वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त की मृत्यु के बाद उनका पुत्र राजा बना। वह भोजन प्रिय था। वह शुद्धता का भी विशेष ध्यान रखता था तथा सोने की थाली में भोजन किया करता था। उसे लोग ‘भोजन शुद्धिक राजा’ कहने लगे थे। राजा ने यह आदेश दे रखा था कि यदि कोई दूत उससे मिलना चाहे, तो उसे तुरंत उनके पास पहुंचाया जाए। एक व्यक्ति के मन में आया कि वह भोजन करते समय राजा के पास पहुंचकर अपनी आंखों से देखे कि वह सोने की थाली में क्या-क्या खाता है? मौका मिले, तो भोजन को चखकर भी देखे। एक दिन अचानक वह ‘मैं दूत हूं’ कहकर राजा के महल में घुस गया। वह वहां तक पहुंच गया, जहां राजा भोजन कर रहा था, फिर मौका मिलते ही उस व्यक्ति ने झपटकर थाली में से एक कौर उठाया और मुंह में डाल लिया। अंगरक्षक ने तो सिर काटने के लिए तलवार उठा ली, पर राजा ने उसे रोकते हुए उस व्यक्ति से कहा, ‘डरो नहीं, छककर भोजन करो।’ उसके भरपेट भोजन करने के बाद राजा ने पूछा, ‘तुम किसके दूत हो?’ उसने कहा, ‘राजन, मैं तृष्णा का दूत हूं। मैं काफी समय से आपके अद्भुत भोजन से तृप्त होना चाहता था। राजा का विवेक जाग गया कि भूख व जीभ ही तो लोगों से पाप कर्म कराती है। मैं राजा होकर भी पेट का दूत हूं। राजा ने उसी समय सात्विक भोजन करने का संकल्प ले लिया। प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी