सीमा गुप्ता
सुबह का वक़्त आमतौर पर सब घरों में व्यस्तता का होता है या यूं कहा जाए कि वक़्त को भी वक़्त नहीं होता। भागदौड़, इसने जाना, उसने जाना, टिफ़िन, नाश्ता, पूजा-पाठ इतने सारे काम। मालिनी आज भी इस सबमें व्यस्त थी। फ़ोन की घंटी बजी देखा नेहा का फ़ोन था, सोचा बाद में करती हूं, तबियत पूछने के लिए किया होगा। कई दिन से अनमनी और सुस्त हूं, वो जानती है इसलिए दफ़्तर जाने से पहले कर रही होगी फ़ोन।
फिर ख़्याल आया कि कोई ज़रूरी बात न हो, कर ही लेती हूं वापस कॉल अभी, सोचकर मालिनी ने फोन मिला लिया।
शादी की सालगिरह की बहुत-बहुत बधाई मालिनी, आज पार्टी दे रही हो न, उधर से नेहा की खनकती हुई आवाज़ सुनाई दी।
एक पल को लगा कि आज क्यों बधाई दे रही है नेहा। किसकी सालगिरह नेहा?
अरे! 29 जुलाई नहीं है क्या आज, आज ही तो शादी की सालगिरह है तुम्हारी, क्या बात, याद नहीं क्या तुम्हें? इसका मतलब तुमने शैलेंद्र को भी विश नहीं किया होगा। क्या शैलेंद्र ने भी नहीं विश किया?
क्या यार तुम दोनों ही बोरिंग हो, अपनी शादी की सालगिरह भी कोई भूलता है क्या?
मालिनी हैरान, ऐसा तो नहीं होता कि ज़रा भी याद न आए कि जुलाई का महीना है, शादी की सालगिरह आने वाली है। नेहा के याद दिलाने पर भी सोचना पड़ा, तिथि पर भी ज़ोर देना पड़ा कि किस दिन हुई थी शादी।
नेहा जानती थी कि मालिनी भुलक्कड़ है। जन्मदिन वग़ैरह भी कुछ याद नहीं रखती लेकिन शादी की सालगिरह याद करवाने पर भी सोचने लगेगी, ऐसा तो नहीं होना चाहिए। माना कि हालात कुछ ठीक नहीं चल रहे मन के लेकिन जीना है तो बहुत कुछ भूलना भी पड़ता है। नज़रअंदाज़ भी करना पड़ता है।
ख़ैर, बधाई और शुभकामनाओं के आदान-प्रदान के बाद फ़ोन कट जाता है। मालिनी अपने काम में लग जाती है। उसका पति शैलेंद्र भी कहीं जाने की तैयारी में व्यस्त था। न मालिनी ने उसे बधाई दी न शैलेंद्र ने ही उसे कुछ कहा जबकि नेहा से बात उसके सामने ही हो रही थी।
बेटी और शैलेंद्र दोनों अपने काम पर निकल गए। हालांकि, मालिनी आयोजनों से बचती है। सेलिब्रेशन का कोई शौक नहीं उसे लेकिन कोई करे तो बुरा भी नहीं लगता। बेटी यूनिवर्सिटी में पढ़ती है। एम.एससी. फ़ाइनल की छात्रा है। अपनी पढ़ाई, प्रोजेक्ट और दोस्तों में व्यस्त रहती है। कॉलेज से घर, घर से जिम यूं करते-करते रात के दस बज जाते हैं। मां-बाप के पास बैठने का वक़्त ही नहीं है। करिअर, मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी, ख़ूब पैसा कमाने की अंधी दौड़, अपने कमरे, लैपटॉप, सोशल मीडिया, दोस्त, पढ़ाई की दुनिया तक सीमित कर देती है बच्चों को। बेटी यानी मृदु को भी याद नहीं कि मां-पापा की शादी की सालगिरह है, विश करना है। मालिनी और शैलेंद्र इस बात पर कभी ध्यान नहीं देते क्योंकि वो ख़ुद ही कुछ करना पसंद नहीं करते। उनकी इसी बात को कहकर मृदु अक्सर ताना भी देती है कि क्या फ़ायदा आप लोगों के लिए कुछ करने का जब आपको पसंद ही नहीं। मेरे कहने पर कहीं जाना नहीं, किसी को बुलाना नहीं कोई सेलिब्रेशन नहीं तो वो अपना मूड क्यों ख़राब करे और डांट भी खाए।
अब सबके चले जाने के बाद मालिनी के पास सोचने का वक़्त ही वक़्त था। वो निढाल सोफ़े पर बैठ गई और सोचने लगी। क्या वाक़ई उसे सालगिरह या जन्मदिन मनाना बेकार लगता है, फ़ालतू की बातें लगती हैं?
नहीं, ऐसी नहीं थी वो। माना शादी से पहले भी कोई बहुत अच्छे हालात नहीं थे मायके में, ख़ुशनुमा माहौल नहीं रहता था। वहां पिता के जिद्दी और ग़ुस्सैल स्वभाव के कारण और परिवार के प्रति अनदेखी भी बहुत बड़ा कारण थी। वहां भी जीवन यूं ही बचते बचाते, मां-भाई-बहनों के ख्याल में गुजर गया। समय से पहले ज़िम्मेदारी और संघर्ष ने ज़िंदगी के गहरे फ़लसफ़े समझा दिए।
फिर शादी हुई, लव मैरिज। दस साल में रिश्ता बहुत बार सम्भला, बिगड़ा लेकिन फिर अंत में दोनों एक हुए। आज भी याद है शादी का दिन, किसी को कोई ख़ुशी नहीं थी। यहां तक की मालिनी को भी बस ये था कि शादी हो रही है और शैलेंद्र से जिससे उसने बेहद प्यार किया और इस दिन के इंतज़ार में 11 साल गुज़ार दिए। शादी की पहली रात भी पता नहीं बिना किसी उमंग-तरंग, सुनहरे सपनों, मखमली अहसासों से दूर सो कर गुजर गई। इतने लम्बे वक़्त की जि़द पलों में बिखर गई। आम पति-पत्नी की तरह जीवन गुजरने लगा। बेटी हुई, बेटा हुआ जो चल बसा। शैलेंद्र का परिवार शैलेंद्र और मालिनी से ख़फ़ा ही रहा लेकिन साथ रहता रहा। दुख-सुख, समय के उतार-चढ़ाव दोनों अकेले ही सहते रहे और दिन निकलते रहे। मालिनी यह जान चुकी थी कि ज़िंदगी सर्वाइवल की एक जंग है जो हर किसी को झेलनी होती है। विपरीत लहरों में समंदर की सवारी है।
हर साल सालगिरह का दिन यूं ही नीरस, बोझिल, भारी गुजरता। 25वीं सालगिरह आ गई। इतने सालों में मुस्कुरा कर कह देते हैं ‘हैप्पी मैरिज एनीवर्सरी’ एक-दूसरे को। कभी-कभी मृदु के इसरार पर बाहर खाना खाने चले गए या केक काट लिया बस और ये भी यंत्रवत् मृदु की ख़ुशी के लिए। हर कदम एक नई चुनौती ने जीवन की छोटी-बड़ी ख़ुशियों को निगल लिया। मन उदासी की काली चादर ओढ़े रहता जिसमें से पूर्णिमा का चांद अपने ज़िद्दीपन से थोड़ा झांक लेता तो मन थोड़ी हिम्मत बटोर दोबारा खड़ा हो जाता।
घर की दहलीज़ लांघकर आना और दूसरे घर की दहलीज़ के पीछे रहना। घर-गृहस्थी संभालना, सुखी और शांति का माहौल बनाए रखना। ऐसे में जब सब विरोधी सामने हों और हमेशा नीचा दिखाने को तैयार हों तो आपका ज़िंदा बच पाना बहुत बड़ी जीत के रूप में दर्ज होना चाहिए। जिसे सब इग्नोर कर देते हैं कि हर औरत ऐसा ही करती है, उसे ऐसा ही करना चाहिए। कितनी बार टूटती है, कितनी बार गिरती है, संभलती है, देह पर लगी चोट तो सब देख लेते हैं लेकिन मन की किरचें किसी को दिखाई नहीं देंती। लहूलुहान हाथ और उखड़ती सांसें केवल स्वयं को सुनाई देती है, कोई कांधा नहीं देता। नीलकंठ केवल शिव नहीं होते नीलकंठ वो हर शख़्स होता है जो ज़हर के घूंट कंठ में रख लेता है लेकिन बाहर नहीं थूकता कि सामने वाले जलकर राख न हो जाएं। शैलेंद्र बिल्कुल ऐसे ही थे बहुत लांछन, अपमान, तिरस्कार झेला लेकिन पलटकर कभी न अपमान किया न नज़रअंदाज़ किया मां-बाप, भाई-बहन को, परिवार का एक समर्पित बेटा, जिसका सुख परिवार के साथ रहने में था। शैलेंद्र की यही बातें मालिनी को बहुत पसंद थीं, नापसंद था तो केवल ये कि अपने आत्मसम्मान को दांव पर लगा देना लेकिन शैलेंद्र अपने स्वभाव से मजबूर हर अन्याय पर चुप रहा जिसका ख़मियाज़ा मालिनी की सेहत ने भुगता। चुप रहना किसी समस्या का हल नहीं होता, कभी अपनी बात सुनाने के लिए शोर मचाना ज़रूरी हो जाता है।
बड़े-बुजुर्गों की बातें सच साबित हो बताने लगती कि वक़्त-वक़्त की बात है, वक़्त ही बलवान है, वक़्त ही सब करवाता है, वक़्त ही बनाता-बिगाड़ता, वक़्त ही गिराता उठाता है। वक़्त अगर है अच्छा तो सब अच्छा हो जाता है। वक़्त अगर बुरा हो तो हर कोई मुजरिम हो जाता है। भाई भी बाहर का रास्ता दिखाता है। ऐसा बहुत कुछ देखा, सुना, समझा। ज़िंदगी अच्छे-बुरे अनुभवों, कहानियों का अधूरा उपन्यास लगता है जिसकी समाप्ति किरदार के रोल के ख़त्म होने के बाद भी नहीं होती।
बस इस तरह उम्र बहुत तेज़ी से बढ़ती रही। भीतर की बेचैनियां मन के कोनों और दरारों में भी क़ाबिज़ होती गईं। प्रश्नों के उत्तर मिलते तो नए प्रश्न खड़े हो जाते। एक घुटन पैदा होती जो आचार, व्यवहार, विचार का दम घोंटने लगती। अपने निर्णय को कटघरे में रख स्वयं को स्वयं ही दोषी करार देती तो कभी सारा दोष भाग्य का है जो पल-पल कठिन परीक्षा लेने को तत्पर रहता है। उम्र के पचासवें पड़ाव पर आते-आते नदी में पत्थरों से टकराते, टूटते, संभलते, बिखरते बहना आ गया है कि अब किसी बात पर अचरज नहीं होता। बड़े से बड़ा दुख भी ज़ख़्मी नहीं करता बल्कि आलिंगन करता है।
शैलेंद्र और मालिनी दोनों एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते। शैलेंद्र दफ़्तर की हर छोटी-बड़ी बात मालिनी से करता है और मालिनी तो अपना संसार शैलेंद्र और मृदु में ही पाती है। शैलेंद्र से दूर जाने का ख़्याल भी डरा देता है। बिना किसी बात के रातों को उठकर रोने लगती है।
सोचती है सब कुछ ठीक तो है लेकिन कुछ है जो खटकता है स्त्री के ख़िलाफ़ पहले घर के मसले होते हैं, कुछ ऐसी बातें होती हैं जो बातें नहीं नश्तर होते हैं। आंखें गीली पर दिल पत्थर कर देती हैं। मालिनी ने अपनी नौकरी छोड़ घर संभालने को ज़रूरी समझा था। शायद बात-बात पर यही बात खटकती है। जब-जब उन दोनों के बीच बहस हुई लेकिन फिर मालिनी ये भी सोचती है कि हृदय में लिए बेइंतहा प्यार, चूल्हे चौके, खेत-खलिहान में उलझी स्त्रियों को, नहीं था कोई मतलब निज एकांत से, पिंजरा, जाल, कैद जैसे शब्दों से नितांत अनजान, लगी रहती बुनने घोसला तो उसे भी नहीं अफ़सोस होना चाहिए। समय के हाथ में सब कुछ है जो उस वक़्त की ज़रूरत थी उसने वैसा ही किया और बेटी मृदु आज बहुत अच्छा कर रही है। मन से भी तो हारी हुई थी हां, शायद शैलेंद्र उसे नौकरी करने देते, साथ देते तो वो नौकरी न छोड़ती लेकिन अब अतीत की गठरी ढोना समझदारी नहीं है।
कल, आज और कल में जीवन हंसता-रोता, गम और ख़ुशी की सौग़ातें संभालता, सहेजता, मान-मनौवल करता बीत जाता है न जाने किस भ्रम में, किस उन्माद में, आदमी डोलता फिरता है…।
यही सब सोच ही रही थी कि घंटी बजी, शैलेंद्र वापस आ गए थे, चलो आज कहीं घूमने चलते हैं। बताओ कहां मन है जाने का?
मालिनी मुस्काई और कहा, कहीं नहीं, आज नेटफिलिक्स पर मन-पसंद फ़िल्म देखेंगे और खाना बाहर से मंगवा लेंगे। गर्मी बहुत है और तबियत भी कुछ ठीक नहीं है।
ठीक है, शैलेंद्र हामी भरता है और कमरे में जाकर कपड़े बदल कर टीवी चालू कर मालिनी को आवाज़ लगाता है।
मालिनी ने आज क्रच के बच्चों को छुट्टी कर दी, आज का बड़ा दिन अपनी सहजता के साथ मुस्कुरा रहा था कि यही जीवन है। थोड़ी हंसी, थोड़ा ग़म लेकिन साथ में हमदम, प्यार में प्यार से।
अपनी लिखी कविता की पंक्तियां याद आ रही थीं मालिनी को……
जीवन के बाद जीवन होगा ही
किसने जाना, कैसा होगा, किसका होगा,
होगा भी या नहीं होगा
तो एक यही ज़िंदगी है मेरी तुम्हारी
सताया नहीं जा सकता एक-दूसरे को
बनाना है बचाना है
एक में दूसरे को
ऐसा करते हैं
लो वादा करते हैं
इक-दूजे की गंध को
सुवास को अपनी सांसों में संजोते हैं
स्पर्श को बांहों में समेट लेते हैं
प्रेम को रगों में बहने देते हैं
एक-दूसरे की अनुपस्थिति में
ये प्रेम आकार लेगा
हम कायम रहेंगे
कोई एक, दूसरे के भीतर रहेगा
कोई रोना-धोना नहीं होगा
मैं देखूंगी तुम्हारी आंखें
तुम्हारे मन में होगा मेरा मन
क्योंकि प्रेम जीवित रहेगा।