विश्वनाथ सचदेव
उस दिन अखबारों के पन्ने पलटते हुए अचानक एक समाचार पर नज़र पड़ गयी। समाचार दक्षिण भारत के किसी कस्बे का था जहां के मुसलमानों ने अपने हिस्से की कुछ ज़मीन मंदिर बनाने के लिए दान कर दी थी। वैसे यह कोई अनोखा समाचार नहीं है, इस तरह की घटनाएं हमारे देश में घटती रही हैं जहां हिंदू या मुसलमान धार्मिक सौहार्द का परिचय देते रहे हैं। कभी हिंदुओं-मुसलमानों द्वारा रामनवमी साथ मिलकर मनाने और कभी ईद मिल-जुलकर मनाने का समाचार मिल जाता है। कुछ अर्सा पहले बंगाल में एक मंदिर में नमाज पढ़े जाने का समाचार आया था। इसी तरह कहीं एक हिंदू ने कब्रिस्तान के लिए ज़मीन दे दी थी। यह सब देखते हुए दक्षिण भारत के एक कस्बे में मुसलमान द्वारा मंदिर के निर्माण के लिए अपनी ज़मीन देने का समाचार बहुत चौंकाता नहीं है।
फिर भी वह समाचार पढ़कर यूं ही मन में ख्याल आया कि चुनाव के दौरान जिस तरह का वातावरण देश में जाने-अनजाने बनाया जा रहा है उसमें इस तरह के समाचार को भीतर के किसी पन्ने लायक ही क्यों समझा गया? क्यों विस्तार से इस बारे में बात नहीं हुई। फिर, न जाने क्यों मैं दिन के कुछ और अखबारों के पन्ने पलट गया। मुझे कुछ अटपटा लगा जब किसी और अखबार में वह समाचार नहीं दिखा!
होना चाहिए था यह समाचार अखबारों में। खासकर तब जबकि देश में हो रहे चुनावों के चलते सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं कुछ ज़्यादा ही दिखने लगी हैं। हम अक्सर अपनी गंगा-जमुनी तहजीब पर गर्व करते हैं। यह तहजीब है भी गर्व करने लायक। पर आज जिस तरह राजनीतिक नफे-नुकसान के गणित ने हमारी इस तहजीब का चेहरा विकृत कर दिया है, उसे देखते हुए किसी मुसलमान द्वारा मंदिर के निर्माण के लिए अपनी ज़मीन देने की घटना का समाचार किसी एक अखबार के भीतरी पन्ने में छोटी-सी जगह पाने से कहीं अधिक महत्व पाने का हकदार माना जाना चाहिए।
हमने अपने संविधान में अपने देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम अधार्मिक हो गये हैं। इसका सीधा-सा अर्थ है हम सब धर्मों को समान दृष्टि से देखते हैं। यहां की सरकार किसी एक धर्म को तरजीह नहीं देगी। धर्म के नाम पर किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा हर एक को अधिकार होगा कि वह अपने ढंग से पूजा-अर्चना कर सके, अपनी आस्था के अनुसार जी सके। लेकिन इस आम चुनाव के प्रचार-काल में जिस तरह धर्म को वोट पाने-मांगने का माध्यम बनाया गया। उसे देखकर उन सबको चिंता होनी चाहिए जो देश के संविधान में आस्था रखते हैं और जिन्हें देश की गंगा-जमुनी सभ्यता पर गर्व है। प्रचार के दौरान जिस तरह धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण के प्रयास हुए हैं वह चिंता की बात तो है ही, शर्म की बात भी है। देश के शीर्ष नेतृत्व से इस तरह की बातें सुनना किसी भी विवेकशील नागरिक को परेशान करने वाली बात होनी चाहिए। चुनावी सभा में हमारे नेता जहां एक ओर ‘सबका साथ, सबका विकास’ की दुहाई देते हुए राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सबको मिलने की बात कह रहे थे, वहीं तुष्टीकरण का तर्क देकर विपक्ष को आरोपी भी बना रहे थे। 75 साल तक एक पंथ-निरपेक्ष व्यवस्था में जीने के बाद इस तरह के ध्रुवीकरण का एक ही मतलब हो सकता है हम पंथ-निरपेक्षता की बात तो करते हैं, पर उसमें विश्वास नहीं करते। या तो ध्रुवीकरण के पक्षधर अपने आप को धोखा दे रहे हैं, या फिर दूसरों की समझ में शक करते हैं।
हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर पंथ-निरपेक्षता को स्वीकारा था। यहां इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि जब हमारा संविधान बन रहा था तो वही समय देश के विभाजन का भी था। यह भी नहीं भूला जा सकता कि इस विभाजन का मूल आधार धर्म ही था। यही नहीं, विभाजन के परिणामस्वरूप बने नए देश पाकिस्तान ने स्वयं को मुस्लिम राष्ट्र घोषित भी कर दिया था। लाखों शरणार्थियों का एक से दूसरे देश की ओर पलायन मनुष्यता के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है। संविधान-सभा में यह तर्क भी दिया गया था कि जब धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ है तो फिर भारत को हिंदू राष्ट्र क्यों न घोषित किया जाये। पर मनुष्यता में विश्वास करने वालों की संख्या अधिक थी– धर्म के नाम पर देश का बंटवारा भले ही हुआ था, पर हमारे नेतृत्व ने भारतीय समाज को हिंदू-मुसलमान में बांटना स्वीकार नहीं किया।
लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि बंटवारे के इस आधार को मानने वाले आज भी देश में हैं। आज भी धर्म के नाम पर समाज को बांटने की कोशिशें होती हैं। सांप्रदायिक सोच वाली यह राजनीति वोट जुटाने का साधन भले ही मानी जा रही हो, पर यह भारत की आत्मा को चोट ही पहुंचा रही है। इन चुनावों में भी हमने देखा है कि धर्म के नाम पर खुले आम वोट मांगे गये हैं। मज़े की बात यह है कि देश का शीर्ष नेतृत्व यह कहता है कि वह ‘हिंदू-मुसलमान नहीं करता’ और उन्हीं के दल की असम सरकार का मुखिया स्पष्ट स्वीकारता है कि वह ऐसी राजनीति करता है और वह इसमें कुछ ग़लत नहीं मानता।
ग़लत है यह सांप्रदायिकता वाली राजनीति। ग़लत है वे जो यह मानते हैं कि इस देश का अल्पसंख्यक दूसरे दर्जे का नागरिक है। तुष्टीकरण की राजनीति को कोसने वाले यह भूल जाते हैं कि ध्रुवीकरण एक तरफा नहीं होता, यदि देश के मुसलमानों का वोट बैंक बनता है तो उससे कहीं बड़ा, बहुत बड़ा वोट बैंक हिंदुओं का बन जाता है। पिछले आम-चुनाव के समय एक राजनेता ने स्पष्ट कहा था कि उन्हें देश के बीस प्रतिशत अल्पसंख्यकों की आवश्यकता नहीं है– वे आश्वस्त थे कि देश की बहुसंख्यक आबादी के अस्सी प्रतिशत उन्हें समर्थन देंगे। अस्सी प्रतिशत किसी का वोट बैंक नहीं। सारे बहुसंख्यकों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वालों को कभी चालीस प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिले। इसका अर्थ है साठ प्रतिशत मतदाता उनकी सांप्रदायिक राजनीति के समर्थक नहीं हैं।
विवेक का तकाज़ा है कि सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों को सफल न होने दिया जाये। हो चुका एक बार धर्म के नाम पर देश का बंटवारा । धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को यह याद रखना चाहिए कि देश में, या समाज में, इस तरह का बंटवारा निजी स्वार्थों की पूर्ति का माध्यम भले ही बन जाये, कुल मिलाकर उसे मनुष्यता के खिलाफ एक षड्यंत्र ही माना जायेगा। दक्षिण भारत के उस कस्बे में मंदिर के निर्माण के लिए मुसलमानों ने, और बंगाल के एक मंदिर में नमाज पढ़ने की सुविधा देकर हिंदुओं ने मनुष्यता की राह में दीपक जलाये हैं। ये छोटे-छोटे उदाहरण हैं जो एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति के संभव बनने का आश्वासन देते हैं। बड़ा उद्देश्य इस देश के हर नागरिक को अहसास करना है कि यह देश उसका है, हम सब विभिन्न धर्मों में भले ही आस्था रखते हों, पर हैं हम सब भारतीय। भारतीयता का यह पवित्र अहसास जगना चाहिए हमारे भीतर।
सांप्रदायिकता फैलाना अपने आप में एक गंभीर अपराध है। ऐसा करने वालों को उचित दंड मिले, वे यह अपराध करने से डरें, ऐसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए। चुनाव-प्रचार के दौरान और अन्यथा भी यदि कोई अपनी कथनी या करनी से समाज में सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश करता है तो उसे अपराध के रूप में लिया जाना चाहिए। चुनाव आयोग का भी दायित्व बनता है कि वह इस दिशा में गंभीरता से सोचे, धर्म के नाम पर वोट मांगना और धर्म के नाम पर वोट देना दोनों ग़लत हैं। ग़लत को सही ठहराने की हर कोशिश का विरोध होना चाहिए। जागरूक नागरिक का दायित्व है कि वह ऐसी हर कोशिश को विफल बनाने का एक माध्यम बने।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।