राजेन्द्र गौतम
सपने में भी सुन रहे इस गुड़हल के कान
शेफाली जब मस्त हो छेड़े पंचम तान।
तारापथ से उड़ रहे शताब्दियों के केश
वेगवान रथ स्वप्न का जाता देश-विदेश।
भोर शुभ्र ‘कामायनी’ ‘कनुप्रिया’-सी शाम
रात ‘उर्वशी’ मद भरी चाहों का संग्राम।
वह मिलना अब हो गया दीपदान की सांझ
शंखों का उद्घोष है तट पर बजती झांझ।
वह मिलना अब हो गया पावन मंत्रोच्चार
नव परिभाषा में बंधे सभी देह-व्यापार।
वह मिलना अब हो गया वेद-ऋचा का पाठ
यह तन चंदन हो गया नहीं तिरस्कृत काठ।
वह मिलना अब हो गया संस्कृत-तुलसी-गंध
मन में उद्घाटित हुए कितने लोक-प्रबंध।
वह मिलना अब दे गया मुझ को यह संदेश
जन के मन के क्लेश सब मेरे ही हैं क्लेश।