सरस्वती रमेश
हाल ही में मुंबई से एक खबर आई। एक चौदह वर्षीय लड़की ने पीरियड के दर्द से घबराकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली। वह पहली बार उस हालत से गुजरी और अब तक उससे अनजान थी। शायद उसे महसूस हुआ हो कि उसके साथ कुछ बहुत शर्मनाक घटित हो रहा है। शर्मनाक इसलिए कि रक्तस्राव वजाइना से होता है। वह अंग जिसे हमारा समाज इज्जत, मर्यादा, वंश बढ़ाने का मार्ग और भी न जाने क्या-क्या समझता है। बस नहीं समझता तो शरीर का एक सामान्य अंग। इस अंग से जुड़ी समस्याओं को छिपाने, दबाने और शर्मिंदगी से बताने का रिवाज अब भी गांवों से लेकर शहरों और कुछ हद तक महानगरों में भी कायम है। वजाइना स्त्री के जीवन में एक हिचक की तरह रहा है। बात चाहे उसकी साफ-सफाई की हो या सेक्स के दौरान आने वाली परेशानियों की, उसे अनदेखा कर दिया जाता है। नतीजा, वे तरह-तरह की यौन संबंधी बीमारियों की चपेट में आसानी से आ जाती हैं। दुनियाभर में सर्वाइकल कैंसर से होने वाली मौतों में भारत टॉप पर है।
सही जानकारी व साथ है जरूरी
आम तौर पर, पीरियड्स शुरू होने पर एक आम भारतीय परिवार अपनी बच्चियों को पैड या कपड़े का टुकड़ा लेने और कूड़ेदान में डालने के तरीके बताकर इतिश्री कर लेता है। यह शुरू होने पर शरीर में होने वाले बदलाव, बर्ताव और मानसिक उलझनों को समझने, सुलझाने के बारे में बात या विचार अमूमन नहीं किया जाता। उल्टे उत्तर भारत के अनेक इलाकों में पीरियड को छुआछूत की बीमारी की तरह बरता जाता है। बेटियों-बहुओं को चौका, मंदिर, संगत में जाने से रोक दिया जाता है। उन्हें अशुद्ध और अस्वच्छ जैसे संबोधनों से नवाजा जाता है। आजकल माहवारी की उम्र घटकर नौ-दस साल हो गई है। इतनी छोटी बच्चियों का इस जैविक प्रक्रिया को समझना अपने आप में कठिन काम है। तिस पर घर की बड़ी महिलाएं माहवारी और इससे जुड़ी चीजों को हौवे की तरह पेश करती हैं। बच्चियां स्वयं को अलग-थलग महसूस करने लगती हैं और माहवारी को लेकर हीनभावना से वे ग्रस्त हो जाती हैं। दरअसल, समाज इस बात को आज तक समझ ही नहीं सका कि पीरियड्स से जुड़ी प्रक्रियाएं एक लड़की को भावनात्मक रूप से भी प्रभावित कर सकती हैं। जब उसे सही जानकारी और साथ की दरकार होती है, तब वह इस बदलाव और इससे उपजे दर्द, चिड़चिड़ेपन, उदासी जैसी जटिलताओं से अकेली लड़ती है।
बढ़ाना होगा जागरूकता का स्तर
सच तो यह है कि माहवारी को लेकर जागरुकता का अभाव अव्वल दर्जे का है। यह सिर्फ हमारे देश का हाल नहीं है। विदेशों में भी अभी पूर्ण जागरुकता आना बाकी है। अभी पिछले साल ही लंदन में एक सोलह साल की लड़की ने अपने दोस्त के कहने पर माहवारी के दर्द से बचने के लिए गर्भनिरोधक दवाएं खा लीं। दवाएं लेने के बाद उसकी तबीयत बिगड़ गई और उसकी मौत हो गई। यह घटना प्रमाण है कि माहवारी पर समाज में बातचीत और जागरुकता का स्तर कितना निम्न है। आज भी गरीब अशिक्षित घरों में लड़कियों के लिए माहवारी के दौरान साफ कपड़े तक उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं। पैड तो दूर की बात है। ऐसे में सामाजिक गतिविधियों में शरीक होना और बिना सुविधाओं के माहवारी से निपटने की दोहरी चुनौती किशोरवय लड़कियों के सामने होती है। स्कूल-कॉलेज जाना मुश्किल हो जाता है।
सुविधाओं में कमी का बच्चियों की शिक्षा पर असर
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पीरियड पॉवर्टी के कारण दुनिया भर में हर साल 500 मिलियन लड़कियां स्कूल जाना छोड़ देती हैं। पीरियड पॉवर्टी उस स्थिति को कहते हैं जब पीरियड्स के दौरान लड़कियों के पास अच्छी क्वालिटी के पैड, बाथरूम, साफ पानी आदि की सुविधा और पीरियड्स को लेकर भावनात्मक उलझनों को दूर करने वाला नहीं होता। ऐसे में लड़कियां या तो पीरियड्स के दौरान स्कूल नहीं जाती या फिर हमेशा के लिए स्कूल जाना छोड़ देती हैं। एक शोध के मुताबिक अमेरिका में हर 5 में से 1 लड़की पीरियड्स के दौरान स्कूल मिस करती है। यूके में 64 प्रतिशत लड़कियां पीरियड्स के कारण आधी या पूरी छुट्टी कर लेती हैं।
स्कूलों में भी व्यवस्था नहीं
ये आंकड़े इस बात के प्रमाण हैं कि अभी तक स्कूलों में पीरियड्स को लेकर किसी तरह की कोई तैयारी नहीं की गई है। न तो पैड बदलने के लिए अलग से टॉयलेट्स की व्यवस्था और न ही माहवारी में होने वाले दर्द के लिए रेस्ट रूम। इतना ही नहीं, पैड डालने के लिए अलग कूड़ेदान भी नहीं रखे जाते। लड़कियां शर्म के कारण पैड सामान्य कूड़ेदान में नहीं डाल पाती और पूरे दिन अपने बैग में रखती हैं। कई तो कपड़े के उसी टुकड़े को बार-बार धो सुखाकर इस्तेमाल करती हैं। ऐसा स्कूल में करना सम्भव नहीं होता।
इसके अलावा माहवारी के दौरान यूनिफॉर्म में खून लग जाने के डर से भी बहुत सारी लड़कियां स्कूल नहीं जाना चाहती। हमारे समाज की मानसिकता का स्तर ये है कि यदि किसी बच्ची की यूनिफॉर्म में खून लग जाये तो उसकी मदद करने की बजाय राह चलते कई लोग तो उस पर हंस भी सकते हैं। क्योंकि उनकी सोच के मुताबिक माहवारी सबसे छुपाने की चीज होती है। हमें पीरियड्स जैसी सामान्य और प्राकृतिक क्रिया के प्रति और सहज होने की जरूरत है जिससे अब कोई बच्ची घबराकर अतिवादी कदम न उठाये।