डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
इधर जब से अयोध्या में प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर बना है, तब से हमारे समाज में, विशेषकर उन बुजुर्गों में ‘आस्था और भक्ति’ का विचित्र-सा सैलाब देखने को मिल रहा है, जो जीवन के अस्ताचल में हैं और प्रायः अकेले रहते हैं।
उनका अपना भरापूरा परिवार था, जिसमें माता-पिता, भाई-बहन, ताऊ-ताई, चाचा-चाची और बेटे-बेटियां सभी थे, लेकिन ‘बिछड़े सभी बारी-बारी’ की तर्ज़ पर सब उन्हें छोड़ गए और अब वे निपट अकेले जीवन गुजारने को मज़बूर हो गए हैं।
आज के महानगरीय और नगरीय समाज की विडंबना यही है कि बच्चे पढ़-लिखकर विदेशों में या बड़े-बड़े शहरों में चले गए हैं और उनके माता-पिता बस ‘फोन पर उनसे बात करने’ की लालसा में जी रहे हैं। हिन्दी साहित्य की विश्वकृति ‘कामायनी’ में प्रलय के बाद जीवित बचे ‘मनु’ यज्ञ के बाद यह सोचकर ‘हविष्यान्न’ का प्रसाद कहीं रख आते हैं कि मेरी तरह कोई जीवित बचा हो तो इसे खाकर जीवित रह सकेगा। आज कहां चली गई हमारी यह परोपकार की भावना, जो एक रोटी में से ‘आधी’ किसी भूखे को देने में खुशी महसूस करती थी?
आज अनायास ही एक ऐसी घटना का किस्सा पढ़ने को मिला, जिसने मेरे ‘अंतर्मन’ को कुरेद दिया है और मैं आप सबसे इसे साझा करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूं। जब किसी बुजुर्ग को अपनी संतान और परिवार वालों का साथ नहीं मिलता, तो वह सिर्फ ‘भगवान’ के सहारे जीता है। उस वक्त वह भगवान को ही अपना मानता है और इसी विश्वास से उसे दुखों को सहने की शक्ति मिलती है।
‘एक ट्रेन में चेकिंग करते वक्त टिकट चैकर को एक फटा और पुराना पर्स मिला। टीसी ने जब उस पर्स को खोल कर देखा, तो उसमें कुछ पैसे और भगवान कृष्ण की फोटो दिखाई दी। टीसी ने ट्रेन में सफर कर रहे यात्रियों से पूछा कि वह पर्स किसका है? तब एक बूढ़े यात्री ने टीसी से कहा कि ‘साहब यह पर्स मेरा है।’ बूढ़े यात्री की यह बात सुनकर टीसी ने पूछा कि ‘इसका सबूत क्या है?’ तो बूढ़े व्यक्ति ने कहा ‘इस पर्स में भगवान श्रीकृष्ण की फोटो रखी हुई है, आप देख लें।’
अब टीसी ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण की फोटो तो किसी के भी पर्स में हो सकती है। इसमें तुम्हारे बेटे-बेटी या तुम्हारे परिवार वालों की फोटो क्यों नहीं है? इस पर बूढ़े व्यक्ति ने बताया कि मैं जब स्कूल में था, तब मेरे पिताजी ने मुझे यह पर्स दिलाया था। मैंने उस समय इस पर्स में अपने माता और पिता की फोटो लगाई थी। जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने उसमें अपनी फोटो लगा दी, क्योंकि मुझे अपनी सुंदरता पर बहुत गर्व होता था। कुछ समय बाद ही मेरी शादी हो गई और मैंने पर्स में से अपनी फोटो हटाकर पत्नी की फोटो लगा दी। मैं समय-समय पर अपनी पत्नी की फोटो देखता रहता था। इसके बाद मेरी पत्नी ने बेटे को जन्म दिया, तो मैंने पर्स में से अपनी पत्नी की फोटो हटाकर अपने बेटे की फोटो लगा दी। कुछ साल बाद मेरे माता-पिता का देहांत हो गया। मेरा बेटा बड़ा हो गया और उसकी भी शादी हो गई। कुछ समय बाद मेरी पत्नी भी मुझे और इस दुनिया को छोड़कर हमेशा के लिए चली गई।
अब मेरा बेटा अपनी पत्नी के साथ दूसरे शहर में रहने चला गया। वह तो मेरे लिए समय ही नहीं निकाल पाता। मेरा ध्यान रखने वाला अब कोई नहीं है। सच कहूं, बाबूजी! अब तो एक ही हैं, जो मेरा ध्यान रखते हैं और वे भगवान श्रीकृष्ण हैं। इसीलिए मैंने अपने पर्स में से अपने बेटे की फोटो निकालकर अपने भगवान श्रीकृष्ण की फोटो लगा ली है। मुझे अब इस बात का अनुभव हो गया है कि इस संसार में कोई भी रिश्ता साथ नहीं देगा, सिर्फ भगवान ही साथ देंगे।’ बुजुर्ग का उत्तर सुनकर, आंखों में आंसू लिए, टीसी ने उनको पर्स लौटा दिया।’
सच मानिए, इस प्रकरण ने मुझे आस्था के उस महासत्य का स्मरण करवा दिया, जिसे हृदय में रख कर तुलसीदास जी ने लिखा होगा :-
‘एक भरोसो, एक बल, एक आस, बिस्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास।’
आज हमारे समाज में यह विडंबना क्यों दिखाई दे रही है? इसका उत्तर एक ही है कि हम भौतिकता की चमक-दमक में आत्मीयता के अमृत को भुला बैठे हैं। धन कमाने की होड़ में ‘मन’ का चैन कहीं खो बैठे हैं और रिश्तों-नातों को जंग लगता जा रहा है। फक्कड़ मस्तमौला कबीर तो सदियों पहले कह गये थे :-
‘माया मरी न मन मरा, मर-मर गए सरीर।
आशा,तृष्ना ना मरी, कह गए दास कबीर।’
आइए, मरते हुए रिश्ते-नातों को आत्मीयता का गंगा-जल डाल कर फिर से सींचें, ताकि किसी बुजुर्ग को अकेले तड़पना न पड़े।
‘अपनापन सुख दे सदा,/ इसको रखना याद।
धन-दौलत रहते नहीं,/ खुद मिटने के बाद।’