खरी-खरी कहने के लिये चर्चित केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने जीवन और चिकित्सा बीमा प्रीमियम पर लगाए जा रहे 18 फीसदी जीएसटी को खत्म करने की तार्किक मांग की है। इस प्रासंगिक मुद्दे को उठाकर गडकरी ने करों के मानवीय पक्ष को ही उजागर किया है। निस्संदेह, जीएसटी को कम करना एक मानवीय पहल होगी। वह भी उस देश में जहां 73 फीसदी लोगों के पास चिकित्सा बीमा नहीं है। ऐसे में बीमा प्रीमियम पर 18 फीसदी जीएसटी लगाना क्या न्यायसंगत होगा? दरअसल, महंगे प्रीमियम व उस पर लगने वाले करों के चलते करीब पच्चीस से तीस फीसदी लोग हर साल अपने चिकित्सा बीमा का नवीनीकरण नहीं कर पाते। निस्संदेह, केंद्रीय मंत्री गडकरी ने बीमा धारकों की दुखती रग पर हाथ रखा है। यह विडंबना ही है कि भविष्य में जीवन की अनिश्चितताओं से मुक्ति व अपने तथा परिवार की स्वास्थ्य सुरक्षा चाहने वाले व्यक्ति पर करों का अनुचित बोझ डाला जाता है। जाहिर है कि करों का अधिक बोझ बीमा विस्तार से जुड़ी नीतियों को प्रोत्साहित करने की सोच के विरुद्ध है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि कोई व्यक्ति जीवन की तमाम अनिश्चितताओं के चलते अपनी व परिवार की सुरक्षा हेतु चिकित्सा बीमा प्रीमियम का भुगतान करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन व सेहत बीमा के प्रीमियम पर टैक्स लगाना जीवन की अनिश्चितताओं पर टैक्स लगाने जैसा ही है। वैसे भी जीवन के उत्तरार्ध में तमाम चिकित्सा समस्याओं से जूझने वाले बुजुर्गों के लिये यह जीएसटी चुकाना एक अन्याय जैसा ही है क्योंकि इनमें से अधिकांश की यह सेवानिवृत्ति की उम्र होती है। इस उम्र तक आते-आते उसके आय के स्रोत सिकुड़ने लगते हैं। वह अपने बच्चों पर अाश्रित होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जीवन के जोखिम के लिये बीमा कराने वाले व्यक्ति के प्रीमियम पर अधिक कर लगाना एक तरह से बेबात का जुर्माना वसूलना जैसा है। खासकर समाज में कमजोर वर्ग के लोगों के लिये तो यह कर बेहद परेशान करने वाला ही है, जो जैसे-तैसे प्रीमियम के लिये पैसा जुटाने का उपक्रम करते हैं।
यह भी एक हकीकत है कि ज्यादा कर लगाने से बीमा उत्पादों का दायरा बढ़ाने के तमाम प्रयास निरर्थक ही सिद्ध होते हैं। यही वजह है कि देश का बीमा उद्योग लंबे समय से अपने उत्पादों की अपील बढ़ाने के लिये जीएसटी में कटौती की वकालत करता रहा है। यह बात स्पष्ट है कि सेहत व जीवन बीमा प्रीमियम पर जीएसटी की दर कम करने से न केवल बीमा करवाना अधिक किफायती हो जाएगा, बल्कि इसके प्रसार को भी अपेक्षित बढ़ावा मिलेगा। सही मायनों में इससे व्यापक वित्तीय सुरक्षा और स्वास्थ्य कवरेज के विस्तार में मदद मिलेगी। जिससे नये उपभोक्ता बीमे के दायरे में लाये जा सकेंगे। बीमा कंपनियां जीएसटी कम होने पर नये उपभोक्ताओं को आकर्षित कर सकती हैं। दरअसल, भारतीय बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण यानी आईआरडीएआई के वर्ष 2022-23 के लिए जारी आंकड़ों के अनुसार भारत के सकल घरेलू उत्पाद में जीवन बीमा की भागीदारी महज 3.2 फीसदी व स्वास्थ्य बीमा की भागीदारी 0.94 फीसदी है। लोकतंत्र में सरकार की प्राथमिकता होती है कि सामाजिक कल्याण के साथ नागरिकों की आर्थिक स्थिरता को बढ़ावा दे। लेकिन वर्तमान कराधान नीति सामाजिक कल्याण की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। ऐसे में बीमा प्रीमियम पर जीएसटी हटाकर सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि अधिक नागरिकों को अतिरिक्त वित्तीय तनाव के बिना जीवन की अनिश्चितताओं में सुरक्षा मिल सके। निस्संदेह, केंद्र सरकार को नितिन गडकरी के सुझाव पर न केवल गंभीरता से विचार करना चाहिए बल्कि इस दिशा में शीघ्र कदम भी उठाना चाहिए। जीवन और चिकित्सा बीमा प्रीमियम पर जीएसटी हटाना सिर्फ राजकोषीय नीति का मामला भर नहीं है, बल्कि देश के लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण की सुरक्षा के लिये प्रतिबद्धता भी दर्शाता है। सरकार यदि बीमा प्रीमियम पर जीएसटी को हटाये व आयकर में छूट में वृद्धि करे तो देश के लोगों में जीवन व सेहत बीमा लेने का उत्साह बढ़ेगा।