राजेंद्र कुमार कनोजिया
मां कहती थी
दर्द बांटना
सबके आंसू पी लेना
सुख-दुख
घर के दो कमरे हैं
जिनमे चाहे रह लेना
दुआ न करना सुख न मांगना
जो मिल जाए ले लेना
बचपन में भूखा होता तो
कह देती थी सबर करो
लिखने को कोयला देती थी
खड़िया यूं मत घिसा करो
चंदा ने भी तो मांगे थे
अपनी अम्मा से कपड़े
मैं खाता तो कह देती थी
भईया से ले लिया करो
भईया के कपड़ों से
पापा के जूतों तक
बड़ा हुआ
आधी पूरी, रूखी-सूखी
खा-पी तन कर खड़ा हुआ
जब सिर पर सूरज आया
और पैरों में आये पत्थर
मां कहती बेटा चलता जा
बेटा थोड़ी हिम्मत कर
मेरी मां बिलकुल सच्ची है
सच ही बोला करती है
पर बेचारी सच क्या जाने
वो तो घर में रहती है
दर्द नहीं पकते चूल्हे में
चूल्हे में पकती है आस
शाम ढले लौटा करते हैं
मां के बिखरे से विश्वास
वो क्या जाने
कैसे सुनकर आया होगा
सबसे न वो क्या जाने
किस मजबूरी में करनी पड़ती है हां
हां न लेना-देना
खोना पाना, सब बेमाने हैं
मेरा बेटा सबसे अच्छा है
बस मां ये जाने है
अब कैसे समझाऊं उसको
कितना दर्द सहेगा दिल
कैसे सबके आंसू पी ले
सबके ग़म पीना मुश्किल
पर लगता है सब समझे हैं
मुझको नहीं बताती है
आंचल में गांठें दे देकर
हिम्मत मुझे बांधती है
अक्सर जब रातों को
मुझको नींद नहीं आया करती
नहीं सुनती मुझको लोरी
ख़ुद थक कर सो जाती है
ख़ुद थक कर सो जाती है।