ने भारत और हम भारतीयों के ऊपर महान् उपकार किया है। जाहिर है कि लोकसंत बाबा तुलसीदास ने ‘जागबलिकमुनि परम विवेकी’ कहकर इनको उचित सम्मान प्रदान किया है। बृहदारण्यकोपनिषद के अनुसार ऋषि याज्ञवल्क्य की देवी मैत्रेयी तथा कात्यायनी नामक दो पत्नियां थीं। देवी मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी और जिज्ञासु थीं। उनका यह वाक्य आज भी दार्शनिकों के लिए प्रेरणादायी है- ‘येनाहं नामृता स्याम किमहं तेन कुर्याम्।’ अर्थात् जिससे मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर मैं क्या करूंगी? उल्लेखनीय है कि यह बात ऋषिका मैत्रेयी ने ऋषि याज्ञवल्क्य के साथ शास्त्रार्थ के दौरान इस कथन के प्रत्युŸार में कही थी- ‘अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन।’ अर्थात् वित्त से अमरत्व को नहीं प्राप्त किया जा सकता।