पिछले साल बालासोर, ओडिशा में 3 रेलगाड़ियों की टक्कर हुई, जिसमें 296 यात्रियों की मृत्यु हुई और 1000 से अधिक घायल हुए। इसके पीछे वजह मानवीय चूक बताई गई। उम्मीद थी कि यह हादसा रेलवे को अपनी संचालन और रख-रखाव की प्रणाली की समीक्षा करके सुरक्षा में आगे सुधार लाने का निमित्त बनेगा, विशेषकर मानवीय चूक से होने वाली दुर्घटनाओं की संभावना न्यूनतम करने में, किंतु लगता है यह उम्मीद झूठी निकली। अब 17 जून को पश्चिम बंगाल में नई जलपाईगुड़ी के पास एक जगह ठहरी कंचनजंगा एक्सप्रेस को एक मालगाड़ी ने पीछे से आकर टक्कर मारी, जिसमें 10 लोगों की मौत हुई और 40 जख्मी हुए। इस दुर्घटना का दोष भी मानवीय चूक पर मढ़ दिया गया।
हालांकि, रेलवे सुरक्षा आयुक्त द्वारा की जा रही वैधानिक जांच अभी जारी है, लेकिन सार्वजनिक मंचों पर उपलब्ध जानकारी के आधार पर कुछ बिंदु जोड़कर, जो हुआ होगा, हम उसका अंदाज़ा लगा सकते हैं। अब तक प्राप्त जानकारी के मुताबिक, 17 जून के दिन सुबह 5 बजकर 50 मिनट पर रंगापानी और चैटरहाट स्टेशनों के बीच रेल-खंड में आसमानी बिजली गिरने से स्वचालित सिग्नल प्रणाली ठप्प पड़ गई, इसकी सूचना 6 बजकर 5 मिनट पर सिग्नल विभाग को प्रेषित कर दी गई। अब चूंकि निदान होने में वक्त लगना था तो सामान्य व सहायक नियमों के मुताबिक विभाग को पैदा हुई समस्या की घोषणा तुरंत कर देनी चाहिए थी, इससे होता यह कि कार्यप्रणाली का ढंग स्वचालित ब्लॉक सिग्नल व्यवस्था से बदलकर पूर्णरूपेण मानव-चालित व्यवस्था बन जाता, शायद तब हादसा टल जाता। फिलहाल अभी पता नहीं है कि ऐसा क्यों नहीं किया गया।
नतीजतन, यह प्रखंड स्वचालित सिग्नल नियमों के मुताबिक काम करता रहा, जो ड्राइवरों को दोषपूर्ण सिग्नल पारित करने के लिए अधिकृत करता है। चूंकि स्वचालित क्षेत्रीय व्यवस्था लागू थी तो चालक के लिए गाड़ी की गति 15 किमी प्रतिघंटा तक सीमित रखना और प्रत्येक रेड सिग्नल पर 1 मिनट रुकना जरूरी था। कंचनजंगा एक्सप्रेस सहित 6 रेलगाड़ियों ने इस संहिता की पालना की भी, लेकिन कंटेनर ले जा रही मालगाड़ी के चालक ने ऐसा नहीं किया, जिससे दुर्घटना घटी।
यदि मालगाड़ी चालक ने भी उक्त निर्देशों का पालन किया होता तो टक्कर होने से बच जाती। साफ है, मालगाड़ी की रफ्तार 15 किमी प्रतिघंटा से कहीं अधिक थी। लोको ड्राइवरों के प्रवक्ता का कहना है कि ‘पेपर लाइन क्लियर’ (जिसमें इंजन चालक को अनुमति चिट थमाई जाती है) शायद जरूरी न थी क्योंकि चालक को सावधानी वाली गति बनाए रखते हुए सिग्नल पार करने का अधिकार होता है, चाहे वह खराब हो या न हो, वैसे भी स्वचालित सिग्नल प्रणाली का सारा प्रयोजन रेलगाड़ियों को, जितना संभव हो सके, अधिक से अधिक गाड़ियों को, उचित परस्पर नज़दीकी दूरी कायम रखते हुए चलाना है। उनके अनुसार, पेपर लाइन क्लियर चिट यदि थमाई होती तो इसका सीधा अर्थ है ऐसी परिस्थिति जिसमें चालक के लिए संहिता का पालन करना जरूरी नहीं और वह सामान्य गति से आगे बढ़ सकता है। लगता है, नई सिग्नल व्यवस्था के कार्यकारी-नियमों में यह एक असमंजसपूर्ण त्रुटि है (स्वचालित प्रणाली दो स्टेशनों के बीच एक वक्त में केवल एक ही रेलगाड़ी होने की अनुमति देने वाले कड़े ब्लॉक नियम के विपरीत है)। कर्मियों के विभिन्न स्तरों पर इन नियमों की यथेष्ट समझ न होना भी एक कारक हो सकता है।
मानवीय चूक को वजह बताने वाले हादसों को रोकना इतना मुश्किल क्यों है? रेलवे द्वारा नई तकनीकें अपनाकर मानवीय दखलअंदाज़ी न्यूनतम करने के प्रयासों के बावजूद, मसलन, घरेलू तकनीक पर विकसित ‘कवच’ नामक रेल सुरक्षा प्रणाली- जो खतरे का सिग्नल पार करने के परिणामवश हुई दुर्घटनाओं को रोकने के लिए बनाई गई है– अभी भी हादसों की संख्या में मानवीय चूकों की हिस्सेदारी आधी है। यदि उक्त रेल-खंड में कवच व्यवस्था स्थापित की गई होती तो भले ही टक्कर होने से बच जाती लेकिन यह चालक को गलती करने से नहीं रोक पाती। तो आखिर क्या वजह है कि मानवीय चूक को खत्म कर पाना इतना मुश्किल है? वह इसलिए, क्योंकि यह असफलता का मुख्य कारक न होकर, व्यवस्था में गहरे तक समाई खामी का चिन्ह है। यह वह चीज़ है जिसकी स्वीकारोक्ति रेलवे विभाग द्वारा करना बाकी है। यह प्रवृत्ति मानवीय चूक को ‘सड़े सेब’ के नज़रिए से देखती और मानती है कि चंद गैर-भरोसेमंद की काहिली के सिवाय सुरक्षा व्यवस्था मूलतः चाक-चौबंद है, ऐसों की शिनाख्त कर उन्हें मिसाल के तौर पर पेश किया जाए। जबकि इस किस्म के तत्वों से छुटकारा पाने से समस्या हल नहीं होने वाली क्योंकि यह खामी व्यवस्थागत है।
दुर्घटनाओं का ठीकरा मानवीय चूक के सिर फोड़ने के प्रसंगों की गिनती घटाने के लिए, रेलवे के शीर्ष कर्ताधर्ताओं को यह स्वीकार करना जरूरी है कि हादसे के जिम्मेवार लोगों की शिनाख्त करना जांच का निष्कर्ष न होकर आरंभिक बिंदु होना चाहिए। प्रबंधन को खुद से पूछना चाहिए कि कौन से ऐसे कारक हैं जो कर्मियों को सुरक्षा के बदले अन्य ध्येय चुनने का मौका बनाते हैं। और उनमें से कितने इनके अपने निर्णयों का परिणाम हो सकते हैं। आखिरकार, संगठन के प्रत्येक स्तर पर बैठे अधिकारियों को बहु-व्यवस्थात्मक ध्येयों को लेकर समझौते करने पड़ते हैं, जिनमें कुछ ऐसे होंगे जो रेल प्रचालन में प्रत्यक्ष रूप में शामिल लोगों पर बेजा जोर डालते होंगे।
उपरोक्त स्थिति के मद्देनजर, किसी को भी हैरानी होगी कि आखिर वह क्या था जिसने मालगाड़ी चालक को स्थापित संहिता को अनदेखा करने को मजबूर किया होगा, जबकि वह भी भली भांति जानता था कि टक्कर की सूरत में उसकी अपनी जान भी जा सकती है (और यह हुआ भी)। हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं कि इसका उत्तर ‘व्यवस्था की विसंगति’ से परे नहीं है। यह हो सकता है, और यहां मैं केवल समझाने के मकसद से अंदाजा लगा रहा हूं, चालक नये स्वचालित प्रखंड सिग्नल नियमों से पूरी तरह वाकिफ और प्रशिक्षित न हो, उसने ‘पेपर लाइन क्लियर’ धारा की छूट उठाई और रेलगाड़ी सामान्य गति से दौड़ाता रहा। शायद स्टेशन मास्टर भी इस बारे में पूरी तरह प्रशिक्षित नहीं था कि उसके अधिकार क्षेत्र में सिग्नल प्रणाली में आई खामी दुरुस्त करने में यदि वक्त ज्यादा लगे, और जटिलताएं एक से अधिक बन जाएं, तब कौन से सर्वश्रेष्ठ उपाय लागू करवाए।
सुरक्षा का मामला, आखिरकार, मानवीय चूकों से कहीं अधिक व्यापक है। सुरक्षा महज प्रणाली का ठप्प पड़ जाना या उसमें आया विकार न होकर, पैदा हुई जटिलताओं के मुताबिक खुद को निरंतर ढालते जाने का परिणाम है। किसी भी घड़ी, व्यक्तिगत और रेलवे की कार्यकुशलता के प्रदर्शन में वर्तमान स्थितियों के मुताबिक समस्या होना लाजिमी है। इस किस्म की समन्वयता बनाने को जो मुश्किल बनाता है वह है संसाधनों और समय का सीमित होना। अतएव, सुरक्षा बनाए रखना एक स्थाई प्रक्रिया है, और इसकी सफलता संगठन, समूह एवं व्यक्ति की, हादसा होने से पहले, जोखिम के पहलुओं का पूर्वानुमान लगाने की काबिलियत पर निर्भर होती है। सीधी-सी बात है- घटिया सुरक्षा तंत्र और मानवीय चूक यह काबिलियत के न होने की वजह से भी है।
सुरक्षा विभाग का मुख्य ध्येय जोखिम का आकलन करना और सुरक्षा सुनिश्चित करने को लोचशील व्यवस्था प्रदान करना है। जब रेलवे आला अधिकारियों ने इस मामले में भी मालगाड़ी चालक को दोषी ठहराने में जरा देर नहीं लगाई, ऐसा उन्होंने रेलवे व्यवस्था में पैठ कर चुकी आदत की वजह से किया है। समय आ गया है कि रेलवे विभाग परंपरागत ढर्रे के सिद्धांत को छोड़ दे। जांच का दायरा और कार्रवाई रेल परिचालन में केवल सीधे तौर पर शामिल लोगों तक सीमित रखने से व्यवस्था की वह खामियां दूर नहीं होंगी, जिनकी वजह से दुर्घटनाएं घटती हैं।
लेखक भारतीय रेल के पूर्व महाप्रबंधक हैं।