दिनेश भारद्वाज/ट्रिन्यू
चंडीगढ़, 4 जून
हरियाणा में लोकसभा चुनाव के नतीजों ने प्रदेश की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। नायब सिंह सैनी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार अल्पमत में है। लोकसभा के पांच सीटों के नुकसान की वजह से आगामी विधानसभा चुनावों के लिए चुनौती बढ़ गई हैं। वहीं अल्पमत से पार पाने के लिए अब विधायकों को जोड़ने में भी भाजपा को पसीना बहाना होगा। दस वर्षों की एंटी-इन्कमबेंसी से पार पाना भी मुख्यमंत्री नायब सैनी के सामने बड़ी चुनौती है।
वहीं दूसरी ओर, पांच लोकसभा क्षेत्रों में जीत के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा और प्रमुख विपक्षी दल अब और भी आक्रामक होगा। इससे भी बड़ी चुनौती यह होगी कि अब नायब सरकार को अधिकारियों व कर्मचारियों का भरोसा हासिल करना होगा। लोकसभा चुनावों के मतदान के बाद जिस तरह से अधिकारियों व कर्मचारियों की भूमिका पर सवाल उठाए गए, उससे इस वर्ग में अंदरखाने नाराजगी है। विधानसभा चुनावों में क्योंकि अधिक समय नहीं है। ऐसे में इस वर्ग की नाराज़गी मोल लेना सरकार के लिए सही साबित नहीं होगा।
लोकसभा चुनावों को आगामी विधानसभा का सेमीफाइनल पहले से ही कहा जा रहा था। अब भाजपा की मुश्किलें इसलिए बढ़ गई हैं क्योंकि भाजपा ने लोकसभा की दस में से पांच सीटों को खोया है। 2019 के लोकसभा चुनावों में दस सीटों पर जीत हासिल की। इसके करीब पांच महीने बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा महज चालीस सीटों पर सिमट गई। जिस कांग्रेस का लोकसभा में खाता भी नहीं खुला था, उसे विधानसभा में जबरदस्त तरीके से वापसी करते हुए 31 सीटों पर जीत हासिल की थी।
पुरानी रणनीति को बदलना होगा
अब चूंकि लोकसभा का स्कोर बराबर का है। इसलिए भाजपा को विधानसभा में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के लिए पसीना बहाना पड़ेगा। भाजपा को अपनी चुनावी रणनीति को पूरे तरीके से बदलना होगा। सवा नौ वर्षों तक हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे मनोहर लाल खट्टर अब करनाल से सांसद बन चुके हैं। उनका केंद्र में सक्रिय होना भी स्वाभाविक है। सीएम नायब सिंह सैनी को अब अगले तीन महीनों तक खुलकर बैटिंग करनी होगी। उन सभी कील-कांटों को निकालना होगा, जिनकी वजह से लोकसभा चुनावों में नुकसान झेलना पड़ा। परिवार पहचान-पत्र की त्रुटियां, शहरों में प्रॉपर्टी आईडी, बीपीएल कार्डों का कटना, पेंशन रुकना सहित कई ऐसे मुद्दे हैं, जो आम लोगों से जुड़े हैं। भाजपाई भी दबी जुबान में यह बात स्वीकार कर रहे हैं कि इस बार के लोकसभा चुनावों में नेशनल मुद्दे नहीं बल्कि स्थानीय मुद्दे अधिक हावी थे। हरियाणा में लोकसभा का चुनाव विधानसभा ही नहीं बल्कि पंचायत स्तर के चुनावों की तरह छोटे-छोटे मुद्दों पर लड़ा गया। स्थानीय समस्याओं और जरूरतों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
भाजपा कार्यकर्ताओं ने नहीं दिखाई उतनी सक्रियता
इस लोकसभा चुनावों में भाजपा के कार्यकर्ताओं में उतनी सक्रियता नहीं दिखी, जितनी आमतौर पर देखने को मिलती रही है। भाजपा वर्कर इससे पूर्व चुनावों को एक मिशन की तरह लेकर चलते रहे हैं। इस बार भाजपा कार्यकर्ताओं में चुनावों को लेकर वह जोश नहीं था। भाजपाइयों से बातचीत में यह बात सामने आई कि दस वर्षों से सरकार होने के बाद भी भाजपा कार्यकर्ताओं को मान-सम्मान नहीं मिला। भाजपा संगठन की शायद, ही कोई बैठक रही होगी जिसमें पार्टी पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं ने अधिकारियों पर मनमानी के आरोप ना लगाए हों लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हुई। भाजपा वर्करों के जायज काम भी सरकार में नहीं हो पाए। ऐसे में अंदरखाने उनकी नाराजगी थी। माना जा रहा है कि इस नाराजगी की वजह से ही वर्करों ने इस बार चुनाव में उत्साह नहीं दिखाया।
दूसरे दलों के नेताओं को मिली तवज्जो
भाजपा की करीब साढ़े नौ वर्षों की सरकार में पार्टी के मूल काडर की बजाय दूसरे दलों से आए नेताओं को अधिक तवज्जो मिली। राजनीतिक नियुक्तियों में भी दूसरे दलों से आए नेता बाजी मारते रहे। पिछले सवा चार वर्षों में चूंकि भाजपा ने जजपा से गठबंधन के साथ सरकार चलाई। ऐसे में सरकार की मजबूरी हो सकती है लेकिन पूर्ण बहुमत की सरकार में भी उन नेताओं को अधिक वेट दिया गया, जो दूसरे दलों से भाजपा में शामिल हुए थे। भाजपाइयों ने कई मंचों पर यह मुद्दा उठाया भी, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं हो पाई।
भितरघात ने बिगाड़ा खेल
आमतौर पर कांग्रेस को गुटबाजी और चुनावों में भितरघात के लिए जाना जाता है। बेशक, कुछ संसदीय क्षेत्रों में इस बार भी कांग्रेस नेताओं ने भितरघात किया होगा लेकिन खुद को सबसे अनुशासित बताने वाली भाजपा में इस बार सबसे अधिक भिरतघात हुआ है। चुनावी नतीजों ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा को पांच संसदीय सीटों पर हार के पीछे कहीं न कहीं पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं की भी बड़ी भूमिका रही। अंदरखाने कई जगहों से भाजपा के अधिकृत प्रत्याशियों का विरोध किए जाने की सूचनाए हैं।