आखिरकार केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों की कानूनी लड़ाई तार्किक परिणति तक पहुंच ही गई है। देश की शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया है कि किसी भी राज्य के खनिजों पर देय रॉयल्टी एक कर नहीं है। साथ ही स्पष्ट किया कि राज्यों के पास खानों, खनिजों और खनिज-युक्त भूमि पर कर लगाने की विधायी क्षमता निर्धारित है। दरअसल, इस सारे विवाद के मूल में खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 रहा है। इस अधिनियम का हवाला देते हुए केंद्र सरकार की दलील थी कि केवल संसद ही खनिजों पर कर लगा सकती है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की बैंच ने इस बाबत फैसला सुनाया कि कानून राज्यों को खानों और खनिज विकास पर कर लगाने से प्रतिबंधित नहीं करता है। निश्चित रूप से इस फैसले से प्राकृतिक संपदा से संपन्न गरीब राज्यों मसलन झारखंड और ओडिशा को विशेष रूप से लाभ होने की उम्मीद जगी है। ये राज्य केंद्र द्वारा खानों और खनिजों पर लगाये गए हजारों करोड़ों रुपये के करों की वसूली की मांग करते रहे हैं। निस्संदेह, यदि केंद्र सरकार राज्यों की माली हालत के मद्देनजर उनकी जरूरतों तथा आकांक्षाओं के प्रति संवेदनशील होती तो निश्चित रूप से इस विवाद को बातचीत के जरिये सुलझाया भी जा सकता था। जब लंबे समय तक इस मामले का निस्तारण नहीं हो सका तो अन्तत: देश की शीर्ष अदालत को गतिरोध तोड़ने के लिये हस्तक्षेप करना ही पड़ा। इसमें दो राय नहीं है कि केंद्र और राज्यों के बीच कई मुद्दों पर टकराव कोई नई बात नहीं है। लेकिन देखने में आया है कि हाल के वर्षों में यह विवाद आम बात हो चला है। निश्चित रूप से किसी भी राष्ट्र की संघीय व्यवस्था के लिये ये टकराव व विवाद कोई शुभ संकेत तो कदापि नहीं हैं। इसमें दो राय नहीं कि कुछ मुद्दे सहमति, सामंजस्य और संवेदनशीलता से भी सुलझाए जा सकते हैं। जिससे राज्यों के आर्थिक संकट को भी दूर किया जा सकता है।
दरअसल, इस बात पर गंभीर विमर्श की जरूरत है कि हाल के वर्षों में केंद्र-राज्यों के बीच कलह के मामले लगातार क्यों बढ़ते जा रहे हैं। निस्संदेह, इस टकराव के राजनीतिक निहितार्थ भी हैं। इस विवाद को हाल में संसद में प्रस्तुत आम बजट के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है। यही वजह है कि वर्ष 2024-25 के केंद्रीय बजट में राजग गठबंधन में शामिल बिहार तथा आंध्र प्रदेश के लिये घोषित विशेष पैकेजों ने विपक्ष को गैर भाजपा शासित राज्यों से कथित भेदभाव के आक्षेपों के साथ सवाल उठाने का मौका दिया है। विपक्ष ने केंद्र सरकार पर राजनीतिक रूप से पक्षपात वाला बजट बनाने का आरोप लगाया है। इतना ही नहीं कई विपक्षी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने बजट में भेदभाव का आरोप लगाते हुए आगामी 27 जुलाई को होने वाली नीति आयोग की बैठक में शामिल न होने की बात कही है। जो कि केंद्र व राज्यों के बीच टकराव की अप्रिय स्थिति को ही दर्शाता है। यदि अतीत के पन्ने पलटें तो वर्ष 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, सरकारिया आयोग ने सहकारी संघवाद के सिद्धांतों के आधार पर सामंजस्यपूर्ण संघ-राज्य संबंधों की जरूरत पर बल दिया था। वहीं दूसरी ओर सरकारिया आयोग ने चेतावनी देते हुए स्पष्ट किया था कि देश में शक्तियों के अधिक केंद्रीयकरण ने लोगों की समस्याओं का समाधान करने की बजाय उसमें और वृद्धि कर दी है। केंद्र सरकार के लिये बेहतर होगा कि आयोग की रिपोर्ट पर पड़ी धूल को साफ करके उसका बेहद बारीक व संवेदनशील ढंग से अध्ययन करे। इस तरह के आक्षेपों के बीच एक बात तो साफ है कि एक शक्तिशाली केंद्र भारत जैसे विकासशील देश को विकसित भारत में कदापि नहीं बदल सकता है। वहीं केंद्र व राज्यों में सामंजस्य व सहयोग के रिश्ते भारत जैसे संघीय ढांचे वाले देश को निश्चित तौर पर मजबूती ही देंगे। कोर्ट के हालिया फैसले को केंद्र को एक सबक के रूप लेना चाहिए। अन्यथा केंद्र व राज्यों में टकराव का यह अंतहीन सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा।