कई कार्यक्षेत्रों में अपना काम सही तरीके से करने के लिए भावनाएं नियंत्रित कर उन्हें जॉब के अनुरूप बनाना पड़ता है। इस तरह के कामकाज अधिकतर महिलाओं के हिस्से में आते हैं। स्वास्थ्य सेवा, विमानन, हॉस्पिटैलिटी, होटल जैसे क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें ही हर स्थिति में मुस्कराना सीखना पड़ता है। कामकाजी महिलाएं खासकर सजग रहें कि कर्तव्य के साथ भावनाएं भी जीवंत रहें।
सरस्वती रमेश
घरेलू काम हो या प्रोफेशनल- महिलाओं को अपने नियत काम के साथ भावनात्मक परिश्रम यानी इमोशनल कार्य भी करने पड़ते है। इमोशनल कार्यों के लिए उन्हें अपने काम के वक्त अपनी भावनाओं पर सायास काबू पाना पड़ता है और काम की प्रकृति के अनुरूप भावनाओं को ढालना पड़ता है। घरेलू काम तो समाज में श्रम में नहीं माने जाते वहां पेमेंट का मामला नहीं है, पारिवारिक कर्तव्य का है। लेकिन प्राइवेट या पब्लिक सेक्टर में कार्यरत महिलाओं को इस इमोशनल लेबर के लिए कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं मिलता बल्कि इसे उनके नियत काम का हिस्सा मान लिया जाता है।
भावनात्मक श्रम के मायने
अमेरिकी समाजशास्त्री अर्ली होकशील्ड ने ऑफिस में काम करने वाले लोगों के इमोशंस को समझने के लिए एक टर्म का इस्तेमाल किया था ‘इमोशनल लेबर’। होकशील्ड का कहना है कि इमोशन्स का भी बाजार है और इसका भी कारोबार होता है। लोगों को अपना काम सही तरीके से करने के लिए अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर उन्हें काम के अनुरूप बनाना पड़ता है। ऐसा करने पर ही उन्हें वेतन मिल पाता है। होकशील्ड ने इमोशनल लेबर को जेंडर के साथ नहीं जोड़ा था लेकिन व्यवहार में देखने को मिलता है कि परंपरा वाले समाजों में इमोशनल लेबर ज्यादातर महिलाओं के हिस्से आती है।
घरेलू स्त्री की इमोशन
यहां मामला परिवार की संस्था का है जो जरा हटकर है। यहां मामला भावनाओं का है जिसमें लेन-देन की अपेक्षा नहीं है। एक गृहिणी परिवार के सभी सदस्यों की जरूरतों व भावनाओं को समझकर काम करती है। परिवार का प्रत्येक सदस्य उससे यह उम्मीद भी करता है। जैसे बच्चे जानते हैं मम्मी खाना बनाएगी। और बूढ़ों को पता है बहू उनके कपड़े धोएगी। पति को पता है समय पर नाश्ता खिलाएगी। ज्यादातर मामलों में स्त्री स्वेच्छा से यह सब कर रही होती है। कई बार उसका मन नहीं होता फिर भी वह सबकुछ करती है। शरीर के साथ अपने इमोशन्स को भी काबू में करती है लेकिन यहां बाध्यता नहीं। खुशी है। वह इमोशनल कर्तव्य निभाती है। इस श्रम के लिए भुगतान का मामला ही नहीं बनता है।
कामकाजी महिलाओं से अपेक्षा
कामकाजी महिलाओं को अपनी भावनाओं और एक्सप्रेशन को अपने काम के अनुरूप रखना पड़ता है। जैसे एक एयर होस्टेस अपने यात्रियों की सर्विस में हर समय चेहरे पर मुस्कान बनाये रखती है। भले ही घर पर उसके बच्चे की तबीयत खराब हो और भीतर से वह चिंतित हो। मगर उसका काम उससे इमोशनल लेबर की मांग करता है। हेल्थ केयर, नर्सिंग या आतिथ्य से जुड़ी महिलाओं को भी अपने काम के साथ हमेशा मुस्कुराना पड़ता है। भले ही इसके लिए उन्हें अपनी निजी इमोशंस को दबाना या मारना क्यों न पड़े। इसी तरह पुरुषों की तुलना में महिलाओं से अधिक अतिरिक्त कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। अपेक्षित कार्य करना पड़ता है। जबकि उन्हें इसके लिए कोई अलग से पारिश्रमिक नहीं मिलता है।
एकतरफा दबाव
वर्किंग वीमेन से भी यह अपेक्षा की जाती है कि बच्चों की पढ़ाई, स्कूल, त्योहारों की तैयारी, शॉपिंग और अचानक आ गए अतिरिक्त कार्यों की जिम्मेदारी उन्हें ही उठानी चाहिए। वे घर आये मेहमानों का स्वागत- सत्कार करती हैं। खाने का मेन्यू बनाती हैं। उनके रहने, घूमने का इंतजाम भी उन्हें ही करना होता है। एक तरह से अतिथियों को खुशी-खुशी विदा करने की जिम्मेदारी घर की स्त्रियों की ही मानी जाती है। भले ही उनके रूटीन के काम छूटे, ऑफिस के काम पेंडिंग होने से उसका मानसिक तनाव बढ़े मगर घर आये मेहमानों को मैनेज उसे ही करना पड़ता है। अधिकतर स्त्रियां शिकायत अपने पति से नहीं कर सकती क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके पति यह काम ठीक से नहीं कर सकते। इस तरह महिलाएं अपनी भावनाओं व एक्सप्रेशन को काम के अनुरूप बनाने, दिखाने के लिए बाध्य होती हैं। कई मामलों में अपनी नेचुरल इंस्टिंक्ट दबाने और नेचर के विपरीत भाव दिखाने के एवज में उनके अवसादग्रस्त होने की संभावना बनी रहती है।
सोच में बदलाव जरूरी
महिलाओं पर इमोशनल लेबर का दबाव कम हो इसके लिए पुरुष को अपने नजरिये में बदलाव लाना होगा। उन्हें सोचना होगा कि क्या वे दफ्तर में महिला और पुरुष में अंतर करते हैं। क्या आप महिलाओं से अदृश्य श्रम या वैसे काम की अपेक्षा करते हैं जिसके लिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता। महिलाओं को भी दूसरों को खुश करने की बजाय अपने इमोशन के बारे में सोचना चाहिए। जब वे अपने इमोशंस के बारे में सोचेंगी तब ही सही मायने में नजरिये में बदलाव शुरू हो पायेगा।
ज्यादा भावनात्मक श्रम वाले कार्यक्षेत्र
स्वास्थ्य सेवा, विमानन, हॉस्पिटैलिटी, होटल और क्लब जैसे क्षेत्रों मेंें काम करने वाली महिलाओं को अपने इमोशन्स पर काबू करने का तरीका सीखना पड़ता है। वह उनके काम का हिस्सा माना जाता है। सिनेमा, नाटक और दूसरी कला से जुड़े कलाकारों आदि लोगों को भी अपनी अभिव्यक्ति और भाव को दिशा-निर्देशित करना पड़ता है।