सहीराम
आपको वफादारी परखनी है तो इस कसौटी पर परखकर देखिए। यूं वफादारी की जरूरत किसको पड़ती है जी? बेचारे आम आदमी को वफादारी की क्या जरूरत? उसे कौन-सी गद्दी चाहिए। रिश्तेदारों और दोस्तों के भरोसे जिंदगी कट जाती है। उनमें भी कभी कोई नाराज हो गया, कोई रूठ गया तो मना लिया और क्या। रही-सही कसर चुगलखोर पूरी कर देते हैं, जो घर-गांव सब जगह पाए ही जाते हैं। वे न तो वफादारी की कमी रहने देते हैं और न गद्दारी की। अलबत्ता कभी डाकुओं में वफादारी जरूर परखी जाती थी कि देखें सरदार का वफादार कौन है। कहीं कोई गद्दार न निकल जाए। गिरोह का ही सफाया न करा दे।
फिर भाई लोग परखने लगे कि मेरी गैंग में वफादार कौन है और गद्दार कौन। कहीं कोई मुझे ही न टपका दे। वफादारियां परखने के उनके अपने तरीके थे। बताते हैं कि डाकुओं के गिरोह में या भाई लोगों के गैंग में वफादारी साबित करने के लिए कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ता था। वैसे गुजरे जमाने में राजाओं और बादशाहों के दरबारों में वफादारों और गद्दारों की परख चलती रहती थी। राजाओं और बादशाहों का इतिहास बताता है कि वहां वफादारियां कम और गद्दारियां ज्यादा थीं। ऐसी गद्दारियों के किस्से कम नहीं हैं। आपने सुने ही होंगे।
बहरहाल, अब दिक्कत हमारे नए राजाओं तथा बादशाहों यानी पार्टी हाईकमानों के लिए हो गयी है कि वे अपने विधायकों या सांसदों की वफादारियां कैसे परखें। अब यह कोई दूध-घी तो होता नहीं कि कोई यंत्र लगाकर देख लो कि असली या नकली। खुद सरकारों ने असली-नकली की परख की व्यवस्था कर रखी है। इसके बावजूद बाजार में मिलावटी चीजें ही ज्यादा मिलती हैं। यहां तक कि ब्रांड भी नकली मिलते हैं। लेकिन पार्टी हाईकमान कैसे परखे कि मेरा फलां विधायक या सांसद या काउंसलर वफादार है। ऐसे में इसे खुशखबरी की तरह ही लिया जाना चाहिए कि जब राज्यसभा चुनाव हों तो कम से कम विधायकों की वफादारी तो जरूर ही परखी जा सकती है। बस इतना ही देखना होता है कि आपका विधायक कहां वोट कर रहा है- पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार को या क्रॉस वोटिंग कर रहा है या फिर एबस्टेन।
वैसे भी राज्यसभा के चुनाव के लिए पांच साल तो इंतजार करना नहीं पड़ता। हर दो साल में एक-तिहाई सीटों के लिए चुनाव होता ही है। कई बार एक-आध सीट के लिए बीच में भी चुनाव हो जाता है। तो वफादारियों और गद्दारियों की निरंतर पहचान चलती रहती है। अच्छी बात यही है कि क्रॉस वोटिंग करने वालों को या एबस्टेन करने वालों को गद्दार कोई नहीं मानता। गद्दारी दरबारों की अवधारणा थी। लोकतंत्र की नहीं।