दीपिका अरोड़ा
बचपन की बात चले और ननिहाल का ज़िक्र न आए, हो ही नहीं सकता। मां की ‘मां’ के रूप में बरबस ही उभरती है एक ममतामयी छवि, जिसके स्नेह की छांव तले ग्रीष्म की प्रखरता भी शीतल जान पड़ती है। ‘नानी के घर जाएंगे, मोटे हो के आएंगे’, साधारण सी प्रतीत होने वाली इस पंक्ति में जहां जीवन की जीवंतता से लेकर अपनेपन के अहसास में पूरे हक़ से अल्हड़ मौजमस्ती भरे दिन गुज़ारने की उम्मीदें क़ायम हैं, वहीं नाती-नातिन के खान-पान को लेकर विशेष रूप से सजग होने का भाव भी बराबर आभासित होता है। लाड़-मनुहार की प्रेमपगी रसधारा में कथा-कहानियों की अमूल्य समझाइश का टॉनिक शामिल करना भी बिल्कुल नहीं भूलतीं नानी। जानती हैं, यही सबक आज के बाल्यकाल को आते कल का विलक्षण व्यक्तित्व बनाएगा।
सान्निध्य का व्यवहार पर असर
बचपन को सुदृढ़ आधारशिला प्रदान करने में बड़े-बुज़ुर्गों का सदैव ही अपरिहार्य योगदान रहा है। इस संदर्भ में हुआ एक शोध दादा-दादी, नाना-नानी का प्यार पाने वाले बच्चे के भावनात्मक स्तर पर अधिक सशक्त होते की पुष्टि करता है। नानी के स्नेह की भूमिका इसमें सर्वोत्तम आंकी गई। शोध के अनुसार, नानी का स्नेहिल सान्निध्य जहां बच्चे के व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन लाता है, वहीं मानसिक रूप से भी उसे परिपक्व एवं सुदृढ़ बनाता है। शोध प्रमाणित करता है, भावनात्मक अथवा व्यावहारिक समस्याओं से जूझ रहे बच्चों को नानी का स्नेह मिले तो वे सहजतापूर्वक इनसे उबर पाते हैं। प्रेम का संबल बचपन के किसी गहरे सदमे से भी जल्द निजात पाने में सहायक बनता है।
सम्पूर्ण विकास में विशेष महत्व
साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक़, दादा-दादी, नाना-नानी के प्यार एवं साथ का बच्चों के सम्पूर्ण विकास में विशेष महत्व है। इस बात से कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ता कि दादा-दादी अथवा नाना-नानी में से कौन अधिक बार तथा अधिक समय तक बच्चे से मिलता है। बचपन में नानी-दादी का प्यार पाने वाले बच्चों के अपने साथियों से भी संबंध आत्मीय एवं मैत्रीपूर्ण होते हैं। बातचीत में अधिक सक्रिय रहने के साथ ही वे दूसरों के प्रति फिक्रमंद भी होते हैं। स्वभावतः वे दूसरों को कष्ट न पहुंचाने वाले व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं।
दूरियों के चलते पनपता भौतिकवाद
आज के यथार्थ का संज्ञान लें तो भागते वक्त के दरम्यान रिश्तों में पनपती दूरियां स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। एकल परिवार व्यवस्था ने गूढ़ रक्त संबंधों को अलग-थलग कर छोड़ा है। सिमटती पारिवारिक इकाई में अति व्यस्त अभिभावकों के मध्य इलैक्ट्रॉनिक गैज़ेट्स पर अपना मनोरंजन तलाशने वाले बच्चे जीवन की उस सरलता-सरसता-सहजता से भला कैसे परिचित होंगे, जो बड़े-बुज़ुर्गों के सान्निध्य से ही मिलनी संभव है? आंकिक प्रतिस्पर्द्धा ने बच्चों को उस बेलगाम दौड़ में शामिल कर डाला है, जहां उन्हें भौतिकतावाद के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। दादी-नानी की सुनाई कहानियों-पहेलियों पर मंथन करना, उनके दिलचस्प अनुभवों को खुलकर जीना मानो उनके लिए महज़ समय की बर्बादी है। संक्षेप में, आज का बचपन समाज तथा सामाजिक रिश्ते सिरे से नकारता हुआ कम्प्यूटर, मोबाइल, गैज़ेट्स आदि को ही सर्वेसर्वा मानने लगा है। बड़े-बुज़ुर्गों के साथ समय बिताना तो दूर की बात, अपेक्षाओं के अंधाधुंध लादे गए बोझ ने तो अभिभावकों तक से उनका संपर्क सीमित कर डाला है। छुट्टियों का अधिकांश अंश गृहकार्य निपटाने में गुज़र जाता है। बाकी बचा समय, सुविधाजनक माहौल में पले-बढ़े बच्चे ननिहाल अथवा ददिहाल में बिताने की अपेक्षा हिल स्टेशन पर गुज़ारना अधिक पसंद करते हैं। आधुनिक परिवेश में कितने प्रतिशत बच्चे पूर्व की भांति वास्तविक अर्थों में खुशहाल बचपन जीते होंगे, गणना संभवत: उंगलियों के पोरों पर हो जाएगी।
बढ़ता स्क्रीन टाइम
बचपन यदि उन्मुक्त श्वास ही न ले पाए तो कालान्तर में प्राणवायु की कमी तो अखरेगी ही। अनवरत बढ़ता स्क्रीन टाइम बच्चों को वास्तविकता से कहीं दूर मृगतृष्णा की ओर धकेल रहा है। कल्पनाशीलता निश्चय ही रचनात्मकता का द्योतक है बशर्ते यथार्थ से निभाने की क्षमता भी बराबर विकसित हो अन्यथा कल्पना साकार न हो पाने की स्थिति में बढ़ता नैराश्य अवसाद बनकर जीवन निगलने से भी गुरेज़ न करेगा। गत वर्ष हुए एक अध्ययन के अनुसार, भारत में आत्महत्याओं की सर्वाधिक दर 15 से 29 वर्ष आयुवर्ग के युवाओं के मध्य देखी गई।
स्नेह-संस्कारों की घुट्टी
खीझना, उलझना, चीखना-चिल्लाना, दूसरों पर धौंस जमाना, आक्रामकता, आत्मघात की चेष्टा, अपराधीकरण में संलिप्तता; ये सब मानसिक-बौद्धिक अस्वस्थता के सूचक नहीं तो और क्या हैं? रुग्णता के ये कीटाणु इसलिए जीवन में प्रवेश कर पाए क्योंकि बाल्यकाल में स्नेह व संस्कारों की वह घुट्टी दी ही नहीं गई जो अबोध अवस्था की नींव को भावनात्मक स्तर पर परिपक्व एवं सशक्त बना पाती। प्रेम के अभाव में पले बच्चे से संवेदनशील, परमार्थी अथवा सहृदय होने की अपेक्षा रखना अतार्किक है। भावनाओं का सुकोमल पौधा वहीं पुष्पित, पल्लवित एवं संवर्द्धित होता है, जहां उसे नियमित सिंचन सहित अपेक्षित पोषण भी मिले। जड़ों का माटी से लगाव जितना गहरा होगा, भविष्य का वटवृक्ष उतना ही फलेगा।