लोकतंत्र की जननी में लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व का एक पड़ाव पूरा हो रहा है। तीन दिन तक कन्याकुमारी में आध्यात्मिक यात्रा के बाद, मैं अभी दिल्ली जाने के लिए हवाई जहाज में आकर बैठा ही हूं… काशी और अनेक सीटों पर मतदान चल ही रहा है। कितने सारे अनुभव हैं, कितनी अनुभूतियां हैं… मैं असीम ऊर्जा का प्रवाह महसूस कर रहा हूं।
वाकई, 24 के इस चुनाव में, कितने ही सुखद संयोग बने हैं। अमृतकाल के इस प्रथम लोकसभा चुनाव में मैंने प्रचार अभियान प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की प्रेरणास्थली मेरठ से शुरू किया। मां भारती की परिक्रमा करते हुए इस चुनाव की मेरी आखिरी सभा पंजाब के होशियारपुर में हुई। संत रविदास जी की तपोभूमि, हमारे गुरुओं की भूमि पंजाब में आखिरी सभा होने का सौभाग्य भी विशेष है। इसके बाद मुझे कन्याकुमारी में भारत माता के चरणों में बैठने का अवसर मिला। शुरुआती पलों में चुनाव का कोलाहल मन-मस्तिष्क में गूंज रहा था। रैलियों, रोड शो में देखे हुए अनगिनत चेहरे मेरी आंखों के सामने आ रहे थे। माताओं-बहनों-बेटियों के असीम प्रेम का वो ज्वार, उनका आशीर्वाद… उनकी आंखों में मेरे लिए वो विश्वास, वो दुलार… मैं सब कुछ आत्मसात कर रहा था। आंखें नम हो रही थीं… मैं शून्यता में जा रहा था, साधना में प्रवेश कर रहा था।
कुछ ही क्षणों में राजनीतिक वाद-विवाद, वार-पलटवार… आरोपों के स्वर-शब्द, वे सब शून्य में समाते चले गए। मेरे मन में विरक्ति का भाव और तीव्र हो गया… मेरा मन बाह्य जगत से पूरी तरह अलिप्त हो गया।
इतने बड़े दायित्वों के बीच ऐसी साधना कठिन होती है, लेकिन कन्याकुमारी की भूमि व स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा ने इसे सहज बनाया। मैं सांसद के तौर पर अपना चुनाव भी अपनी काशी के मतदाताओं के चरणों में छोड़ यहां आया था।
मैं ईश्वर का भी आभारी हूं कि उन्होंने मुझे जन्म से ये संस्कार दिये। सोचा कि स्वामी विवेकानंद जी ने उस स्थान पर साधना के समय क्या अनुभव किया होगा! मेरी साधना का कुछ हिस्सा इसी तरह के विचार प्रवाह में बहा।
इस विरक्ति के बीच, शांति व नीरवता के बीच, मेरे मन में निरंतर भारत के उज्ज्वल भविष्य व लक्ष्यों के लिए निरंतर विचार उमड़ रहे थे। कन्याकुमारी के उगते हुए सूर्य ने मेरे विचारों को नई ऊंचाई दी, सागर की विशालता ने विचारों को विस्तार दिया। क्षितिज के विस्तार ने ब्रह्मांड की गहराई में समाई एकात्मकता का निरंतर अहसास कराया। ऐसा लगा जैसे दशकों पहले हिमालय की गोद में किए गए चिंतन-अनुभव पुनर्जीवित हो रहे हों।
कन्याकुमारी का ये स्थान हमेशा से मेरे मन के अत्यंत करीब रहा। कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला-स्मारक का निर्माण एकनाथ रानडे जी ने करवाया था। उनके साथ मुझे काफी भ्रमण करने का मौका मिला। इस स्मारक के निर्माण के दौरान कन्याकुमारी में कुछ समय रहना, आना-जाना, स्वाभाविक रूप से होता था। कश्मीर से कन्याकुमारी… ये हर देशवासी के अन्तर्मन में रची-बसी साझी पहचान है। ये वो शक्तिपीठ है जहां मां शक्ति ने कन्या कुमारी के रूप में अवतार लिया। इस दक्षिणी छोर पर मां शक्ति ने उन भगवान शिव के लिए तपस्या-प्रतीक्षा की, जो भारत के सबसे उत्तरी छोर के हिमालय पर विराज रहे थे। कन्याकुमारी संगमों के संगम की धरती है। हमारे देश की पवित्र नदियां अलग-अलग समुद्रों में मिलती हैं। यहां उन समुद्रों का संगम होता है। यहां एक और महान संगम दिखता है- भारत का वैचारिक संगम!
यहां विवेकानंद शिला स्मारक के साथ ही संत तिरुवल्लूवर की विशाल प्रतिमा, गांधी मंडपम और कामराजर मणि मंडपम हैं। महान नायकों के विचारों की ये धाराएं यहां राष्ट्र चिंतन का संगम बनाती हैं। इससे राष्ट्र निर्माण की महान प्रेरणाओं का उदय होता है। कन्याकुमारी की ये धरती एकता का अमिट संदेश देती है।
कन्याकुमारी में संत तिरुवल्लूवर की विशाल प्रतिमा, समंदर से मां भारती के विस्तार को देखती प्रतीत होती है। उनकी रचना ‘तिरुक्कुरल’ तमिल साहित्य के रत्नों से जड़ित एक मुकुट के जैसी है। इसमें जीवन के हर पक्ष का वर्णन है, जो हमें स्वयं और राष्ट्र के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देने की प्रेरणा देता है। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था- प्रत्येक राष्ट्र के पास अपनी नियति को हासिल करने के लिए एक संदेश का लक्ष्य होता है। भारत हजारों वर्षों से इसी भाव के साथ सार्थक उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा है। हमने जो अर्जित किया उसे कभी व्यक्तिगत पूंजी मानकर आर्थिक या भौतिक मापदण्डों पर नहीं तौला। इसीलिए, ‘इदं न मम’ यह भारत के चरित्र का सहज एवं स्वाभाविक हिस्सा हो गया है।
भारत के कल्याण से विश्व का कल्याण, हमारी प्रगति से विश्व की प्रगति, इसका एक बड़ा उदाहरण हमारी आज़ादी का आंदोलन है। हमारी आजादी तमाम गुलाम देशोंं के लिये प्रेरणा बनी। कोरोना के कठिन कालखंड में हमारे सफल प्रयासों से गरीब- विकासशील देशों को हौसला मिला। भारतीय गवर्नेंस मॉडल से 10 वर्षों में 25 करोड़ लोगों का गरीबी से बाहर निकलना अभूतपूर्व है। समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को प्राथमिकता देने के हमारे प्रयासों ने विश्व को प्रेरित किया। भारत का डिजिटल इंडिया अभियान पूरे विश्व के लिए एक उदाहरण है कि हम कैसे टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल गरीबों को सशक्त करने, पारदर्शिता लाने, उनके अधिकार दिलाने में कर सकते हैं। भारत में सस्ता डेटा सूचना और सेवाओं तक गरीब की पहुंच सुनिश्चित करके सामाजिक समानता का माध्यम बना है।
आज भारत की प्रगति और उत्थान सहयात्री देशों के लिए भी ऐतिहासिक अवसर है। जी-20 की सफलता के बाद से विश्व भारत की इस भूमिका को और अधिक मुखर होकर स्वीकार रहा है। भारत को ग्लोबल साउथ की एक सशक्त और महत्वपूर्ण आवाज़ के रूप में स्वीकारा जा रहा है।
नए भारत का ये स्वरूप 140 करोड़ देशवासियों को उनके कर्तव्यों का अहसास भी करवाता है। हमें भारत के विकास को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा, और ये जरूरी है कि हम भारत के अंतर्भूत सामर्थ्य को समझें। 21वीं सदी की दुनिया भारत की ओर आशाओं से देख रही है। वैश्विक परिदृश्य में आगे बढ़ने के लिए हमें कई बदलाव भी करने होंगे। हमें सुधारों को लेकर पारंपरिक सोच को भी बदलना होगा। हमें जीवन में हर क्षेत्र में सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना होगा। हमारे सुधार 2047 के विकसित भारत के संकल्प के अनुरूप हों । मैंने देश के लिए रिफॉर्म, परफॉर्म और ट्रांसफॉर्म का विज़न सामने रखा। जिसके क्रियान्वयन में क्रमश: नेतृत्व, नौकरशाही व जनता जनार्दन की भूमिका होती है।
देश को विकसित भारत बनाने के लिए हमें श्रेष्ठता को मूल भाव बनाना होगा। हमें स्पीड, स्कोप और स्टैंडर्ड के साथ, चारों दिशाओं में तेजी से काम करना होगा। हमें मैन्युफैक्चरिंग के साथ-साथ क्वालिटी पर जोर देना होगा। हमें एक राष्ट्र के रूप में पुरानी पड़ चुकी सोच और मान्यताओं का परिमार्जन भी करना होगा। हमें हमारे समाज को पेशेवर निराशावादियों के दबाव से बाहर निकालना है। याद रहे सकारात्मकता की गोद में ही सफलता पलती है। भारत की अनंत शक्ति के प्रति मेरी आस्था, श्रद्धा और विश्वास भी दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। मैंने पिछले 10 वर्षों में भारत के इस सामर्थ्य को और ज्यादा बढ़ते हुए अनुभव किया है।
जिस तरह हमने 20वीं सदी के चौथे-पांचवें दशक को अपनी आज़ादी के लिए प्रयोग किया, उसी तरह 21वीं सदी के इन 25 वर्षों में हमें विकसित भारत की नींव रखनी है। स्वतंत्रता संग्राम देशवासियों के सामने बलिदान का समय था। आज निरंतर योगदान का समय है। स्वामी विवेकानंद ने 1897 में कहा था कि हमें अगले 50 वर्ष केवल और केवल राष्ट्र के लिए समर्पित करने होंगे। उनके इस आह्वान के ठीक 50 वर्ष बाद, 1947 में भारत आज़ाद हो गया।
आज हमारे पास वैसा ही स्वर्णिम अवसर है। हम अगले 25 वर्ष केवल राष्ट्र के लिए समर्पित करें। हमारे ये प्रयास आने वाली पीढ़ियों और शताब्दियों के लिए नए भारत की सुदृढ़ नींव बनकर अमर रहेंगे। मैं देश की ऊर्जा को देखकर ये कह सकता हूं कि लक्ष्य अब दूर नहीं है। आइए, तेज कदमों से चलें… मिलकर चलें, भारत को विकसित बनाएं।
लेखक भारत के प्रधानमंत्री हैं।