विश्वनाथ सचदेव
गुजराती के प्रतिष्ठित कवि हैं वे। उस दिन टेलीफोन पर क्रिकेट मैच देखते हुए अचानक बोले, ‘हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते हैं?’ क्या नहीं कर सकते हैं हम, जब उनसे यह पूछा तो उन्होंने कहा, ‘वही, जो क्रिकेट के दर्शक कर रहे हैं।’ फिर उन्होंने जैसे समझाते हुए कहा था, ‘हार्दिक गुजरात से खेलता था, वह पाला बदलकर मुंबई की टीम का कप्तान बन गया है। दर्शक इस पलटूराम को स्वीकार नहीं कर रहे, इसलिए उसके खिलाफ नारेबाजी कर रहे हैं। हम अपने राजनेताओं के साथ ऐसा क्यों नहीं कर सकते? हमें भी उनका बहिष्कार कर देना चाहिए।’ और फिर हम हंस दिये थे।
यह सवाल सिर्फ हंसने वाला नहीं था। चुनाव का मौसम चल रहा है। आये दिन नेताओं के पाला बदलने की खबरें आ रही हैं। फलाना नेता फलाना दल छोड़कर फलाने दल में चला गया है, फलाना नेता घर-वापसी कर गया है, फलाने नेता ने कल रात दल न बदलने की कसम खायी थी, आज सवेरे वह फिर दल बदलू बन गया है, अखबारों में इस तरह के शीर्षक आम बात हो गये हैं। टी.वी. चैनलों पर चटकारे ले-लेकर इस आशय की खबरों को सुनाया-दिखाया जा रहा है। न दल बदलुओं को अपनी कथनी-करनी पर शर्म आ रही है और न ही राजनीतिक दलों को कोई संकोच हो रहा है उनका स्वागत करने में जिन्हें कल तक वह भ्रष्टाचारी, बेईमान, धोखेबाज जैसे विशेषणों से नवाज़ा करते थे। मेरा गुजराती कवि मित्र ऐसे ही लोगों की बात कर रहा था… पर कौन सुन रहा है उसकी बात?
लेकिन इस आवाज़ को सुना जाना ज़रूरी है। खास तौर पर जनतांत्रिक व्यवस्था में जहां मतदाता उम्मीदवार की नीतियों, बातों पर भरोसा करके उसे अपना प्रतिनिधि चुनता है। ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों का कोई अधिकार नहीं बनता कि वे अपने मतदाता के साथ इस तरह की धोखेबाजी करें।
हां, ऐसे दलबदलुओं को धोखेबाज ही कहा जा सकता है जिनके लिए येन-केन प्रकारेण सत्ता में हिस्सेदारी करना ही राजनीति का उद्देश्य है। दुर्भाग्य यह है कि इस धोखेबाजी को हमारी राजनीति में ही नहीं, हमारे जीवन में भी स्वीकार कर लिया गया है! जनता की, जनता के लिए, और जनता द्वारा चुनी गयी सरकार वाली व्यवस्था में यह मानकर चला जाता है कि चुने हुए प्रतिनिधि कुछ नीतियों-कार्यक्रमों के आधार पर जनता के हित में काम करेंगे। मतदाता भी कुछ घोषित नीतियों और आश्वासनों के आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनते हैं और यह मानकर चला जाता है कि सत्ता में होने के अपने कार्य-काल में चुने हुए नेता और राजनीतिक दलगत उन नीतियों और आश्वासनों के अनुरूप कार्य करेंगे। दलगत राजनीति वाली जनतांत्रिक व्यवस्था में कुछ नीतियों के आधार पर दलों का गठन होता है और यह अपेक्षा होती है कि राजनीतिक दल अपनी घोषित नीतियों के प्रति ईमानदार रहेंगे। पर अक्सर ऐसा होता नहीं। पिछले 75 सालों में हमने राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सिद्धांतहीन और अनैतिक राजनीति के ढेरों उदाहरण देखे हैं।
इस समय देश में 18वीं लोकसभा की चुनाव प्रक्रिया चल रही है। राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के चयन में लगे हैं और राजनेता उन राजनीतिक दलों का दामन पकड़ने की कोशिश में हैं जो उन्हें जीत की कच्ची-पक्की गारंटी दे सकते हैं। उम्मीदवारों के चयन का आधार सिर्फ उनके जीतने की संभावनाएं ही हैं। यह बात कोई मायने नहीं रखती कि वे कैसे जीतते हैं- बस जीतना चाहिए।
जनतांत्रिक व्यवस्था सिर्फ एक प्रणाली नहीं है, एक जीता-जागता विचार है यह प्रणाली। बहुमत के आधार पर घोषित नीतियों के अनुसार शासन चलाने के लिए व्यक्तियों-दलों को चुना जाता है। उम्मीद की जाती है कि उन नीतियों का पालन होगा। इस प्रणाली में मतदाता सिर्फ अपना प्रतिनिधि ही नहीं चुनता, निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन के संदर्भ में अपने विचार भी स्पष्ट करता है। मतदाता के इन विचारों का सम्मान होना ही चाहिए। पर, इस संदर्भ में हम जो कुछ अपने देश में होता देख रहे हैं, वह कुल मिलाकर निराश ही करता है। पिछले 75 सालों में हमने बार-बार इस बात को देखा है कि चुने जाने के बाद राजनेता और राजनीतिक दल सिर्फ आश्वासनों को ही नहीं भूलते, उन नीतियों-मूल्यों को भी याद रखने की आवश्यकता नहीं समझते जिनकी दुहाई देकर वे सत्ता में पहुंचते हैं। चुने जाने के लिए दल बदलना ऐसे ही सत्ताकामी सोच का उदाहरण है।
ऐसा नहीं है कि इस विसंगति की ओर कभी, या किसी का ध्यान नहीं गया। ध्यान गया था। इसीलिए कुछ ऐसी व्यवस्थाएं भी बनायी गयीं जो दल-बदल से उत्पन्न अराजक स्थिति को कुछ संवारे। लगभग चालीस साल पहले वर्ष 1985 में देश में दल-बदल विरोधी कानून भी बना था। पर तू डाल-डाल मैं पात-पात वाली स्थिति बनती रही। दलबदलुओं को हेय दृष्टि से भी देखे जाने की बात कही जाती है, पर व्यवहार में जो कुछ दिख रहा है वह ‘शर्म इनको मगर नहीं आती’ का उदाहरण ही प्रस्तुत करने वाला है। दल-बदल करने वाले किसी नेता को कभी शर्मिंदा होते नहीं देखा गया। उल्टे विचारों और सिद्धांतों की राजनीति को ही एक शर्मनाक स्थिति में पहुंचा दिया गया है। मर जाऊंगा, पर अब फलां दल के साथ नहीं जाऊंगा कहने वाला, और ईमानदार राजनीति का दावा करने वाला बिना किसी हिचक के दल-विशेष की शरण में चला जाता है और घोषणा करने लगता है कि ‘अब इधर-उधर नहीं जाना है।’
ऐसे दल-बदलुओं के नाम गिनाने की आवश्यकता नहीं है। हर दल में ऐसे लोग मिल जाएंगे। मज़े की बात यह है कि ऐसा दल-बदल हमेशा समाज और देश की सेवा के नाम पर होता है! हर दल बदलू यह दावा करता है कि वह ईमानदार राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है- दल बदलने में उसका कोई निजी स्वार्थ नहीं है!
जैसा कि स्वाभाविक है, दल-बदलू अक्सर सत्तारूढ़ दल की ओर ही आकर्षित होते हैं। ताज़ा उदाहरण हाल के सालों का है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार सन् 2014 और 2021 के बीच 7 सालों में 426 दलबदलू अपने दल छोड़कर केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा में शामिल हुए थे। इनमें 253 विधायक हैं और 173 सांसद। इसकी तुलना में कांग्रेस पार्टी में कुल 176 दल-बदलू शामिल हुए थे। यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि दलबदलुओं को सत्तारूढ़ दल ही ज़्यादा आकर्षित क्यों करता है? पूछा तो यह भी जाना चाहिए कि संसद में भारी-भरकम बहुमत वाले भाजपा जैसे दल को दलबदलुओं की आवश्यकता क्यों महसूस होती है?
इस संदर्भ में एक सवाल तो मतदाता से भी बनता है– वह क्यों ऐसे राजनेताओं को समर्थन देता है जिनके दामन पर दल-बदलू होने का दाग हो? फिर, कोई व्यवस्था तो ऐसी भी होनी चाहिए जिसमें सिद्धांतहीन राजनीति पर कोई अंकुश लग सके। और कुछ नहीं तो सत्ता के लालच में दल बदलने वालों को शर्मिंदा करने की कोई कोशिश तो हो ही सकती है। आईपीएल में अपनी टीम बदलने वाले खिलाड़ी के खिलाफ स्टेडियम में नारेबाजी भले ही संगत न लगे, पर राजनीति के मैदान में तो ऐसा कुछ होना ही चाहिए कि मतदाता अपने निर्वाचित प्रतिनिधि से यह पूछ सके कि तुम्हें सिद्धांतहीन पाला-बदल करने में शर्म क्यों नहीं आती?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।