विवेक शुक्ला
दिल्ली से हज़ारों मील दूर मुगल बादशाह शाहजहां के निमंत्रण पर उज्बेकिस्तान के बुखारा शहर से एक इस्लामिक धर्मगुरु सैयद अब्दुल गफूर शाह बुखारी आए और जामा मस्जिद के इमाम की बागडोर संभाली। उन्होंने 25 जुलाई, 1656 को यहां ईद की नमाज का नेतृत्व किया। बीते रविवार को उनके वंशज और नोएडा की एमेटी यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट रहे सैयद शाबान बुखारी की दस्तारबंदी के संपन्न होने के साथ ही वे जामा मस्जिद के शाही इमाम बन गए। इस तरह वे जामा मस्जिद के 14वें इमाम बन गए हैं। हालांकि, सैयद अहमद बुखारी भी शाही इमाम के पद पर बने रहेंगे। अब चूंकि माहे रमजान के पवित्र माह को कुछ ही समय शेष है, इसलिए माना जा सकता है कि सैयद शाबान बुखारी जामा मस्जिद में अपने पिता की गैर-मौजूदगी में नमाज की अगुवाई किया करेंगे।
उत्तराधिकार संबंधी किसी भी अप्रिय विवाद से बचने के लिए जामा मस्जिद के इमाम अपने जीवनकाल में ही अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर देते हैं। मौजूदा इमाम सैयद अहमद बुखारी को वर्ष 2000 में नायब इमाम घोषित किया गया था जब उनके पिता सैयद अब्दुल्ला बुखारी गंभीर रूप से अस्वस्थ थे।
मुगलकाल में जामा मस्जिद के शाही इमाम के दो प्रमुख काम थे- मुगल सम्राटों का राज्याभिषेक करवाना और जामा मस्जिद में नमाज के सुचारु संचालन को देखना। जामा मस्जिद के पहले इमाम सैयद गफूर बुखारी ने बादशाह औरंगजेब का राज्याभिषेक किया था। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर का राज्याभिषेक 30 सितंबर, 1837 को जामा मस्जिद के आठवें इमाम मीर अहमद अली शाह बुखारी की सरपरस्ती में हुआ था। खैर, अब राजशाही तो खत्म हो गई है इसलिए जामा मस्जिद के इमाम का मुख्य काम तो नमाज अता करवाना ही रह गया है। इस बीच, एक सवाल जो कई लोग पूछ रहे हैं : क्या 29 साल के सैयद शाबान बुखारी अपने पिता और दादा के नक्शे कदम पर चलेंगे या विवादों से दूर रहेंगे? इमाम सैयद अहमद बुखारी और उनके पिता इमाम सैयद अब्दुल्ला बुखारी जाने-अनजाने विवादास्पद बयानबाजी करते रहे हैं। ये कुछ राजनीतिक दलों के पक्ष में भी खड़े होते रहे हैं। जहां तक सैयद अहमद बुखारी का सवाल है, शायद उन्होंने पहली बार विवाद तब खड़ा किया था जब उन्होंने 21 अक्तूबर, 2001 को बरखा दत्त के शो ‘वी द पीपल’ के दौरान शबाना आज़मी के लिए आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया था।
उन्होंने 2014 में सैयद शाबान बुखारी को नायब इमाम बनाए जाने के मौक पर हुए एक कार्यक्रम में पाकिस्तान के तब के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित किया था। और उसी वर्ष, उन्होंने नवाज़ शरीफ़ को पत्र लिखकर जम्मू-कश्मीर के हुर्रियत नेताओं को युद्धविराम के लिए सहमत होने और बातचीत के माध्यम से कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए मनाने का आग्रह किया था। यह आश्चर्य की बात थी कि वह भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दोनों बार भूल गए थे। दिल्ली के प्रसिद्ध इतिहासकार आर.वी. स्मिथ कहते थे सैयद शाबान बुखारी के परदादा, ‘इमाम अब्दुल हामिद बुखारी को तब तक एक गैर-विवादास्पद इमाम माना जाता था जब तक कि उनका नेताजी सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के जनरल शाहनवाज खान के साथ बड़ा पंगा नहीं हो गया था। जनरल शाहनवाज खान ने जामा मस्जिद में नए इमाम की नियुक्ति में परिवारवाद के रोल पर सवाल खड़े किए थे।’ गौरतलब है कि जनरल शाहनवाज खान बॉलीवुड सुपरस्टार शाहरुख खान के करीबी रिश्तेदार थे। अपने जोशीले भाषण देने वाले इमाम अब्दुल हामिद बुखारी इमरजेंसी के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी का खुलकर विरोध कर रहे थे। वे मुसलमानों से जुड़े सामाजिक और आर्थिक मुद्दों में गहरी दिलचस्पी लेते थे।
कुछ लोग यह भी पूछ रहे हैं : जामा मस्जिद में वंशानुगत प्रथा क्यों चल रही है जो इमाम को अपने रिश्तेदारों को मस्जिद के अगले इमाम के रूप में नियुक्त करने की अनुमति देती है? ‘यह बिल्कुल उचित प्रथा है कि जामा मस्जिद के इमाम अपने परिवार के सदस्य को अगले इमाम के रूप में नियुक्त करते हैं। इस प्रथा में कुछ भी गलत नहीं है। ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। जो लोग इस स्थापित प्रथा पर सवाल उठाते हैं, उनके मन में इस समृद्ध परंपरा के प्रति कोई सम्मान नहीं है,’ अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष मौलाना उमेर इलियासी कहते हैं। जामा मस्जिद में ही कांग्रेस के कद्दावर नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने 23 अक्तूबर, 1947 को मुसलमानों का आह्वान किया था कि वे पाकिस्तान जाने का इरादा छोड़ दें। वे भारत में ही रहें। उन्हें किसी बात की फिक्र करने की कोई वजह नहीं है। भारत उनका है। मौलाना आजाद की तकरीर के बाद दिल्ली के सैकड़ों मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने के अपने इरादे को छोड़ दिया था। आर्य समाज के नेता और समाज सुधारक स्वामी श्रद्धानन्द ने जामा मस्जिद से ही हिन्दू-मुसलमानों में भाईचारे पर अपना प्रखर वक्तव्य 4 अप्रैल, 1922 को दिया था।
हिन्दुस्तान के मुसलमान जामा मस्जिद को भावनात्मक रूप से भी जोड़कर देखते हैं। ये जब बनी तब मुगलकाल का स्वर्णकाल था। जामा मस्जिद के बाद देशभर में कई मस्जिदें इसके डिजाइन को ध्यान में रखकर बनीं। अलीगढ़ में एएमयू कैंपस में बनी मस्जिद देखने में दिल्ली की जामा मस्जिद से बिलकुल मिलती-जुलती है। बहरहाल, जामा मस्जिद को नए शाही इमाम के मिलने के साथ ही यह उम्मीद जरूर पैदा हो गई कि यहां से भाईचारे और सौहार्द का संदेश सारे देश में जाया करेगा।