पिछले लगभग पच्चीस सालों से बजट प्रस्तुत करते समय अमूमन प्रत्येक वित्त मंत्री अपने संबोधन की शुरुआत भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्ती भूमिका का विशेष रूप से बखान से करता आया है। बजटीय भाषणों में इसका गुणगान करने को वे ‘किसान की आज़ादी’ से लेकर खेती को देश की ‘आर्थिकी की जीवनरेखा’ बताने जैसे अनेक जुमले इस्तेमाल करते रहे। अरुण जेटली ने कृषि आय में बढ़ोतरी को सरकार की प्राथमिकता में एक बताया था। निर्मला सीतारमण ने भी कृषि की महत्ता को मान्यता देते हुए इसे अपनी नौ मुख्य प्राथमिकताओं में एक बताकर सम्मानीय स्थान पर रखा है। लगभग हर बजट में जिस प्रकार कृषि को आगे बढ़ाने की बातें की गईं, उसके मुताबिक तो अब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कायाकल्प हो चुकी होती। लेकिन ‘ध्यान का केंद्र’ ठहराए जाने के बावजूद एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि कृषि उबरने की राह पर है। यह इसलिए क्योंकि अधिक जोर फसल उत्पादन बढ़ाने पर बना रहा– इस उम्मीद से कि इससे किसान को अधिक कीमत और आय मिल पाएगी–परंतु कृषि संत्रास उलटा और बढ़ता गया। यदि सफल हरित क्रांति और प्रत्येक बजटीय सहायताओं के बावजूद किसान की खेती से होने वाली औसत वार्षिक आय 10,218 रुपये जितनी है तो खेती पर गहराए गंभीर संकट से इनकार नहीं किया जा सकता।
यहां पर हकीकत की जांच यह है : अनुमानों के अनुसार कर्नाटक में पिछले 15 महीनों में लगभग 1,182 किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी है। वहीं महाराष्ट्र में इस साल जनवरी से जून के बीच 1,267 कृषकों को खुदकुशी करनी पड़ी, इसमें 557 मामले अकेले विदर्भ क्षेत्र से हैं।
किसानों द्वारा आत्महत्या कोई नया चलन नहीं है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के पिछले 27 साल के रिकॉर्ड ऐसे मामलों की बहुत बड़ी संख्या दर्शाते हैं। जबकि यह काल वह था जिसमें हर साल बजट में कृषि के लिए पिछले साल से अधिक राशि का प्रावधान किया जाता रहा। वर्ष 1995 से 2014 के बीच, 2,96,438 कृषकों को अपना जीवन समाप्त करने का अतिशयी कदम उठाना पड़ा। वर्ष 2014 से 2022 के बीच यह आकंड़ा 1,00,474 रहा। सरल शब्दों में, 1995 से 2022 के मध्य लगभग 4 लाख किसानों ने आत्महत्या की है और वह भी ऐसे वक्त में जब हर साल बजट में कृषि को उबारने का वादा किया जाता रहा। बजटीय राशि और कृषि संत्रास जारी रहने के बीच कोई मेल नहीं है।
तेलंगाना अब कृषि ऋणों को माफ करने के दूसरे चरण में है। इस प्रक्रिया में 6.4 लाख किसानों का 6.198 करोड़ रुपये कर्ज माफ किया जाएगा। जिसमें प्रत्येक किसान को कुल ऋण में 1.5 लाख रुपये की राहत मिलेगी। प्रथम चरण में, लगभग 11.34 लाख कृषकों के बैंक खाते में कुल 6,190 करोड़ रुपये डाले गए। तीसरे चरण में, जो इस महीने शुरू होगा, 17.75 लाख किसानों को 12,224 करोड़ रुपये की ऋण छूट मिलेगी। कुल मिलाकर, सूबे में 35.5 लाख किसानों को कर्ज में राहत मिलेगी। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि अन्य राज्यों के लिए कृषक के सिर पर बढ़ता जा रहा कर्जा चिंता का विषय नहीं है।
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) ने संसार की मुख्य 54 अर्थव्यवस्थाओं द्वारा किसान को सब्सिडी के रूप में दी जाने वाली मदद का अध्ययन करने के बाद जो नवीनतम वैश्विक विश्लेषण पेश किया है, उसके अनुसार भारत ही एकमात्र देश है जिसका किसान अपना घाटा पूरा करने को यथेष्ट बजटीय प्रावधानों से महरूम है। यह रिपोर्ट बताती है कि भारतीय किसान वर्ष 2000 से साल-दर-साल घाटा खा रहा है। क्या अर्थव्यवस्था का कोई अन्य क्षेत्र लगातार होते घाटे में जीवित रह पाता?
भले ही हम कार्यविधि में खामियां ढूंढ़ें लेकिन तथ्य यही रहेगा कि तकनीक विकास की कितनी भी मदद करें या उत्पादकता बढ़ाने को अन्य योजनाओं को कितना भी धन दें, लेकिन इससे किसी किसान की व्यक्तिगत आय में बढ़ोतरी होने से रही। दुनिया में भी कहीं और ऐसा नहीं हो पाया। ओईसीडी का अध्ययन इस तथ्य पर मुहर लगता है।
यह वही है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में ‘वाया बठिंडा’ कहते हैं अर्थात् काम या उपाय व्यर्थ घुमा-फिराकर करना। क्यों नहीं हम कृषि आय में बढ़ोतरी के उपाय, इसमें प्रयुक्त अवयवों अथवा तकनीक के आपूर्तिकर्ताओं के माध्यम से करने के बजाय सीधी राह से करते? अनेकानेक अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे लगभग सारा मुनाफा आपूर्तिकर्ताओं की जेबों में चला जाता है और किसान वहीं का वहीं यानी सबसे निचले पायदान पर रह जाता है। यहां तक कि आपूर्ति शृंखला के मामले में भी, अंतिम छोर पर हुए खुदरा मुनाफे में किसान का हिस्सा महज 5-10 फीसदी या इससे कम रहता है। यूके में हुआ हालिया अध्ययन कहता है कि जहां स्ट्रॉबेरी और रसभरी के विपणन से खुदरा मुनाफा 2021 में बढ़कर 21 पेंस हो गया, वहीं इसमें किसान के हिस्से सिर्फ 3.5 पेंस आए। इससे पहले के कुछ अध्ययन दर्शाते हैं कि रोजमर्रा इस्तेमाल की जिन छह आवश्यक वस्तुओं पर कोई उपभोक्ता निर्भर है, किसान को उनसे प्राप्त खुदरा मुनाफे में केवल 1 फीसदी मिलता है। इसलिए, आपूर्ति शृंखला को सुदृढ़ करने पर जोर जरूरी है जैसा कि नवीनतम बजट में भी कहा गया है, यह तभी कारगर हो पाएगा यदि मुख्य उत्पादक यानि कृषक के अधिक हिस्से की गारंटी सुनिश्चित हो।
बजट में कृषि क्षेत्र के लिए कुल बजट का महज 3.15 प्रतिशत धन रखना, वह भी तब जब देश की लगभग आधी आबादी का रोजगार खेती हो, इससे कुछ बहुत अधिक प्राप्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस साल कृषि क्षेत्र के लिए 1.52 लाख करोड़ रुपये रखे गए हैं। पिछले साल के मुकाबले इजाफा भले ही 26000 करोड़ रुपये अधिक है, किंतु आवश्यक रूप से गैर-योजनागत खर्चों के लिए है, पहले से चली आ रही योजनाओं के लिए। यह देखते हुए कि कृषि बजट में 60,000 करोड़ रुपये वह मद भी शामिल हैं, जो प्रधानमंत्री किसान निधि योजना के लिए है, जिसके तहत लाभार्थी किसान के बैंक खाते में प्रति माह 500 रुपये दिए जाते हैं, तब कृषि बजट हेतु पीछे केवल 92,000 करोड़ रहे। कोई हैरानी नहीं कि पारिवारिक उपभोग व्यय सूचकांक 2022-23 हमें बताता है कि ग्रामीण क्षेत्र में एक परिवार का मासिक औसतन व्यय महज 3,268 रुपये है। अगर खेती से आय व्यावहारिक नहीं होगी तो जाहिर है ग्रामीण इलाकों में लोग खरीद करने में कम पैसे खर्चेंगे।
इसलिए, कृषि की स्थिति पर गंभीर होकर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। सर्वप्रथम गौर जीवनयापन जैसे अति महत्वपूर्ण मुद्दे पर करना होगा ताकि खेती से आय समाज के अन्य तबकों जितनी हो पाए। इसको लेकर मेरा सुझाव है कि राष्ट्रीय कृषक आय एवं भलाई आयोग बनाया जाए, जो तयशुदा समय के भीतर, कृषि आय बढ़ाने के निश्चित उपाय बताए। इसकी शुरुआत न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनन बाध्यता बनाकर की जाए।
लेखक कृषि एवं खाद्य मामलों के विशेषज्ञ हैं।