जब भी होता सम्मान
स्नेह के बोझ तले दब जाता हूं
कोशिश करता हूं चुका सकूं
यह कर्ज जल्द से जल्द
मुझे हकदार मान जो दिया गया सम्मान
उसे करके समाज की सेवा ज्यादा से ज्यादा
मय ब्याज अदा कर शीघ्र उऋण हो सकूं
इसी चिंता में दिन भर रहता हूं।
सम्मान बढ़ा देते हैं जिम्मेदारी
डर भी लगता है आ जाये नहीं अभिमान
कि जो असली कद है उसके बजाय
अपनी विशाल प्रतिमाओं को ही
समझ न बैठूं असली
खिसक न जाये जमीन कहीं पैरों के नीचे की
उड़ने न लगूं मैं कहीं हवा में
इसीलिये सम्मानों से
बचने की कोशिश करता हूं
फिर भी जब जबरन मिलता है
जी-जान लगाकर खुद को ज्यादा से ज्यादा
निर्मल करने लग जाता हूं
सूरज की किरणों को जैसे
दर्पण करता प्रत्यावर्तित
कर सकूं उसी के जैसा ही मैं भी अर्पित
सम्मान उसी जन-मानस को
जो मुझको देता है समाज
रह जाये नहीं कुछ शेष
सिवा कर्मों के मेरे, पास मेरे।
हेमधर शर्मा