एक धनिक भक्त ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस के चरणों में रुपयों से भरी थैली समर्पित की और बोला, ‘महाराज इन्हें आप सेवा कार्यों में लगाकर मुझे अनुगृहीत करें।’ स्वामी रामकृष्ण ने कहा, ‘आप इस थैली को ले जाइए तथा स्वयं गरीबों की सेवा-सहायता पर रुपये खर्च कर पुण्य के भागी बनें। मुझे संन्यासी को माया के जंजाल में कदापि न फंसाएं।’ भक्त ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘महाराज, आप तो महान विरक्त संत हैं। संत का मन तो तेल की बूंद के समान संसार रूपी समुद्र में भी हमेशा अलग ही रहता है।’ स्वामीजी ने उत्तर दिया, ‘वत्स, शुद्ध तेल भी ज्यादा समय तक पानी के संपर्क से दूषित होकर सड़ने लगता है। इसलिए संन्यासी का धन व संपत्ति से दूर रहने में ही कल्याण है।’ भक्त ने थैली उठाई तथा रुपये एक अनाथ आश्रम को भेंट कर दिए।
प्रस्तुति : मुकेश शर्मा