सभी धर्मों के अधिकतर अनुष्ठानों का धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी होता है। रमज़ान का भी स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ा महत्व है, सारे दिन में दो भोजन के मध्य 12 से 14 घंटे का अंतराल शरीर की कैलोरी बर्न करता है, शरीर डिटॉक्स करता है और हम अनेक बीमारियों से बचते हैं।
बुशरा तबस्सुम
शाबान महीने की उनतीसवीं तारीख को चांद दिखने के साथ ही रमज़ान महीने का आगाज़ हो गया, रमज़ान जो कि हिजरी सन के नौवें महीने को कहा जाता है इस्लामिक वर्ष चंद्र कालदर्शक है जो 354 या 355 दिन का होता है, पूरे विश्व में मुस्लिमों द्वारा इसके अनुसार हो पर्व मनाए जाते हैं।यह सूर्य कालदर्शक से लगभग ग्यारह दिन कम होता है। अत: हर वर्ष माहे रमज़ान दस दिन पूर्व ही आरंभ हो जाता है। यह पूर्ण रूप से इबादत का महीना है। जिसमें सुबह सूर्य उदय होने से पूर्व कुछ खा पीकर पूरे दिन भूखे प्यासे रहते हैं। सांध्य काल में सूर्य अस्त होते ही खजूर या किसी अन्य वस्तु से रोज़ा इफ्तार कर लिया जाता है।
फलों की चाट, पकौड़ी, दही फुल्की आदि लगभग हर दस्तरख़्वान पर दिखाई दे जाती हैं, यदि देखा-समझा जाए तो सभी धर्मों के अधिकतर अनुष्ठानों का धार्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी होता है। रमज़ान का भी स्वास्थ्य की दृष्टि से बड़ा महत्व है, सारे दिन में दो भोजन के मध्य 12 से 14 घंटे का अंतराल शरीर की कैलोरी बर्न करता है, शरीर डिटॉक्स करता है और हम अनेक बीमारियों से बचते हैं। शाम के भोजन के बाद की लंबी नमाज (तरावीह) एक प्रकार का व्यायाम ही है जो उस भोजन के पाचन के लिए अति-आवश्यक है। पंरतु देखा यह गया है कि अधिकतर लोग सहरी में भी गरिष्ठ भोजन का सेवन करते हैं कि पूरे दिन भूखे रहना है तथा इफ़्तार में भी तला-भुना खा लेते हैं। इस प्रकार वह इस लाभदायक प्रयोजन को हानिकारक बना देते हैं।
ग़ौरतलब है कि पूरे दिन भूखे रहने को ही रोज़ा नहीं कहा जाता। बेहतर यह है कि अधिक से अधिक तिलावत व नमाज़ आदि की पाबंदी रहे ताकि बुराइयों से बचा जा सके, इसका अर्थ यह कतई नहीं कि हम अपने कारोबार अपनी नौकरी या अपने दैनिक कार्यों से गाफिल रहे।
रोज़ा फ़र्ज़ है, अर्थात लाज़िमी, 15 वर्ष की आयु हो जाने पर हर मुसलमान को रोजा रखना अनिवार्य है। हां कुछ विषयों में छूट है, यदि कोई ऐसी बीमारी है जिसकी दवा न लेने या भूखे रहने से जान का खतरा है तो रोज़े में छूट है, इसके अतिरिक्त गर्भवती महिला, स्तनपान कराने वाली महिला या मासिक धर्म के दौरान भी रोज़ा छोड़ सकते हैं। परंतु इसके लिए आदेश है कि सहूलियत होने पर किसी भी माह रोज़े रखे लिए जाएं, अथवा रोज़ों का फिदिया (किसी धार्मिक कार्य के छूट जाने पर उसके बदले किया जाने वाला दान) दे दिया जाए, जहां एक ओर रमज़ान, इन्द्रियों पर संयम रखना सिखाता है, निर्धनों की भांति अल्प संसाधनों से गुज़ारा करना बताता है वहीं इसमें किए जाने वाले दान (जकात, सदका आदि) द्वारा गरीबों के प्रति संवेदना को पुष्ट भी करता है।
ज़कात का अर्थ पूरे साल की जमापूंजी का ढाई प्रतिशत दान करना, जो कि सभी मोमिनों के लिए आवश्यक है। साल भर की कमाई के बाद आपने जो बचाया है उसकी ज़कात देनी होगी। महिलाओं के लिए भी उनके ज़ेवर आदि की ज़कात देना आवश्यक है। ईद से पूर्व दिए जाना जाने वाला फितरा भी इसकी ही एक कड़ी है, फितरा देकर हम निर्धनों की ईद मनाने का प्रबंध कर पाते हैं, फितरा सभी बालिगों पर लाज़िम है, उसे स्वयं पर निर्भर व्यक्ति अर्थात बच्चों व माता-पिता का भी सदका-ए-फित्र देना होगा। पौने दो किलो गेहूं की कीमत के बराबर एक फितरा दिया जाता है। तो परिवार में जितने सदस्य हैं प्रत्येक सदस्य के हिसाब से उतनी रकम देनी होगी। यह दान ईद की नमाज़ से पूर्व दे देनी चाहिए। ताकि निर्धन भी ईद के लिए अपनी जरूरत का सामना एकत्रित कर सकें। इस माह में पूरी तरह इबादत में मशगूल रहने वाले लोगों का संयम के साथ-साथ सामाजिक सौहार्द भी बढ़ जाता है, इफ्तार पार्टी व इफ्तार का लेनदेन पास पड़ोस में एकता कायम करता है। रमजान की शुभकामनाओं के साथ सभी मुस्लिम साथियों से आह्वान है कि इस माह की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अपनी इबादतों में रंग भरें, रमजान के सभी महत्व का विश्लेषण करें उसी अनुरूप सभी कार्य करें रोजे रखें, परंतु बुराइयाें से भी परहेज़ करें। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अच्छा आचरण केवल किसी विशेष मास में ही अपेक्षित नहीं है, ऐसा न हो कि साल-भर गुनाह करके आशा की जाए कि एक महीने की इबादत से सब माफ हो जाएगा, स्वास्थ्य संबंधी लाभ लेना है तो आहार अधिक गरिष्ठ न हो। आस-पड़ोस का विशेष ख़्याल हो कोई अपनी भूख को इबादत का मुलम्मा चढ़ाकर उसे रोज़ा न कहें।