शमीम शर्मा
एक हरियाणवी ताऊ किसी गांव से भैंस खरीद लाया। पैदल चलते-चलते दोपहर हो गई। थक कर चूर हुआ तो एक शीशम के पेड़ के नीचे भैंस बांध दी। वो घर से चूरमा लेकर चला था अर झोले से निकाल कर उसे खाने लगा। इतने में खेत में धान रोपाई कर रही 6-7 औरतें वहां आ गईं और ताऊ से सवाल करने लगीं।
एक लुगाई : ताऊ भैंस लिआया?
ताऊ : हां।
दूसरी : कितणे की ल्याया?
ताऊ : पूरे चालीस की।
तीसरी : कै दांती सै?
ताऊ : दो।
चौथी : पूंछड़ मैं सफेद बाल सैं?
ताऊ : सैं।
पांचवीं : खारकी सै अक दूजन?
ताऊ : दूजन।
छठी : कुणसी नसल की सै?
ताऊ : मुर्रा।
उनके सवालों से थके-हारे ताऊ का पारा चढ़ लिया था क्योंकि चूरमा भी ढंग से नहीं खाने दिया।
फेर सातवीं बोल्ली : धिणे (गर्भवती) हो री सै के?
ताऊ दीद्दे काढते होये बोल्या : क्यूं तन्नै इसका काटड़ा लेणा है के?
ऐसे ही सैकड़ों आड़े-तिरछे सवालों ने नेताओं को घायल कर रखा है। हरियाणा में चुनावी बिगुल बज गया और वो भी इतना अचानक जैसे बहती हुई कश्ती अचानक भंवर में फंस गई हो।
जिन्हें अपने ही घर के वोट मिलने का भरोसा नहीं है, उनके दिमाग में भी टिकट का कीड़ा कुलबुलाने लग गया है। हाथ जोड़ने का दौर जारी। पके हुए नेताओं में शुरू हो गई है उथल-पुथल। टिकट के बंटवारे तक नेताओं की धौंस-धमकी चलेगी। और उसके बाद बिन पैंदी के लोटे की तरह नेताओं का गुड़ना शुरू। पर जिनका नाम और काम बोलता है, वे आराम से बैठे मौज मार रहे हैं क्योंकि उन्हें टिकट की कोई चिंता नहीं है।
चुनावों की घोषणा से लेकर मतदान के दिन तक जनता यूं व्यवहार करती है जैसे कि सिंहासन पर बैठी हो और उसका राज आ गया हो। शायद इन्हीं दिनों को लोक-राज कहा जाता है। बादशाह की तरह जनता नेताओं को आदेश देती है, फरमान और फतवे जारी करती है और कहीं-कहीं तो नेताओं की एंट्री बैन के बैनर भी लगा देती है। कहावत तो है कि होई है सोई जो राम रचि राखा। पर लोकतंत्र में होई है सोई जो जनता रचि राखा। हार-जीत का खेल जनता की मुट्ठी में है।
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एक बर की बात है अक नत्थू सुरजे तैं बोल्या- यार! मन्नैं तो न्यूं दीखै अक मेरी लुगाई रामप्यारी बावली हो री है। हर टैम नई धोती ल्याण की रट लगाये राखै है। तड़कै नई धोती ल्याण की कहवै थी अर आज सबेरे फेर नई धोती की फरमाइश करै थी। सुरजा बोल्या- वा इतनी धोतियां का के करै है? नत्थू बोल्या- बेरा कोनीं भाई, मन्नैं कदे धोती ल्या कै तो देई नीं।