यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के चलते पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों से हमारी खाद्य शृंखला को खतरा पैदा हो गया है। मानसून के पैटर्न में बदलाव, घातक गर्मी की लहरों, समुद्री जलस्तर में वृद्धि तथा आये दिन आने वाले समुद्री तूफान कृषि उत्पादन के लिये संकट पैदा कर रहे हैं। इस बाबत इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की हालिया रिपोर्ट में खतरों के प्रति चेताया गया है। निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने हमारे खेत-खलिहानों में दस्तक दे दी है, जिसका मुकाबला नई रणनीति बनाकर किया जा सकता है। आशंका जतायी जा रही है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से कृषि के क्षेत्र व फसलों की पैदावार में भारी कमी आ सकती है। खासकर छोटे किसानों के लिये यह संकट बड़ा है जो पूरी तरह से मानसूनी वर्षा पर ही निर्भर रहते हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इन विषम परिस्थितियों में पैदावार को अक्षुण्ण रखने के लिये विशेष उपक्रम किये जाएं। इस दिशा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने एक दशक पहले जलवायु अनुकूल खेती में नवाचारों को लेकर अपनी परियोजना शुरू की थी। हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा कई अधिक उपज वाली जलवायु अनुकूल फसलों की किस्मों का शुभारंभ करना इसी कड़ी का हिस्सा है। इस बाबत सरकार का कहना है कि अधिक पैदावार वाली गेहूं के बीजों की किस्मों को सफलता पूर्वक तैयार करने के बाद जलवायु प्रतिरोधी बीजों के साथ धान का रकबा बढ़ाना उसकी प्राथमिकता है। निस्संदेह, इस विकट पर्यावरणीय चुनौती का मुकाबला हम निरंतर स्वदेशी समाधानों के जरिये ही कर सकते हैं। जिसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने की जरूरत महसूस की जा रही है। निस्संदेह, देश में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिये चलाये जा रहे कार्यक्रमों की कोई कमी नहीं है,लेकिन जरूरत इस बात की है कि उपलब्ध संसाधनों के विवेकपूर्ण प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाए।
निस्संदेह, जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों से कृषि उत्पादन को संरक्षण देने और किसानों के हितों की रक्षा के लिये संसाधनों का बेहतर उपयोग बेहद जरूरी है। इसके साथ ही जल स्रोतों का संरक्षण, वन क्षेत्र की रक्षा, मृदा स्वास्थ्य कार्ड जैसी योजनाओं के जरिये भूमि की उर्वरता बढ़ाने का उपक्रम भी करने की दरकार है। हमें खेती में कृत्रिम खादों के उपयोग में भी संयम बरतना चाहिये। इसी कड़ी में फसलों के विविधीकरण कार्यक्रम को भी गति देने की आवश्यकता है। इसके लिये किसानों को जागरूक और प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह सुखद है कि देश के कई राज्यों में व्यापक पैमाने पर जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन इस कार्यक्रम को राष्ट्रव्यापी बनाया जाना चाहिये। इस दिशा में प्रोत्साहन योजनाएं किसानों का जैविक खेती अपनाने का मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं। एक तथ्य यह भी कि इस दिशा में नई प्रौद्योगिकी तैयार कर लेने मात्र से ही समस्या का समाधान संभव नहीं है। जरूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों को खेतों तक पहुंचाया जाए। किसान सहजता से उनका उपयोग करते हुए फसलों के संरक्षण को गति दे सके। दरअसल, किसान को व्यावहारिक रूप से संतुष्ट करना जरूरी भी है कि उसके लिये वास्तव में क्या उपयोगी है। देश में किसानों को जलवायु अनुकूल कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये देशव्यापी सहमति बनाने की जरूरत है। इसके लिये आधुनिक अनुसंधान के साथ ही अनुभवजन्य अध्ययन को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सही मायनों में इन प्रयासों को गति देने के लिये अनुसंधान हेतु पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने तथा खेती के लिये उपयोगी निष्कर्षों को किसानों तक पहुंचाने की भी जरूरत है। लगातार भयावह होते परिदृश्य में इस चुनौती को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शामिल करने की आवश्यकता है। इस हकीकत को जानते हुए कि हम दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले देश हैं। एक बड़ी आबादी की सामाजिक सुरक्षा के लिये तमाम खाद्यान्न योजनाएं सरकारी अन्न भंडारों के जरिये चलायी जा रही हैं। जिसकी पूर्ति खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर ही की जा सकती है। यह तभी संभव है जब हमारी कृषि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का मुकाबला करने में सक्षम हो।