प्रेम प्रकाश
चढ़ते पारे के बीच पानी की समस्याओं को लेकर सरकार की नीति और दृष्टि को लेकर कुछ बातें स्पष्ट होनी चाहिए। नि:संदेह, नदी और जल संरक्षण की दिशा में होने वाले प्रयास ज्यादा प्रभावी होने चाहिए। यह अपेक्षा बीते एक दशक में देश में पानी से जुड़ी उपलब्धियों पर सवाल ही नहीं उठाती, बल्कि इससे उम्मीदें और मजबूत होती हैं। आज जो स्थिति है उसमें अब सरकारों के लिए पानी मसला नहीं, बल्कि मिशन होना चाहिए। वैसे भी पानी आज वैश्विक मुद्दा है। बीते कुछ दशकों में जल संरक्षण को लेकर विश्व मानचित्र पर कई मॉडल उभरे हैं। बदलाव के इस सफर के एक छोर पर सिंगापुर जैसा छोटा मुल्क है, तो दूसरे छोर पर भारत जैसी विशाल आबादी और भूगोल वाला देश।
बहरहाल, बात पहले सिंगापुर की। दुनियाभर में सैर-सपाटे के लिए सबसे पसंदीदा ठिकाने और बिजनेस डेस्टिनेशन के रूप में सिंगापुर का नाम पूरी दुनिया में है। तीन दशक पहले जब डिजिटलीकरण का जोर बढ़ा तो दुनिया भर की कंपनियों ने अपने उत्पाद को यहीं से तमाम देशों में भेजना और प्रचारित करना सबसे बेहतर माना। लेकिन सिंगापुर की एक दूसरी पहचान भी है, जो ज्यादा प्रेरक है, ज्यादा मौजू है। आने वाले चार दशकों के लिए आज सिंगापुर के पास पानी के प्रबंधन को लेकर ऐसा ब्लूप्रिंट है, जिसमें जल संरक्षण से जल शोधन तक पानी की किफायत और उसके बचाव को लेकर तमाम उपाय शामिल हैं। सिंगापुर की खास बात यह भी है कि उसका जल प्रबंधन शहरी क्षेत्रों के लिए खास तौर पर मुफीद है।
गौरतलब है कि सिंगापुर के सामने लंबे समय तक यह सवाल रहा कि एक शहर-राष्ट्र, जिसके पास न तो कोई प्राकृतिक जल इकाई है, न ही पर्याप्त भूजल भंडार है, उसके पास इतनी भूमि भी नहीं कि वह बरसात के पानी का भंडारण कर सके। ऐसे में गंदे पानी के शुद्धीकरण, समुद्री जल का खारापन कम करने और वर्षा जल के अधिकतम संग्रह के साथ सिंगापुर ने पानी से जुड़ी अपनी जरूरतों को पूरा करने का एक ऐसा मॉडल तैयार किया, जो एडवांस्ड टेक्नोलॉजी के साथ सामाजिक बदलाव की एक बड़ी मिसाल है।
सिंगापुर से भारत सीख तो सकता है, पर हमारे देश की आबादी और भूगोल ज्यादा मिश्रित और व्यापक है। लिहाजा पानी को लेकर भारतीय दरकार और सरोकार भी खासे भिन्न हैं। इसे भारतीय राजनीति में प्रकट हुए सकारात्मक बदलाव के साथ सरकारी स्तर पर आई नई योजनागत समझ भी कह सकते हैं कि अब स्वच्छता और घर-घर टोंटी से पानी की पहुंच जैसा मुद्दा साल के एक या दो दिन नारों-पोस्टरों से आगे सरकार की घोषित प्राथमिकता है।
यह तार्किक तथ्य है कि यदि हम गंगा को साफ करने में सक्षम हो गए तो यह देश की 40 फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी। हम इस दृष्टि से विचार करें कि भारत जैसी भौगोलिक और वैचारिक भिन्नता वाले देश में पानी को लेकर कोई आम सहमति विकसित करना आसान नहीं है। यह भी कि भारत में पानी राज्य का विषय है। लिहाजा, खासतौर पर नदियों को लेकर किसी यूनिफाइड प्रोजेक्ट पर सहमति के साथ आगे बढ़ना चुनौतीपूर्ण है।
देश में सरकारों की योजनागत समझ और प्रतिबद्धता में दिखी कमजोरी ही रही कि आस्था से लेकर अर्थव्यवस्था तक के लिए महत्वपूर्ण नदियों को केंद्र में रखकर दशकों तक कोई बड़ा निर्णायक कदम नहीं उठाया गया। पानी को लेकर काम कर रहे तमाम विभागों को साथ लाकर 2019 में जल शक्ति मंत्रालय के गठन के बाद जल क्षेत्र में हम काफी आगे बढ़े हैं। यह बढ़त गंगा सहित कई नदियों के कायाकल्प से जुड़े प्रयासों से लेकर अमृत सरोवर मिशन तक कई स्तरों पर सफलता के आंकड़ों के रूप में सामने है।
नमामि गंगे दस साल की यात्रा पूरा कर रही है। भारतीय वन्यजीव संस्थान की ओर से 2020 से 2023 तक किए गए सर्वे में गंगा और उसकी सहायक 13 नदियों में 3936 डॉल्फिन मिली हैं। यह देश में नदी जल की शुद्धता की बेहतर हुई स्थिति को दर्शाता है। यही नहीं, नमामि गंगे को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) और संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा चलाए गए एक ग्लोबल मूवमेंट के तहत टॉप 10 वर्ल्ड रेस्टोरेशन फ्लैगशिप में स्थान दिया गया है।
आज देश में 14.85 करोड़ से ज्यादा ग्रामीण परिवारों तक नल से शुद्ध जल पहुंच रहा है। नोबेल विजेता प्रोफेसर माइकल क्रेमर के एक शोध के मुताबिक सभी ग्रामीण परिवारों तक कवरेज के साथ जल जीवन मिशन के कार्यान्वयन से बाल मृत्यु दर में सालाना 1.36 करोड़ की कमी आएगी। साफ है कि पानी के साथ मनमानी के खतरे को समझते हुए देश आज जरूरी जवाबदेही और समझदारी के दौर में हैं। जल संरक्षण को लेकर समाज और सरकार का एक सीध में आगे बढ़ना न सिर्फ कारगर रहा है, बल्कि यह भविष्य के खतरों के लिहाज से भी जरूरी पहल है।